किसी भी देश के विकास में मज़दूरों की सबसे बड़ी भूमिका है. ये मज़दूर ही हैं, जिनके ख़ून-पसीने से विकास की प्रतीक गगनचुंबी इमारतों की तामीर होती है. ये मज़दूर ही हैं, जो खेतों में काम करने से लेकर किसी आलीशान इमारत को चमकाने का काम करते हैं. इस सबके बावजूद सरकार और प्रशासन से लेकर समाज तक इनके बारे में नहीं सोचता. बजट में भी सबसे ज़्यादा इन्हीं की अनदेखी की जाती है. सियासी दल भी चुनाव के वक़्त तो बड़े-बड़े वादे कर लेते हैं, लेकिन सत्ता में आते ही सब भूल जाते हैं. रोज़गार की कमी की वजह से लोगों को अपने पुश्तैनी गांव-क़स्बे छोड़कर दूर-दराज के इलाक़ों में जाना पड़ता है. अपने परिजनों से दूर ये मज़दूर बेहद दयनीय हालत में जीने को मजबूर हैं.
बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लाखों लोग मध्य भारत के हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों में रोज़गार की तलाश में आते हैं. इनमें से कुछ लोग यहां की छोटे-बड़े कारख़ानों में नौकरी कर लेते हैं, तो कुछ अपना कोई छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं. कोई रिक्शा चलाता है, कोई फल-सब्ज़ी बेचता है, तो कोई मज़दूरी करने लगता है. इन सभी का बस एक ही मक़सद होता है कि कुछ पैसे कमाकर अपने घर को भेज दिए जाएं.
अफ़सोस की बात है कि ज़्यादातर बाहरी मज़दूरों के पास रहने का ठिकाना तक नहीं है. दिल्ली में ऐसे हज़ारों मज़दूर हैं, जो सड़कों पर ही रहते हैं, जहां भी जगह मिल जाती है, बस वहीं सो जाते हैं. सर्दियों में उन्हें रैन बसेरों का आसरा होता है. मगर कई बार वहां भी इतनी भीड़ हो जाती है कि जगह ही नहीं मिल पाती. ऐसे में वे किसी पुल के नीचे ही आश्रय तलाशते हैं. गर्मियों की की रातें किसी पेड़ की छाया तले या फ़ुटपाथ पर कट जाती हैं. इसी तरह वे बरसात में भी कहीं न कहीं सर छुपाने की जगह तलाश ही लेते हैं.
कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की हालत भी अच्छी नहीं है. कारख़ाने में दिनभर मेहनत करने के बावजूद उन्हें बहुत कम तनख़्वाह मिलती है. इसलिए ज़्यादातर मज़दूर ओवर टाइम करते हैं. छोटे-छोटे दड़बानुमा कमरों में कई-कई मज़दूर रहते हैं. नियुक्तियां ठेकेदारों के ज़रिये होती हैं, इसलिए उन्हें कोई सुविधा नहीं दी जाती. इतना ही नहीं, उनकी नौकरी भी ठेकेदार की मर्ज़ी पर ही निर्भर करती है, वह जब चाहे उन्हें निकाल सकता है. अकसर कारख़ानों में छंटनी भी होती रहती है. जब काम कम होता है, तो मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया जाता है. ऐसी हालत में उनके सामने एक बार फिर से रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है.
भवन निर्माण में लगे मज़दूरों की हालत और भी बदतर है. देश में हर साल काम के दौरान हज़ारों मज़दूरों की मौत हो जाती है. सरकारी, अर्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवरे कुछ न कुछ मुआवज़ा तो मिल ही जाता है, लेकिन दिहाड़ी मज़दूरों को कुछ नहीं मिल पाता. पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता भी है तो काफ़ी कम दिन. अगर काम के दौरान मज़दूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं, तो उन्हें मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता. देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन अब कोई भी उनकी सुध लेने वाला नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से हर साल क़रीब 22 लाख मज़दूर मारे जाते हैं. इनमें क़रीब 40 हज़ार मौतें अकेले भारत में होती हैं, लेकिन भारत की रिपोर्ट में यह आंकड़ा हर साल केवल 222 मौतों का ही है. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया में हर साल हादसों और बीमारियों से मरने वालों की तादाद 22 लाख से ज़्यादा हो सकती है, क्योंकि बहुत से विकासशील देशें में सतही अध्ययन के कारण इसका सही-सही अंदाज़ा नहीं लग पाता.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक के मुताबिक़ कार्य स्थलों पर समुचित सुरक्षा प्रबंधों के लक्ष्य से हम काफ़ी दूर हैं. आज भी हर दिन कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से दुनियाभर में पांच हज़ार महिला-पुरुष मारे जाते हैं. औद्योगिक देशों ख़ासकर एशियाई देशों में यह संख्या ज़्यादा है. रिपोर्ट में अच्छे और सुरक्षित काम की सलाह के साथ-साथ यह भी जानकारी दी गई है कि विकासशील देशों में कार्य स्थलों पर संक्रामक बीमारियों के अलावा मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियां जानलेवा साबित हो रही हैं. अमूमन कार्य स्थलों पर प्राथमिक चिकित्सा, पीने के पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं का घोर अभाव होता है, जिसका मज़दूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.
हमारे कार्य स्थल कितने सुरक्षित हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मज़दूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराई जाती. पटाख़ा फ़ैक्ट्रियों, रसायन कारख़ानों और जहाज़ तोड़ने जैसे कामों में लगे मज़दूर सुरक्षा साधनों की कमी के कारण हुए हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं. भवन निर्माण के दौरान मज़दूरों के मरने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं. इस सबके बावजूद मज़दूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता.
दरअसल, देशी मंडी में भारी मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम विदेशी निवेशकों को भारतीय बाज़ार में पैसा लगाने के लिए आकर्षित करता है. साथ ही श्रम क़ानूनों के लचीलेपन के कारण भी वे मज़दूरों का शोषण करके ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं. अर्थशास्त्री रिकार्डो के मुताबिक़ मज़दूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढ़ती हैं, तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फ़ायदे का हिस्सा कम होगा. हमारे देश के उद्योगपति ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं. औद्योगीकरण ने बंधुआ मज़दूरी को बढ़ावा दिया. देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मज़दूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक़्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती.
अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के ज़रिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं, तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं. मज़दूर सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है. उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है. अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए, तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता.
दरअसल, अंग्रेज़ी शासनकाल में लागू की गई भूमि बंदोबस्त प्रथा ने भारत में बंधुआ मज़दूर प्रणाली के लिए आधार प्रदान किया था. इससे पहले तक ज़मीन को जोतने वाला ज़मीन का मालिक भी होता था. ज़मीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं था. उन्हें वही मिलता था जो उनका वाजिब हक़ बनता था और यह कुल उपज का एक फ़ीसद होता था. हिंदू शासनकाल में किसान ही ज़मीन के स्वामी थे. हालांकि ज़मीन का असली स्वामी राजा था. फिर भी एक बार जोतने के लिए तैयार कर लेने के बाद वह मिल्कियत किसान के हाथ में चली गई. राजा के आधिराज्य और किसान के स्वामित्व के बीच किसी भी तरह का कोई विवाद नहीं था. वक़्त के साथ राजा और राजत्व में परिवर्तन होता रहा, लेकिन किसानों की ज़मीन की मिल्कियत पर कभी असर नहीं पड़ा, लेकिन किसानों की ज़मीन की मिल्कियत पर कभी असर नहीं पड़ा. राजा और किसान के बीच कोई बिचौलिया भी नहीं था. भूमि प्रशासन ठीक से चलाने के लिए राजा गांवों में मुखिया नियुक्त करता था, लेकिन वक़्त के साथ इसमें बदलाव आता गया और भूमि के मालिक का दर्जा रखने वाला किसान महज़ खेतिहर मज़दूर बनकर रह गया.
यह अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में मज़दूरों की हालत बेहद दयनीय है. हालांकि मज़दूरों के कल्याण के नाम पर योजनाएं तो कई बनीं, लेकिन उनका फ़ायदा मज़दूरों तक नहीं पहुंच पाया. जब मज़दूर भला चंगा होता है, तो वह जैसे-तैसे मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होकर या बीमार होकर वे काम करने क़ाबिल नहीं रहता, तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है. सरकार को चाहिए कि वह मज़दूरों को वे तमाम बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए, जिनकी उन्हें ज़रूरत है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक देश का मज़दूर ख़ुशहाल नहीं होगा, तब तक देश की ख़ुशहाली का तसव्वुर करना भी बेमानी है.
लेखिका फ़िरदौस ख़ान स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं.
बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश और छत्तीसगढ़ के लाखों लोग मध्य भारत के हरियाणा, पंजाब, दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्रों में रोज़गार की तलाश में आते हैं. इनमें से कुछ लोग यहां की छोटे-बड़े कारख़ानों में नौकरी कर लेते हैं, तो कुछ अपना कोई छोटा-मोटा धंधा कर लेते हैं. कोई रिक्शा चलाता है, कोई फल-सब्ज़ी बेचता है, तो कोई मज़दूरी करने लगता है. इन सभी का बस एक ही मक़सद होता है कि कुछ पैसे कमाकर अपने घर को भेज दिए जाएं.
अफ़सोस की बात है कि ज़्यादातर बाहरी मज़दूरों के पास रहने का ठिकाना तक नहीं है. दिल्ली में ऐसे हज़ारों मज़दूर हैं, जो सड़कों पर ही रहते हैं, जहां भी जगह मिल जाती है, बस वहीं सो जाते हैं. सर्दियों में उन्हें रैन बसेरों का आसरा होता है. मगर कई बार वहां भी इतनी भीड़ हो जाती है कि जगह ही नहीं मिल पाती. ऐसे में वे किसी पुल के नीचे ही आश्रय तलाशते हैं. गर्मियों की की रातें किसी पेड़ की छाया तले या फ़ुटपाथ पर कट जाती हैं. इसी तरह वे बरसात में भी कहीं न कहीं सर छुपाने की जगह तलाश ही लेते हैं.
कारख़ानों में काम करने वाले मज़दूरों की हालत भी अच्छी नहीं है. कारख़ाने में दिनभर मेहनत करने के बावजूद उन्हें बहुत कम तनख़्वाह मिलती है. इसलिए ज़्यादातर मज़दूर ओवर टाइम करते हैं. छोटे-छोटे दड़बानुमा कमरों में कई-कई मज़दूर रहते हैं. नियुक्तियां ठेकेदारों के ज़रिये होती हैं, इसलिए उन्हें कोई सुविधा नहीं दी जाती. इतना ही नहीं, उनकी नौकरी भी ठेकेदार की मर्ज़ी पर ही निर्भर करती है, वह जब चाहे उन्हें निकाल सकता है. अकसर कारख़ानों में छंटनी भी होती रहती है. जब काम कम होता है, तो मज़दूरों को नौकरी से निकाल दिया जाता है. ऐसी हालत में उनके सामने एक बार फिर से रोज़ी-रोटी का संकट पैदा हो जाता है.
भवन निर्माण में लगे मज़दूरों की हालत और भी बदतर है. देश में हर साल काम के दौरान हज़ारों मज़दूरों की मौत हो जाती है. सरकारी, अर्ध सरकारी या इसी तरह के अन्य संस्थानों में काम करते समय दुर्घटनाग्रस्त हुए लोगों या उनके आश्रितों को देर सवरे कुछ न कुछ मुआवज़ा तो मिल ही जाता है, लेकिन दिहाड़ी मज़दूरों को कुछ नहीं मिल पाता. पहले तो इन्हें काम ही मुश्किल से मिलता है और अगर मिलता भी है तो काफ़ी कम दिन. अगर काम के दौरान मज़दूर दुर्घटनाग्रस्त हो जाएं, तो उन्हें मुआवज़ा भी नहीं मिल पाता. देश में कितने ही ऐसे परिवार हैं, जिनके कमाऊ सदस्य दुर्घटनाग्रस्त होकर विकलांग हो गए हैं या फिर मौत का शिकार हो चुके हैं, लेकिन अब कोई भी उनकी सुध लेने वाला नहीं है.
संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनियाभर में कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से हर साल क़रीब 22 लाख मज़दूर मारे जाते हैं. इनमें क़रीब 40 हज़ार मौतें अकेले भारत में होती हैं, लेकिन भारत की रिपोर्ट में यह आंकड़ा हर साल केवल 222 मौतों का ही है. संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि दुनिया में हर साल हादसों और बीमारियों से मरने वालों की तादाद 22 लाख से ज़्यादा हो सकती है, क्योंकि बहुत से विकासशील देशें में सतही अध्ययन के कारण इसका सही-सही अंदाज़ा नहीं लग पाता.
अंतर्राष्ट्रीय श्रम संगठन के महानिदेशक के मुताबिक़ कार्य स्थलों पर समुचित सुरक्षा प्रबंधों के लक्ष्य से हम काफ़ी दूर हैं. आज भी हर दिन कार्य संबंधी हादसों और बीमारियों से दुनियाभर में पांच हज़ार महिला-पुरुष मारे जाते हैं. औद्योगिक देशों ख़ासकर एशियाई देशों में यह संख्या ज़्यादा है. रिपोर्ट में अच्छे और सुरक्षित काम की सलाह के साथ-साथ यह भी जानकारी दी गई है कि विकासशील देशों में कार्य स्थलों पर संक्रामक बीमारियों के अलावा मलेरिया और कैंसर जैसी बीमारियां जानलेवा साबित हो रही हैं. अमूमन कार्य स्थलों पर प्राथमिक चिकित्सा, पीने के पानी और शौचालय जैसी सुविधाओं का घोर अभाव होता है, जिसका मज़दूरों के स्वास्थ्य पर बुरा असर पड़ता है.
हमारे कार्य स्थल कितने सुरक्षित हैं, यह बताने की ज़रूरत नहीं है. ऊंची इमारतों पर चढ़कर काम कर रहे मज़दूरों को सुरक्षा बैल्ट तक मुहैया नहीं कराई जाती. पटाख़ा फ़ैक्ट्रियों, रसायन कारख़ानों और जहाज़ तोड़ने जैसे कामों में लगे मज़दूर सुरक्षा साधनों की कमी के कारण हुए हादसों में अपनी जान गंवा बैठते हैं. भवन निर्माण के दौरान मज़दूरों के मरने की ख़बरें आए दिन अख़बारों में छपती रहती हैं. इस सबके बावजूद मज़दूरों की सुरक्षा पर कोई ध्यान नहीं दिया जाता.
दरअसल, देशी मंडी में भारी मात्रा में उपलब्ध सस्ता श्रम विदेशी निवेशकों को भारतीय बाज़ार में पैसा लगाने के लिए आकर्षित करता है. साथ ही श्रम क़ानूनों के लचीलेपन के कारण भी वे मज़दूरों का शोषण करके ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा बटोरना चाहते हैं. अर्थशास्त्री रिकार्डो के मुताबिक़ मज़दूरी और उनको दी जाने वाली सुविधाएं बढ़ती हैं, तो उद्योगपतियों को मिलने वाले फ़ायदे का हिस्सा कम होगा. हमारे देश के उद्योगपति ठीक इसी नीति पर चल रहे हैं. औद्योगीकरण ने बंधुआ मज़दूरी को बढ़ावा दिया. देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, जहां मज़दूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई जाती है और मज़दूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते हैं, जिससे उन्हें दो वक़्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो पाती.
अफ़सोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के ज़रिये प्रशासन पर दबाव बनाते हैं, तो अधिकारियों की नींद टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी कर लेते हैं. मज़दूर सुरेंद्र कहता है कि मज़दूरों को ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है. उन्हें हर रोज़ काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहां भी उन्हें अमानवीय स्थिति में काम करना पड़ता है. अगर कोई मज़दूर बीमार हो जाए, तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक करने नहीं दिया जाता.
दरअसल, अंग्रेज़ी शासनकाल में लागू की गई भूमि बंदोबस्त प्रथा ने भारत में बंधुआ मज़दूर प्रणाली के लिए आधार प्रदान किया था. इससे पहले तक ज़मीन को जोतने वाला ज़मीन का मालिक भी होता था. ज़मीन की मिल्कियत पर राजाओं और उनके जागीरदारों का कोई दावा नहीं था. उन्हें वही मिलता था जो उनका वाजिब हक़ बनता था और यह कुल उपज का एक फ़ीसद होता था. हिंदू शासनकाल में किसान ही ज़मीन के स्वामी थे. हालांकि ज़मीन का असली स्वामी राजा था. फिर भी एक बार जोतने के लिए तैयार कर लेने के बाद वह मिल्कियत किसान के हाथ में चली गई. राजा के आधिराज्य और किसान के स्वामित्व के बीच किसी भी तरह का कोई विवाद नहीं था. वक़्त के साथ राजा और राजत्व में परिवर्तन होता रहा, लेकिन किसानों की ज़मीन की मिल्कियत पर कभी असर नहीं पड़ा, लेकिन किसानों की ज़मीन की मिल्कियत पर कभी असर नहीं पड़ा. राजा और किसान के बीच कोई बिचौलिया भी नहीं था. भूमि प्रशासन ठीक से चलाने के लिए राजा गांवों में मुखिया नियुक्त करता था, लेकिन वक़्त के साथ इसमें बदलाव आता गया और भूमि के मालिक का दर्जा रखने वाला किसान महज़ खेतिहर मज़दूर बनकर रह गया.
यह अफ़सोस की बात है कि आज़ादी के इतने सालों बाद भी हमारे देश में मज़दूरों की हालत बेहद दयनीय है. हालांकि मज़दूरों के कल्याण के नाम पर योजनाएं तो कई बनीं, लेकिन उनका फ़ायदा मज़दूरों तक नहीं पहुंच पाया. जब मज़दूर भला चंगा होता है, तो वह जैसे-तैसे मज़दूरी करके अपना और अपने परिवार का पेट पाल लेता है, लेकिन दुर्घटनाग्रस्त होकर या बीमार होकर वे काम करने क़ाबिल नहीं रहता, तो उस पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ता है. सरकार को चाहिए कि वह मज़दूरों को वे तमाम बुनियादी सुविधाएं मुहैया कराए, जिनकी उन्हें ज़रूरत है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि जब तक देश का मज़दूर ख़ुशहाल नहीं होगा, तब तक देश की ख़ुशहाली का तसव्वुर करना भी बेमानी है.
लेखिका फ़िरदौस ख़ान स्टार न्यूज़ एजेंसी में संपादक हैं.
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