शहीद स्वर्गीय हेमंत करकरे की बेटी का प्रथम पृष्ठ पर साक्षात्कार है। सब हेड में प्रज्ञा के कथन वाला सवाल है और जवाब को हेडिंग बनाकर पेश किया गया है। फिर अंदर आइए। अखबार फरमाता है कि साध्वी के नामांकन दाखिल करने के समय भीड़ के चलते ऐसा जाम लगा कि स्कूल बस और एंबुलेंस उसमें फंस गयीं। इसके ठीक बगल में दिग्विजय सिंह प्रकट होते हैं। उनके साध्वी को निपटाने की कोशिश वाले बयान को तीन लाइन की हैडिंग में प्रमुखता से जगह दी गयी है। आगे बढ़िये।
मराठी समाज के उस प्रदर्शन का समाचार फोटो सहित प्रमुखता से छापा गया है, जिसमें प्रज्ञा ठाकुर के बयान की निंदा वाली बात है। अगले किसी पृष्ठ पर अखबार लिखता है कि कांग्रेस तो यह चुनाव विकास और न्याय के नाम पर लड़ रही है, लेकिन भाजपा हिंदुत्व पर ही फिर उतर आयी है।
दिवंगत करकरे पर जिस तरह के आरोप लगे, उसकी रोशनी में उनके परिवार की पीड़ा सामने लाना बहुत अच्छा है। लेकिन क्या इतनी ही प्रमुखता से इस परिवार की बातचीत उस समय प्रकाशित की गयी थी, जब दिग्विजय सिंह ने एक समय करकरे की शहादत को हत्या बताया था? एक पत्रकार के नाते में यह स्पष्ट कर दूं कि न तो मैं प्रज्ञा ठाकुर का समर्थक हूं और ना ही मैं दिग्विजय सिंह का विरोधी।
सड़क पर जाम तो उस समय भी लगता है, जब दैनिक भास्कर के गरबा कार्यक्रम के लिए हजारों वाहनों की भीड़ उमड़ती है। उससे भी सामने वाली सड़क से गुजरने वाले लोग परेशान होते हैं। आपको इतनी ही जनता की चिंता है तो फिर यह समाचार क्यों प्रकाशित नहीं किया जाता कि दैनिक भास्कर के मुख्य द्वार के सामने वाली सार्वजनिक सड़क को इसके स्टाफ की गाड़ियों के चलते किसी पार्किंग में तब्दील कर दिया गया है? बयान तो प्रज्ञा के पक्ष में भी दिए जा रहे हैं। उनमें भी दिग्विजय सिंह की बात जितनी ही आग छिपी हुई है, तो फिर उन्हें क्यों नहीं इतनी ही तवज्जो के साथ स्थान दिया जा रहा है? मराठी समाज का गुस्सा वाजिब है। उसकी खबर भी यकीनन छपना ही चाहिए, किंतु आक्रोशित तो वह लोग भी हैं, जो दिग्विजय सिंह की 'भगवा आतंकवाद' वाली बात से आहत हैं। वे सोशल मीडिया पर लगातार सक्रिय हैं। यह अखबार तो इस मीडिया से जुड़ी खबरें भी छापता है। तो फिर क्या वजह है कि इस गुस्से को नजरंदाज किया जा रहा है? फिर यदि आपको भाजपा का हिंदुत्व कांग्रेस के विकास या न्याय से कमतर लगता है तो आप इस बात की ओर ध्यान क्यों नहीं दे पा रहे कि खुद दिग्विजय ने चुनाव प्रचार के दौरान भोपाल में राम मंदिर बनाने की बात कहकर धार्मिक लाभ लेने की कोशिश की है? दिग्विजय के मंच पर मोदी समर्थक की मौजूदगी और एयर स्ट्राइक आपको हंसी ठिठोली लगती है। ये नहीं लगता कि दिग्विजय सिंह सकपका गए या सकते में आ गए।
यकीनन अखबारों की अपनी मजबूरी है। वह मजबूरी, जिसे धन-धान्य और सत्ता की ताकत से भरपूर शख्स के जरिये आसानी से दूर किया जा सकता है। साध्वी प्रज्ञा इस मामले में तंग हाथ की शिकार हैं। लेकिन हुजूरे-आला, मजबूरी और मजदूरी में कुछ तो फर्क रखिये। जी हां, 'मजदूरी' ही लिखा है, जिसे ऊपर बतायी गयी एक-एक दिहाड़ीनुमा खबर में आसानी से देखा जा सकता है।
बहुत हो गया मालिक। अब प्रज्ञा के सही-गलत का फैसला कानून, चुनाव आयोग और मतदाता को भी कर लेने दीजिए। और नहीं, तो फिर दिग्विजय सिंह के बयानों को भी उसी तड़कानुमा अंदाज में छापिए, जैसा प्रज्ञा ठाकुर के मामले में किया जा रहा है।
स्वर्गीय करकरे के लिए भाजपा उम्मीदवार ने जो कहा, वह यकीनन आपत्तिजनक है। निंदा के काबिल है। किंतु आप तो खुद को अखबार से अदालत में तब्दील न करें। यह भूमिका वैसे भी देश के बड़े-बडे निजी टीवी समाचार चैनलों और उनके स्वनाम धन्य एंकर ले ही चुके हैं। अखबार को तो इससे बख्शिए। पाठक की आपके अखबार से उम्मीद खबर पढ़ने की है, खबर गढ़ने की नहीं। आप निश्चित हीं नंबर वन हैं। तो फिर इस महान उपलब्धि की गरिमा को बनाये रखें। याद रखें कि यह वही पाठक वर्ग है, जो होली को पानी की बबार्दी वाला त्योहार बताने की आपकी कोशिशों को वृहद स्तरीय आलोचना का शिकार बनाकर जता चुका है कि आप केवल उसकी खबरों के लेखक की हद तक रहें, उसके विचारों का लेखक बनने की गुस्ताखी आपको महंगी पड़ सकती है।
अंत में याद दिला दूं। मुश्किल से दो महीने पहले फेसबुक पर एक यूजर ने आपके अखबार का नाम 'दैनिक बकवासकर' लिखा था। उसकी इस पोस्ट को थोकबंद लाइक्स और समर्थन मिला था। हवा का रुख समझिए हुजूर। किसी ने लिखा है, अपनी बुलंदी पे इतना नाज न कर प्यारे, हमने तो आसमां से सितारों को गिरते देखा है। इसी भोपाल में एक ऐसा अखबार हुआ भी है।
भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार प्रकाश भटनागर की एफबी वॉल से.
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