अजय कुमार, लखनऊ
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का जोश हाई है। वाराणसी में जिस तरह से विपक्ष और खासकर अपने आप को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली कांगे्रस ने हथियार डाले उससे बीजेपी को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। कांगे्रस को इसका बढ़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है तो उधर, प्रियंका का वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ना मायावती और अखिलेश गठबंधन के लिए राहत भरी खबर रही। प्रियंका अगर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ती तो भले वह वाराणसी से चुनाव हार जाती, लेकिन पूर्वांचल की अन्य कई लोकसभा सीटों के कांगे्रस प्रत्याशियों को इसका जबर्दस्त फायदा मिलता,जिससे पूर्वांचल लोकसभा चुनाव प्रभारी होने के नाते प्रियंका का कद काफी बढ़ जाता। पूर्वांचल में प्रियंका के प्रभार वाली करीब चार दर्जन लोकसभा सीटें हैं, जिसमें एक आजमगढ़ की लोकसभा सीट को छोड़कर 2014 में भाजपा का सभी सीटों पर कब्जा रहा था। आजमगढ़ से सपा नेता मुलायम सिंह यादव चुनाव जीते थे। इस बार आजमगढ़ से अखिलेश यादव चुनाव लड़ रहे है।
प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने के संबंध में कांग्रेस पार्टी के विश्वस्त सूत्रों का कहना था कि प्रियंका गांधी ने जब यह कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहेंगे तो वे बनारस से चुनाव लड़ेंगी, यह बात प्रियंका ने हवा में नहीं कही थी। जब ऐसी चर्चाएं आनी शुरु हुई तो उस वक्त कांग्रेस पार्टी अपना सर्वे शुरु कर चुकी थी। बनारस लोकसभा क्षेत्र की सभी विधानसभा सीटों का गणित बैठाया गया। मौजूदा समय में बनारस लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली पांचों विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के पास एक भी नहीं है। कांग्रेस नेता के मुताबिक, सर्वे में सामने आया कि राहुल गांधी अगर सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ यहां पर कई दिनों का चुनाव प्रचार करते, रोड शो और मतदाताओं से नियमित संपर्क रखते तो भी वे साढ़े तीन लाख मतों के पार नहीं जा पा रहे थे।
यह सर्वे 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के आधार पर किया गया है। उस दौरान नरेंद्र मोदी को 5,81,022 वोट मिले थे। केजरीवाल के हिस्से 2,09,238 वोट आए, जबकि अजय राय को 75,614 वोट मिले। चैथे नंबर पर रहे बसपा प्रत्याशी को 60, 579 वोट मिले। सर्वे में 2009 के चुनाव की स्थिति भी देखी गई। उस वक्त भाजपा के मुरली मनोहर जोशी 2,03,122 वोट लेकर जीते थे। कांग्रेस तब भी किसी पायदान पर नहीं थी।
बनारस सीट पर 2014 के लोकसभा चुनाव के मुताबिक, 15 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। मुस्लिम समुदाय तीन लाख से अधिक हैं तो इनके बाद ब्राह्मण पौने तीन लाख, वैश्य दो लाख, कुर्मी डेढ़ लाख, यादव डेढ़ लाख, भूमिहार डेढ़ लाख, कायस्थ 65 हजार, चैरसिया 80 हजार और दलित भी 80 हजार के आसपास हैं। सर्वे में यह माना गया कि मुस्लिम समुदाय के दो लाख वोट अगर प्रियंका गांधी को मिल जाते हैं तो बाकी समुदायों में से सभी के मिलाकर डेढ़ लाख वोट कांग्रेस के खाते में आ सकते हैं। कांग्रेस पार्टी का अंदाजा कुछ ऐसा ही निकला। ये आंकलन कांग्रेस का अपने दम पर चुनाव लड़ने की स्थिति का है। यदि कांग्रेस पार्टी को सपा, बसपा का समर्थन मिल जाता तो प्रियंका के खाते में एक लाख वोटों का इजाफा हो सकता था। सर्वे का यही प्वाइंट था, जिसके बाद कांग्रेस को अपना संभावित कदम पीछे खींचना पड़ा। इसके बाद ही अजय राय को बनारस सीट से चुनाव मैदान में उतार दिया गया। हालांकि पार्टी नेता यह भी कह रहे हैं कि सपा-बसपा की ओर से प्रियंका गांधी के लिए फुल स्पोर्ट का कोई फार्मूला नहीं आया था।
खैर, बात प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने की कि जाए तो सपा-बसपा गठबंधन को प्रियंका गांधी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की स्थिति में रायबरेली, अमेठी की तर्ज पर यहां (वाराणसी) से भी अपना प्रत्याशी नहीं उतारने का दबाव रहता। एक सीट छोड़ने से गठबंधन को कोई नुकसान नहीं होता, वैसे भी वह वाराणसी जीतने वाली नहीं है, लेकिन कांग्रेस के लिए सीट छोड़ते ही बीजेपी वाले हल्ला मचाना शुरू कर देते कि सपा-बसपा और कांगे्रस मिले हुए हैं। गठबंधन की इससे भी बड़ी चिंता यह थी कि पूर्वांचल की कई सीटों पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के उत्साह का प्रतिकूल असर गठबंधन के उम्मीदवारों पर भी पड़ सकता था।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस महासचिव के चुनाव नहीं लड़ने के फैसले से भाजपा से ज्यादा राहत गठबंधन को मिली है। क्योंकि यह एक सीट पर जीत-हार का मामला नहीं था। इससे कई सीटों पर समीकरण बन-बिगड़ सकते थे। जमीन पर माहौल और समीकरण कई बार बड़ी शख्सियत के चुनाव लड़ने पर बदल जाते हैं। प्रियंका गांधी अगर चुनावी मैदान में उतरतीं तो उनकी शख्सियत से चुनावी रोमांच चरम पर होता। चुनावी विश्लेषकों के मुताबिक जमीन पर कांग्रेस व गठबंधन के बीच आपसी समझ नहीं बनी है। गांधी परिवार, मुलायम परिवार और अजीत सिंह के परिवार को छोड़ दें तो अन्य सीटों पर दोस्ताना संघर्ष की स्थिति को भी इन विरोधी दलों ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसे में जमीन पर कार्यकर्ताओं में उहापोह की स्थिति हो सकती थी।.बहरहाल, प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने से बुआ-बबुबा खुश बताए जा रहे हैं।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की रिपोर्ट.
उत्तर प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी का जोश हाई है। वाराणसी में जिस तरह से विपक्ष और खासकर अपने आप को राष्ट्रीय पार्टी कहने वाली कांगे्रस ने हथियार डाले उससे बीजेपी को मनोवैज्ञानिक बढ़त मिली है। कांगे्रस को इसका बढ़ा नुकसान उठाना पड़ सकता है तो उधर, प्रियंका का वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ना मायावती और अखिलेश गठबंधन के लिए राहत भरी खबर रही। प्रियंका अगर मोदी के खिलाफ चुनाव लड़ती तो भले वह वाराणसी से चुनाव हार जाती, लेकिन पूर्वांचल की अन्य कई लोकसभा सीटों के कांगे्रस प्रत्याशियों को इसका जबर्दस्त फायदा मिलता,जिससे पूर्वांचल लोकसभा चुनाव प्रभारी होने के नाते प्रियंका का कद काफी बढ़ जाता। पूर्वांचल में प्रियंका के प्रभार वाली करीब चार दर्जन लोकसभा सीटें हैं, जिसमें एक आजमगढ़ की लोकसभा सीट को छोड़कर 2014 में भाजपा का सभी सीटों पर कब्जा रहा था। आजमगढ़ से सपा नेता मुलायम सिंह यादव चुनाव जीते थे। इस बार आजमगढ़ से अखिलेश यादव चुनाव लड़ रहे है।
प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने के संबंध में कांग्रेस पार्टी के विश्वस्त सूत्रों का कहना था कि प्रियंका गांधी ने जब यह कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी कहेंगे तो वे बनारस से चुनाव लड़ेंगी, यह बात प्रियंका ने हवा में नहीं कही थी। जब ऐसी चर्चाएं आनी शुरु हुई तो उस वक्त कांग्रेस पार्टी अपना सर्वे शुरु कर चुकी थी। बनारस लोकसभा क्षेत्र की सभी विधानसभा सीटों का गणित बैठाया गया। मौजूदा समय में बनारस लोकसभा क्षेत्र के तहत आने वाली पांचों विधानसभा सीटों में से कांग्रेस के पास एक भी नहीं है। कांग्रेस नेता के मुताबिक, सर्वे में सामने आया कि राहुल गांधी अगर सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी वाड्रा के साथ यहां पर कई दिनों का चुनाव प्रचार करते, रोड शो और मतदाताओं से नियमित संपर्क रखते तो भी वे साढ़े तीन लाख मतों के पार नहीं जा पा रहे थे।
यह सर्वे 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम के आधार पर किया गया है। उस दौरान नरेंद्र मोदी को 5,81,022 वोट मिले थे। केजरीवाल के हिस्से 2,09,238 वोट आए, जबकि अजय राय को 75,614 वोट मिले। चैथे नंबर पर रहे बसपा प्रत्याशी को 60, 579 वोट मिले। सर्वे में 2009 के चुनाव की स्थिति भी देखी गई। उस वक्त भाजपा के मुरली मनोहर जोशी 2,03,122 वोट लेकर जीते थे। कांग्रेस तब भी किसी पायदान पर नहीं थी।
बनारस सीट पर 2014 के लोकसभा चुनाव के मुताबिक, 15 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। मुस्लिम समुदाय तीन लाख से अधिक हैं तो इनके बाद ब्राह्मण पौने तीन लाख, वैश्य दो लाख, कुर्मी डेढ़ लाख, यादव डेढ़ लाख, भूमिहार डेढ़ लाख, कायस्थ 65 हजार, चैरसिया 80 हजार और दलित भी 80 हजार के आसपास हैं। सर्वे में यह माना गया कि मुस्लिम समुदाय के दो लाख वोट अगर प्रियंका गांधी को मिल जाते हैं तो बाकी समुदायों में से सभी के मिलाकर डेढ़ लाख वोट कांग्रेस के खाते में आ सकते हैं। कांग्रेस पार्टी का अंदाजा कुछ ऐसा ही निकला। ये आंकलन कांग्रेस का अपने दम पर चुनाव लड़ने की स्थिति का है। यदि कांग्रेस पार्टी को सपा, बसपा का समर्थन मिल जाता तो प्रियंका के खाते में एक लाख वोटों का इजाफा हो सकता था। सर्वे का यही प्वाइंट था, जिसके बाद कांग्रेस को अपना संभावित कदम पीछे खींचना पड़ा। इसके बाद ही अजय राय को बनारस सीट से चुनाव मैदान में उतार दिया गया। हालांकि पार्टी नेता यह भी कह रहे हैं कि सपा-बसपा की ओर से प्रियंका गांधी के लिए फुल स्पोर्ट का कोई फार्मूला नहीं आया था।
खैर, बात प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने की कि जाए तो सपा-बसपा गठबंधन को प्रियंका गांधी के वाराणसी से चुनाव लड़ने की स्थिति में रायबरेली, अमेठी की तर्ज पर यहां (वाराणसी) से भी अपना प्रत्याशी नहीं उतारने का दबाव रहता। एक सीट छोड़ने से गठबंधन को कोई नुकसान नहीं होता, वैसे भी वह वाराणसी जीतने वाली नहीं है, लेकिन कांग्रेस के लिए सीट छोड़ते ही बीजेपी वाले हल्ला मचाना शुरू कर देते कि सपा-बसपा और कांगे्रस मिले हुए हैं। गठबंधन की इससे भी बड़ी चिंता यह थी कि पूर्वांचल की कई सीटों पर कांग्रेस कार्यकर्ताओं के उत्साह का प्रतिकूल असर गठबंधन के उम्मीदवारों पर भी पड़ सकता था।
राजनीतिक जानकार मानते हैं कि कांग्रेस महासचिव के चुनाव नहीं लड़ने के फैसले से भाजपा से ज्यादा राहत गठबंधन को मिली है। क्योंकि यह एक सीट पर जीत-हार का मामला नहीं था। इससे कई सीटों पर समीकरण बन-बिगड़ सकते थे। जमीन पर माहौल और समीकरण कई बार बड़ी शख्सियत के चुनाव लड़ने पर बदल जाते हैं। प्रियंका गांधी अगर चुनावी मैदान में उतरतीं तो उनकी शख्सियत से चुनावी रोमांच चरम पर होता। चुनावी विश्लेषकों के मुताबिक जमीन पर कांग्रेस व गठबंधन के बीच आपसी समझ नहीं बनी है। गांधी परिवार, मुलायम परिवार और अजीत सिंह के परिवार को छोड़ दें तो अन्य सीटों पर दोस्ताना संघर्ष की स्थिति को भी इन विरोधी दलों ने स्वीकार नहीं किया है। ऐसे में जमीन पर कार्यकर्ताओं में उहापोह की स्थिति हो सकती थी।.बहरहाल, प्रियंका के वाराणसी से चुनाव नहीं लड़ने से बुआ-बबुबा खुश बताए जा रहे हैं।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अजय कुमार की रिपोर्ट.
No comments:
Post a Comment