Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

30.4.08

जुडीशियरी और विधायिका में जूतम-पैजार : सूचना का अधिकार


चीफ़ जस्टिस के.जी.बालाकृष्णन ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि सूचना के अधिकार के दायरे से उनका कार्यालय बाहर है इस लिये उनसे किसी सूचना की उम्मीद न करी जाए लेकिन दूसरी ओर लोकसभा स्पीकर सोमनाथ चटर्जी और विधि मंत्री एच.आर.भारद्वाज ने इस बात का विरोध किया है। विधि,कार्मिक एवं न्याय के लिये गठित करी गयी खड़ी समिति (स्टैंडिंग कमिटी) के कुर्सीमानव(चेयरमैन) ई.एम. सुदर्शननटचिअप्पन ने कहा है कि जब प्रधानमंत्री तथा लोकसभा जैसे बड़े संसदीय अधिकार रखने वाले कार्यालय इसके दायरे में आते हैं तो फिर संपूर्ण न्यायपालिका भी इसके दायरे में आनी ही चाहिये और आती भी है। लेकिन अब हो ये रहा है कि जो सपना मैं बरसों से देख रहा था कि न्याय खुले प्रांगण में क्यों नहीं होता और जस्टिस आनंद सिंह जैसे लोग खुद न्याय के लिये दसियों बरस न्याय के लिये जूझते क्यों रहते हैं और न्याय नहीं मिल पाता? जस्टिस आनंद सिंह ने जब न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार की जड़ें कुरेदना शुरू करीं तो ये हाल हुआ कि आज मुफलिसी से जूझ रहे हैं, राजद्रोह के मुकदमें में सभी भाइयों को फंसा दिया गया,पांच साल तक अंडरट्रायल रहे लेकिन अंततः मुकदमा जीते लेकिन अभी तक माफ़िया का भूत उन्हें और उनके परिवार को भुखमरी के दिन दिखा रहा है। अब न्यायपालिका और विधायिका एक दूसरे पर कीचड़ फेंक रही हैं। ये वो प्रणालियां हैं जो कि लोकतंत्र को सही तरीके से चलाने के लिये बनाई गयी थीं लेकिन स्वार्थ की दीमक ने इन्हें चाट कर खोखला कर डाला लेकिन सूचना का अधिकार शायद एक मल-मूत्र भरी हंड़िया की तरह हो गया है जिससे हर आदमी बचना चाह रहा है चाहे वो न्यायपालिका हो,कार्यपालिका हो या फिर विधायिका बल्कि मेरा तो विचार है कि मीडिया को भी इस दायरे में लाना चाहिये और साथ ही उन तमाम NGOs को भी जो मलाई छान रहे हैं अपने मंत्री चाचा या मामा के कारण।

जय जय भड़ास

welcome to India,the brave president of Iran


अखबार के किसी कोने में भूली भटकी एक ख़बर पढी कि २९ अप्रैल को ईरानी प्रेसिडेंट महमूद अहमदीनेजाद भारत आरहे हैं.भारत का ईरान से काफी गहरा और एतिहासिक रिश्ता रहा है.ये शायद सभी को मालूम है. जून २००५ में भारत और ईरान के दरमियान गैस पाइप लाइन पर सहमति हुयी थी, जिसके तहत ईरान को २२ अरब डॉलर की कीमत पर २५ साल तक ५० लाख टन गैस की सप्लाई भारत को करनी थी. यह पाइप लाइन पाकिस्तान से होते हुए भारत आनी है.गौर किया जाए तो यह एक बहुत बड़ा प्रोजेक्ट है,दोनों नही बल्कि तीनों देशों के लिए,प्रोजेक्ट से ज़्यादा अगर इसे एक नए रिश्ते की शुरुआत कहा जाए तो ग़लत नही होगा. ये सौदा तीनों देशों के लिए फायदे का सौदा है.फायदा सिर्फ़ एक दूसरे की सहूलत और तरक्की का ही नही है,बल्कि ये सौदा तीनों देशों को एक मज़बूत धागे में पिरोने का काम करेगा,बशर्त-येकि तीनों देश एक दूसरे के लिए ईमानदार रह सकें.
इस रिश्ते में ईरान की तरफ़ से तो कोई खतरा नही है,सब से ज़्यादा खतरा पाकिस्तान की तरफ़ से है जो अपनी ज़मीन से पाईप लाइन के गुजरने की मुंह मांगी कीमत चाह रहा है.लेकिन उम्मीद यही है कि पाकिस्तान की नई सरकार इस प्रोजेक्ट की क़द्र--कीमत को समझेगी और अपना पूरा सहयोग देगी क्योंकि इस से उसका भी कम फायदा नही है.
सब कुछ ठीक हो सकता है,लेकिन असली खतरा उस दुनिया के सब से बड़े दहशत गर्द देश से है जिसे इस प्रोजेक्ट से बनने वाले मज़बूत रिश्ते से अपने लिए खतरे की बू महसूस हो रही होगी.वो भला कैसे चाहेगा कि उसके इशारे पर नाचने वाले देश उसके अज़्ली (पुराने)दुश्मन ईरान से हाथ मिलाएँ.
इस बात का सबूत वो अपने घटिया बयानों से कई बार दे चुका है.
दिलों को बांटने वाला,नफरत का ज़हर फैला कर खून की नदियाँ बहने वाला और इस नफरत और खून से अपने हथियारों के लिए बाज़ार तय्यार करने वाला अमेरिका तीन देशों को एक मज़बूत रिश्ते में बंधते हुएऔर ,तरक्की करते हुए कैसे देख सकता है?
फिर भी उम्मीद है कि तीनों देश इतने समझदार हैं कि अपने हितों को समझेंगे और इस प्रोजेक्ट को सफलता पूर्वक पूरा होने देंगे.
बहरहाल बात हो रही थी ईरानी प्रेसिडेंट के इसी प्रोजेक्ट के सिलसिले में भारत आने की.
मुझे याद है जब अमेरिकी प्रेसिडेंटस बिल क्लिंटन और बुश भारत आए थे.पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज़ मुशर्रफ की भारत यात्रा भी अभी भूली नही है.जब हमारा सारा मीडिया ,चाहे वो अखाबारात रहे हों या टी.वी के सारे चैनल्स, उनकी एक एक हरकत पर यूँ नज़र रखे हुए थे कि लगता था कोई होड़ लगी हो कि अगर उन्हें एक छींक भी आजाये तो वो ख़बर सब से पहले उनके अख़बार या चैनल पर आनी चाहिए.
कल यही सोच कर टी.वी पर घंटों न्यूज़ चैनल्स खंगालती रही लेकिन ख़ास ख़बरों की तो बात छोडिये,एक छोटी सी ख़बर भी नही दिखी कि ईरानी सदर भारत आरहे हैं या चुके हैं.वहाँ तो हर चैनल्स पर हरभजन सिंह के तमाचे की गूँज थी,दुनिया के पाँच सब से चर्चित तमाचों का बखान हो रहा था.वहां तो पैसों के बल पर चलने वाले तमाशे पर चर्चा हो रही थी.
सोचा कहीं मैंने ग़लत तो नही पढ़ लिया ,ऐसा तो नही कि वो मई २९ को भारत रहे हैं? यही सोचते हुए टी.वी बंद कर दिया.
आज सुबह टाइम्स ऑफ़ इंडिया और अमर उजाला देखते हुए पहले तो मायूसी हुई फिर आखिरकार अमर उजाला के सेकंड पेज पर एक छोटी सी तस्वीर और मुख्तसर सी ख़बर पर निगाह पड़ी कि ईरानी प्रेसिडेंट भारत चुके हैं और प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह से मुलाक़ात कर चुके हैं.
बड़ी हैरत हुयी,कितने दुःख की बात है कि हमारा मीडिया उन लोगों को तो हाई लाईट करता है जिन के हाथ अनगिनत इंसानों के खून से रंगे हैं,जो इंसानियत के दुश्मन हैं लेकिन ऐसे लोगों को जो दुनिया के हर खतरे से बे खौफ हो कर दुश्मनों की हर धमकी से बे परवाह बिना अपने ज़मीर को गिरवी रखे खामोशी अपने देश और लोगों की तरक्की में लगे हुए हैं,कितनी आसानी से और किस बुरी तरह से दरकिनार कर देता है.
आज अहमदीनेजाद ,जो इस दुनिया में इरादों की मजबूती, बहादुरी और बेखौफी की जीती जागती मिसाल हैं,काश हमारा पश्चिमी मानसिकता से ग्रस्त मीडिया समझ पाता कि ऐसा शख्स ही हाई लाईट होने का असली हक़दार है क्योंकि आने वाले वक़्त में अमेरिका जैसे दहशत गर्द देशों की चौधराहट को ख़त्म करने के लिए दुनिया को ऐसे ही लोगों की ज़रूरत होगी.
बहरहाल मीडिया करे ना करे , हम एक बहादुर इंसान का अपने देश में स्वागत करते हैं.

रावण वध



भारतीय हाकी के विजयादशमी पर्व की आप सबको हार्दिक बधाई !!!


रावण वध


भारतीय हाकी के विजयादशमी पर्व की आप सभी भडासियों को मेरी ओर से बधाई !!!


रावण वध



भारतीय हाकी की विजयादशमी के पर्व की आप सभी को केव्स परिवार की ओर से बधाई !



भारतीय ओलंपिक संघ के लिए बस यही देर आए पर दुरुस्त आए ....... या फिर देर लगी आने में तुमको, शुक्र है फिर भी आए तो !!

आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

धूप की हथेली पर खुशबुओं के डेरे हैं
तितलियों के पंखों पर जागते सवेरे हैं
नर्म-नर्म लमहों की रेशमी-सी टहनी पर
गीत के परिंदों के खुशनुमा बसेरे हैं
फिर मचलती लहरों पर नाचती-सी किरणों ने
आज बूंद के घुंघरू दूर तक बिखेरे हैं
सच के झीने आंचल में झूठ यूं छिपा जैसे
रोशनी के झुरमुट में सांवले अंधेरे हैं
डूब के स्याही में जो लफ्ज-लफ्ज बनते हैं
मेरी गजलों में अब उन आंसुओं के पहरे हैं
उजले मन के चंदन का सर्प क्या बिगाड़ेंगे
आप भी तो ऐ नीरव मनचले सपेरे हैं।

पं. सुरेश नीरव
मो.९८१०२४३९६६

एक और महा(?)त्मा गांधी की गंध......

एक और महात्मा गांधी सुन कर ही हो सकता है कि भड़ासियों की हवा तंग हो गयी होगी कि एक क्या कम थे जो फिर दुबारा अवतार ले लिये हजरत। अब नोट के ऊपर दोनो का फोटो एक साथ लगाना पड़ेगा। वरना नए महात्मा गांधी RTI का अहिंसक तरीके से इस्तेमाल कर करके सरकार की पिछाड़ी में कुंआ खोद देंगे हो सकता है कि ट्यूबवेल बना दें। ये नए महात्मा गांधी कोई और नहीं आम आदमी के हितों के लिये सूचना प्राप्ति के अधिकार की पिपिहरी बजाने वाले शैलेश गांधी हैं। हर बड़े आदमी को छोटे से बड़ा होने के लिये एक सीढ़ी की चाहिये होती है अगर वो राहुल गांधी की तरह से पैदाइशी बड़ा नहीं है तो और हमारे देश में ये सीढ़ी इनमें से कोई भी हो सकती है जिसे जो मिल जाए जैसे कि -- दलित, अल्पसंख्यक, महिला..... आदि ..आदि...इत्यादि...इत्यादि...। इसी तरह से हमारे नए गांधी ने अण्णा हजारे जी की बनाई सीढ़ी को झपट लिया कि बुढ़ऊ तो आजकल में निकल ही लेंगे लेकिन अगर कहीं इतनी बड़ी सीढ़ी को किसी दूसरे ने झपट लिया तो गजब हो जाएगा। आनन-फानन में NGO बनाया गया, स्वर्णिम वाक्य(यदि मेरा देश महान नहीं है तो इसके लिये मैं जिम्मेदार हूं) की रचना करी गयी, वेबसाइट बनाई गयी और तुरंत लोगों को ईमेल्स-फीमेल्स के द्वारा बताया गया कि हम कितना महान काम कर रहे हैं देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को दुरुस्तगी के मार्ग पर ला रहे हैं और सन २०१० तक ऐसा हो जाने का आश्वासन भी दे डाला। अब जब नाम हो गया तो आम आदमी से ऐसे दूर हो गए जैसे कि सेरिडान की गोली से सिरदर्द..... क्योंकि अगर दूर नहीं होएगें तो अण्णा हजारे जी की तरह ’राळेगणसिद्धी’ नामक छोटी सी जगह पर गंदे-संदे,मैले-कुचैले लोगों की समस्याएं सुनते ही उम्र बीत जाती। इसी लिये इन्होंने अभी से नेताओं के गुर सीख लिये हैं इनकी वेबसाइट पर दिये फोन लगते नहीं हैं चाहे मोबाइल हो या घर का नंबर। अगर आपने भूत-प्रेत सिद्ध कर रखा है जो आपको इनका नया वास्तविक मोबाइल नंबर आपको बता दे तो पहली बार तो गलती से आपको काम का आदमी समझ कर मोबाइल पर पांच सेकंड बात कर ली जाती है और समझ में आते ही कि आप तो आम आदमी हैं फोन काट दिया जाता है फिर चाहे आप एक करोड़ बार फोन करें जनाब फोन नहीं उठाते। भाई लोग ये भारत है यहां जो एक बार फलों तक पहुंच जाता है वो पेड़ की जड़ों से ऐसा ही व्यवहार करता है। नए महात्मा गांधी जब आने वाल समय में मंत्री-जंत्री बन जाएंगे तब हो सकता है कि जनता दरबार में हमारी बात सुन लें। तब तक के लिये.........
जय जय भड़ास

29.4.08

आम आदमी

किसी के लिए बिछ जाते है,
झुककर धनुष बन जाते हैं।
झूठ मक्कारी का सहारा भी लेते हैं।
इन सब के बदले में कुछ सुविधाऐं लेते हैं।
पर जब कोई हमारे सामने झुककर।
जिंदगी की भीख मांगता है।
गिड़गिड़ता है, पैर पर जाता है।
सुविधायें नहीं जिंदगी मांगता है।
तब नियम-कानून की आड़ लेकर
कैसे उसके सामने अकड़ जाते हैं।
कौन है जो यह सब करता है।
किससे बताये सभी तो यही करते हैं
किस नाम से पुकारोगे इसे
हर पल भेष बदलता है।
कभी डाक्टर तो कभी मास्टर बन जाता है।
कभी वकील तो कभी पत्रकार बन जाता है।
कभी अधिकारी के भेष मे दिख जाता है।
तो कभी चपरासी भी बन जाता है।
इनके सामने धनुष रुप में जो खड़ा नजर आता है।
वह आम आदमी कहलाता है।

आप सबके लिए विटामिन की कुछ गोलियाँ...

सभी स्नेहिल मित्रों को प्यार भरा नमस्कार...अपना भाई कुछ आह़त है, हमेशा हो जाता है..मेरा निजी ख़याल है वोः बेहद संवेदना रखने वाला आदमी है...अपने कई मित्र आह़त होते हैं...खुश होते हैं..बदलते दौर से निराश भी...होना भी चाहिए...मुझे ऐसे में कुछ पंक्तियाँ बेहद राहत देती हैं...मेरे कई अपनों को भी राहत देंगी.... तोः लीजिये पेश-ए-नज़र है....
किरण की इकाई पर
तिमिर की दहाइयां
शगुनो पर फैली हैं काली परछाइयां
शक्ति कहीं गिरवी है भक्ति कहीं गिरवी है
सौदा ईमानो का श्रद्धा सम्मानों का
शंख भी शशंकित हैं सहमी हैं पुरवाइयां.....
तोः इस दौर में जब एक चेहरे के भीतर ना जाने कितने चेहरे हैं...जब अपने आसपास शंका का माहौल बना है...कौन बुरा और कौन अच्छा है...पहचानना बेहद मुश्किल है तोः ऐसे में येः पंक्तियाँ मेरे ख़याल से बड़ी मौजूं लगती हैं....है कि नई......और हाँ येः मेरी नही हैं पता नही किस भलेमानुष की हैं...बाकी व्यस्त रहिये मस्त रहिये.....और अपना भाई है यशवंत सिंह.....वही किसी की कारगुजारियों से थोड़ा आह़त लग रहा था...तोः सोचा मौका सही है....कुछ लिख डालने का...
हृदयेंद्र

कम्युनिटी ब्लाग के माडरेटरों की कुछ करतूतों का खुलासा

विस्फोट ब्लाग http://visfot.blogspot.com से साभार
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29 Apr, 2008
कम्युनिटी ब्लाग के माडरेटरों की कुछ करतूतों का खुलासा

अब तो विस्फोटक भड़ासी बन गया मैं....!!!

संजय जी को शुक्रिया, जो इस लायक समझा कि मुझे विस्फोट का सदस्य बनाया जा सके। पहले तो विस्फोट को कम्युनिटी ब्लाग बनाने का फैसला लेने के लिए संजय तिवारी जी को मैं दिल से धन्यवाद दूंगा क्योंकि दरअसल अकेले अकेले लिख लेना खुश हो लेना बहुत अच्छी बात है लेकिन अपने जैसे लिखने सोचने वालों को जोड़ने उससे भी अच्छी बात होती है। साथ ही, जब तक विचारों की एका के आधार पर खड़ा कोई परिवार या कुनबा जैसा न हो तो अकेले जीने लिखने में मजा कम ही आता है। पर अकेले लिखने पढ़ने पढ़ाने में आसानी ये रहती है कि आपको कोई असुविधा नहीं होती। जब चाहे लिखिए, जब चाहे न लिखिए। आप मर्जी के मालिक हैं।

बहुत कठिन है डगर पनघट की....
जब आप कम्युनिटी ब्लाग बनाते हैं तो आपके ब्लाग पर आपका सदस्य भी लिख सकता है और पता नहीं वह क्या क्या लिख सकता है। ऐसे में एक आसन्न सा खतरा हमेशा दिखता रहता है। यहीं वो पहली चीज शुरू होती है जिसे विश्वास कहते हैं। हो सकता है बतौर व्यक्ति, आप अपने कम्युनिटी ब्लाग के सदस्य के विचार से असहमत हों लेकिन उसे आप अपने ब्लाग से इसलिए नहीं हटा सकते क्योंकि आप असहमत हैं। आप को विरोधों की एकता के दर्शन को भी आजमाना पड़ सकता है। कहे का मतलब ये कि कम्युनिटी ब्लागिंग उस परिवार जैसा है जिसके कुछ परिजन बिगड़ैल भी हो सकते है लेकिन उसे आप उसकी गलतियों के लिए घर निकाला नहीं दे सकते, हां, कान वान जरूर उमेठ सकते हैं। तो कम्युनिटी ब्लागिंग को करना व संभालना थोड़ा मुश्किल काम तो है ही। पर अपने संजय जी तो मुश्किलों के मुश्किल को आसान करना जानते हैं सो मेरा उन पर एक सौ दस फीसदी यकीन है कि वो कम्युनिटी ब्लागिंग के परिवार के सदस्यों को संभाल संकने में सक्षम होंगे।

ऐसे-ऐसे, कैसे-कैसे कम्युनिटी ब्लागों के माडरेटर....
भड़ास को कम्युनिटी ब्लाग के रूप में चलाने के दौरान मुझे भी कई चीजें झेलनी पड़ी हैं और आज कल भी झेलता रहता हूं। जैसे अभी अभी के दिनों में एक महान ब्लागर ने अपने महान ब्लाग पर फिर भड़ास को उंगली की है। पता नहीं अपना वो भाई अपनी बुरी आदतों से बाज क्यों नहीं आता। मजेदार तो ये है कि उसने तथ्य भी गलत सलत दे रखे हैं। मसलन गीत चतुर्वेदी से जुड़े मसले की मूल पोस्ट को डिलीट कर दिया गया है...जबकि तथ्य ये है कि उसे कतई डिलीट नहीं किया गया है, उसे बस गीत चतुर्वेदी के अनुरोध पर संपादित किया गया है हालांकि पोस्ट का जो लेखक है आज भी अपने कहे पर कायम है और उसके आगे की पोस्ट लिखने को तैयार है पर गीत भाई के अनुरोध पर इस पूरे मामले को बिना बखेड़ा बनाए खत्म कर दिया गया। लेकिन इस मामले को वो महान ब्लागर फिर जिंदा कर एक तीर से दो काम करना चाहता है, एक तो भड़ास को टारगेट करना, दूसरा ढेर सारे लोगों से सहानुभूति हासिल करना व गीत के मसले को गड़े मुर्दे से फिर उखड़वाकर उन्हें बदनाम करना.....। सबसे आपत्तिजनक बात तो ये है कि गीत वाले मसले को कानक्लुड करते हुए जो पोस्ट भड़ास में लिखी गई थी उस पोस्ट तक को उस महान ब्लागर ने नहीं पढ़ा और न इस बारे में लिखते हुए मुझसे मेरा पक्ष जानने की कोशिश की।

भई, अगर किसी को उंगली करो तो कायदे से करो, ये क्या मतलब कि बस छुवाया और चलते बने। जैसे गांवों में कुछ लंठ टाइप के लोग सांड़ों को छेड़ कर दांत चियारने लगते हैं, किसी कुंठित निरीह की तरह।

तो ये सब दिक्कतें कम्युनिटी ब्लागिंग में आती हैं। लिखा किसी ने, विरोध किया किसी ने, बीच बचाव किया आपने पर आपके विरोधी आपको माफ नहीं करेंगे और सब कुछ गलत करने का आरोप आपके सिर मढ़ देंगे।

भड़ास के बाद विस्फोट ऐसा दूसरा कम्युनिटी ब्लाग है जिसका मैं सदस्य बना हूं। इसके पहले कुछ दिनों के लिए नीलिमा-सुजाता एंड प्राइवेट लिमिटेड कंपनी के महिलाओं के कथित सामूहिक ब्लाग चोखेरबाली का सदस्य मुझे निमंत्रण देकर बनाया गया। वहां केवल दो पोस्टें लिखीं और उस पर इतना विवाद हुआ कि इन बहनों ने कुछ भाई साहब लोगों के निर्देश पर धक्के देकर मुझे बाहर कर दिया। दरअसल, चोखेरबाली ब्लाग की जो माडरेटर हैं वो कम्युनिटी ब्लाग चलाने लायक ही नहीं हैं क्योंकि उन्हें अभी बेसिक तमीज नहीं है। तभी तो आज ही भड़ास पर एक पोस्ट में भड़ास की सदस्या कमला भंडारी ने लिखा है कि किस तरह उनकी पोस्टों को एक ब्लाग के माडरेटर ने डिलीट कर दिया और एक से ज्यादा पोस्ट डालने के आरोप में सदस्यता भी खत्म कर दी।

कमला के साथ जो हुआ, वो मेरे साथ भी हुआ। दोनों में एक बात साझा है, दोनों को ही हटाने के पहले अपनी बात रखने का कोई मौका नहीं दिया गया। वैसे तो ये बहने लोकतंत्र और आजादी के नाम पर इस कदर हल्ला करेंगी कि आपके कान का परदा फट जाएगा पर जब उनके खुद के कम्युनिटी ब्लाग की आजादी व लोकतंत्र का मामला आता है तो वे खुद को औरत और अभी सीखने की प्रक्रिया में होने की बात कहकर बचाव करने लगती है। ये शर्मनाक है।

उम्मीद करता हूं संजय जी मुझे चोखेरबालियों की तरह बिना बताये धक्के मारकर विस्फोट से नहीं निकालेंगे :)

और हां, चोखेरबालियों की हरकतों के बारे में एक चीज तो बताना भूल ही गया। वहां जब मैं सदस्य बना था तो मुझे निर्देश दिया गया था कि आप लिखकर डायरेक्ट पोस्टिंग नहीं कर सकते। आप लिखें और पोस्ट को चोखेरबाली ब्लाग के ड्राफ्ट में सेव करने के बाद सुजाता जी को मेल कर दें, वो आएंगी, देखेंगी और न्याय करने के बाद प्रकाशित करेंगी। मैंने खुद को महिलाओं के स्वराज के बीच फंसे होने की बात सोचकर उनका कहा मान लिया और उनके कहे मुताबिक मैंने पोस्टें लिखने के बाद सेव करीं, सुजाता ने पढ़ने के बाद उसे पोस्ट किया पर जब उस पर बवाल हो गया तो सुजाता को भी पसीने आने लगे और क्या करें क्या करें सोचते सोचते मेरी मेंबरशिप ही डिलीट कर दी। न रहेगा बांस न बाजेगी बांसुरी....।

ये शर्मनाक है कि कहने को कम्युनिटी ब्लाग चला रहे हैं लेकिन वहां मायावतियों जैसा राज है, कि खुद तो सिंहासन पर विराजेंगी, चेले चापड़ नीचे दरी पर लोटें, ये निर्देश रहेगा.....। काहे का लोकतंत्र है ये....और ऐसी ब्लागर महिलाएं किस तरह महिलाओं की लड़ाई लड़ सकेंगी....। उनके दिमाग में महिला उत्थान के मुद्दे कम, राजनीति ज्यादा है।

सवाल सिर्फ चोखेरबाली का नहीं है। कई और ऐसे बड़े कम्युनिटी ब्लाग है जहां कहने को तो वो कम्युनिटी ब्लाग है पर ब्लाग एग्रीगेटरों पर उस ब्लाग की पोस्ट आने पर बजाय ब्लाग का लोगो आने के, उस कम्युनिटी ब्लाग के मालिक माडरेटर की तस्वीर आती है। बेहद चिंतनशील मुद्रा में। अरे भाया, आपके अंदर की तानाशाही व काले दिल-दिमाग का इससे बड़ा नमूना और क्या होगा कि आप खुद को ही हर जगह छाया हुआ देखना चाहते हैं, किसी राजा की तरह, बाकी लोग तो गाजर घास मूली हैं.....।

संजय जी से मैं अनुरोध करूंगा कि वो अपने सदस्यों के सीधे लिखने की सुविधा दें, उससे संजय जी को थोड़ी असुविधा हो सकती है पर कम्युनिटी ब्लाग चलाना कोई आराम का खेल तो है नहीं, सो इतना तो आपको झेलना ही पड़ेगा। और मैं ये पोस्ट भी बिना संजय जी से पूछे, डायरेक्ट लिखकर पोस्ट कर रहा हूं, यही इस बात का सबूत है कि यहां विस्फोट पर रीयल आजादी है, फर्जी नहीं, दिखावे का नहीं।

कम्युनिटी ब्लाग होने के फायदे भी हैं। सबसे बड़ा फायदा यही है कि आपको कोई एग्रीगेटर दिखाए या नहीं दिखाए, आपको चाहने वाले लोग खुद ब खुद आपके ब्लाग का यूआरएल टाइप कर आपके पास आते रहते हैं। भड़ास ताजा मामला है। ब्लागवाणी के गुप्ता बंधु ने जाने किन इशारों पर भड़ास को अपने एग्रीगेटर से हटा दिया (कहने को वो इसे आर रेटेड में रखने की बात कहते हैं पर वहां जाकर देखने पर पता चलता है कि वहां से कोई भी पाठक भड़ास पर नहीं गया) बावजूद इसके, भड़ास की रोजाना की हिट्स बजाय घटने के बढ़ गई और इस समय के कम्युनिटी ब्लागों में सबसे ज्यादा हिट्स व सदस्य संख्या वाला ब्लाग भड़ास बना हुआ है। तो ये फायदा होता है कम्युनिटी ब्लागिंग का।

खैर, विस्फोट पर मैंने अपनी पहली पोस्ट में कम्युनिटी ब्लागिंग पर ज्यादा चर्चा की और विस्फोट को लेकर कम। लेकिन इसके पीछे जो मकसद था वो यही था कि विस्फोट के कम्युनिटी ब्लाग बनने से इस ब्लाग के लक्ष्य को पूरा करने में फायदा मिलेगा और समान विचारों के लोग इस तेवरदार ब्लाग पर इकट्ठा होकर ढेर सारे मुद्दों पर अपने अपने विचार प्रकट कर सकते हैं। साथ ही जो बातें कम्युनिटी ब्लागिंग को लेकर मैंने बताई हैं, जो मेरे अनुभवों की खेती से पैदा हुई हैं, उसके आधार पर संजय जी को इस कम्युनिटी ब्लाग को आगे बढ़ने में मदद मिलेगी, ऐसा मैं उम्मीद करता हूं।

फिलहाल इतना ही...

जय हिंद, जय भड़ास, जय विस्फोट.....
यशवंत सिंह

Posted by यशवंत सिंह yashwant singh at 4:18 PM

2 comments:
संजय तिवारी said...
यशवंत भाई, क्या एडिट करूं इसमें? आपका बड़्प्पन है जो एडिट करने की छूट दे रहे हैं.

29 April, 2008 5:28 PM
यशवंत सिंह yashwant singh said...
कुछ एक ब्लाग एग्रीगेटर्स पर इस विस्फोट कम्युनिटी ब्लाग के सिंबल के रूप में आपकी तस्वीर जा रही है, मेरे खयाल से यह अब सही नहीं है। पहले सही था, जब तक यह ब्लाग आपका पर्सनल था, लेकिन अगर आपने इसे कम्युनिटी ब्लाग का शेप दे दिया है तो आप इस ब्लाग के नाम को ही या फिर किसी विजुवल को लोगों के रूप में इस्तेमाल करने की सलाह या निर्देश ब्लाग एग्रीगेटरों को दें। ये मेरी सलाह है।

एडिट करने का पूरा अधिकार ब्लाग के मुख्य माडरेटर को होता है। अगर तथ्य एडिट करने लायक न हों तो कम से कम भाषाई त्रुटियों को तो ठीक कर दीजिए.....:) चाहें तो ब्लागों के जो नाम दिए हैं उसमें लिंक विंक डाल दीजिए....ये सब अच्छे ब्लाग माडरेटर संपादक के काम होते हैं।

मैं तो ठहरा बुरे ब्लाग भड़ास का माडरेटर तो मैं कभी किसी की पोस्ट एडिट करने के झंझट में पड़ता ही नहीं क्योंकि जब घोषित तौर पर हम लोग बुरे हैं तो फिर अच्छे बनने का नाटक क्यों करें :)

29 April, 2008 5:38 PM
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विस्फोट ब्लाग http://visfot.blogspot.com से साभार

गाँधी के चार बन्दर

तू तो मर कर स्वर्ग गया बापू
अपने बंदरों को क्यों छोड़ गया
प्यारे वतन से तू अपने
इतनी जल्दी क्यों मुँह मोड़ गया।


तेरा एक बंदर इन दिनों
विधायिका के नाम से जाना जाता है
मक्कारों की टोली में यह
सबसे मक्कार माना जाता है।


नैतिकता को तलाक दे इसने
नीचता से संबंध जोड़ लिया है
तेरे सारे आदर्शों से इसने
कब का अपना मुँह मोड़ लिया है ।


पेट इसका है बहुत बड़ा बापू
कुछ भी यह खा सकता है
चारा कफ़न ताबूत की कौन कहे
तेरे भारत को भी चबा सकता है ।


ये तेरा वह बंदर है जिसने
अपने कान कर रखे हैं बंद
अपने वतन से है इसका
सिर्फ स्वार्थ का संबंध ।


यह गरीबों की गुहार नहीं सुनता है
यह भूखों की पुकार नहीं सुनता है
इसे सिर्फ सत्ता का गीत सुनाई देता है
जनता के रुदन में भी इसे
वोट का संगीत सुनाई देता है ।


तेरा दूसरा बंदर बापू
कार्यपालिका कहलाता है
फाईलों के गोरखधंधे से यह
तबियत अपनी बहलाता है ।


पेट इसका भी बापू
नही है कम बड़ा
भ्रष्टाचार की बैशाखी पर है
तेरा यह बंदर खड़ा ।


विधायिका से इसकी बड़ी बनती है
कभीकभार ही ठनती है
अक्सर खूब छनती है
ये तेरा वो बंदर है
जिसका मुँह तो बंद है पर
विधायिका से जिसका अवैध संबंध है ।


यह बोलता कुछ नहीं है
अपना काम किये जाता है
दोनों हाथों से बस
माल लिए जाता है ।


जुबां पर तो इसके
ताले बंद है बापू
पर अंदर जाने कितने
घोटाले बंद है बापू ।


आ तुझे अब तीसरे
बंदर की हालत दिखता हूँ
तेरे दो बंदरों के हाथों हो रही
इसकी जलालत दिखाता हूँ ।


तेरा यह बंदर न्याय की डोर थामे है
सबसे बडे प्रजातंत्र की
यह बागडोर थामे है
आजकल शासन कमोबेश
यही चला रहा है
विधायिका और कार्यपालिका के जमीर को
लगातार हिला रहा है
पर तेरे दोंनों बंदर इसे
प्रायः अंगूठा दिखा जाते हैं
इसकी कमजोर नस को जानते हैं
इसलिए अक्सर धता बता जाते हैं ।


तेरा यह बंदर लाचार है बापू
क्योंकि इसके आंखों पर
पट्टी बंधी है
गवाह सबूतों की बड़ी
मोटी चट्टी बंधी है ।


भ्रष्टाचार की बीमारी से
यह भी नहीं अछूता है
पर हराम की कमाई को
कोई कोई ही छूता है ।


और हाँ बापू एक इजाफा हुआ है
तेरे बंदरों की टोली में
मीडिया कहते है इसे
यहाँ की बोली में


प्रजातंत्र का यह
चौथा स्तंभ है
खुद के शक्तिशाली होने का
इसे बड़ा दंभ है।


इसका तो आँख कान मुँह
सब खुला है
यह भी देश को
चौपट करने पर ही तुला है।


कहने को तो ये
प्रजातंत्र का प्रहरी है
पर असल में इसकी साजिश
सबसे गहरी है।


यह नायक को विलेन
विलेन को नायक बनाता है
सब की खाता है पर
किसी किसी के काम ही आता है।


आतंकियों देशद्रोहियों का
सबसे बड़ा प्रचारक है
पर कहता अपने आपको
समाज सुधारक है।


इन्ही चार बंदरों पर टिका है बापू
प्रजातंत्र तेरे वतन का
क्या इनसे ही तू आशा करता है
सुख चैन और अमन का।
वरुण राय

लोकसभा की बत्ती गुल!!

कल लोकसभा की बत्ती बुझ गयी, वो भी बुझाइ गयी स्पीकर साहब द्वारा अब इन स्पीकर सोमनाथजी को कोई बताये कि बत्ती बुझाने से बच्चे तो डर सकते हैं, हमारे माननीय सांसद नहीं.

वैसे क्या आपको लगता है, कि प्रधानमंत्री को विपक्ष के सवालों का जवाब देने कि बजाय ऐसी बच्कानी हरकतो से विपक्ष चुप हो जायेगा?

और क्या शोर मचाने वाले सांसदो को चियरलीडर की उपाधी देना उनका मजाक उडाना नहीं है? चाहे चियरलीडर मसले पर आपका पक्ष कोई भी हो लेकिन एक मुद्दा उठाने वाले का उसी मुद्दे को लेकर चिडाना, लोकसभा के सभापती को तो शोभा नहीं देता है,

अगर आपको लगता है कि आप संसद को नहि चला पा रहे तो किसी और को ये जिम्मेदारी दीजिये लेकिन कम से कम सांसदो का और संसद का इस प्रकार मजाक मत बनाइये।

इस तरह का धोका क्यों ?

अभी कुछ ही दिन पहले मै एक दुश्रे ब्लॉग के जुड़ी । सच कहू तो ब्लॉग लिखने की प्रेरणा का एक मुख्य कारण वह ब्लॉग भी था । पहले दिन मैंने उसपर एक पोस्ट की । उसके कुछ घंटो बाद दुश्री पोस्ट की पर देखा की कुछ समय बाद एक गायब हो गई । मेने सोचा एर्रोर प्रॉब्लम है । उसके अगले दिन मेने एक के बाद एक तीन पोस्ट की । पर कुछ समय बाद दो पोस्ट गायब हो गई । फिर मेने सोचा की शायद अच्छी न लगी हो इसलिए किसी ने गायब कर दी।
अगले दिन जब मेने अपनी पोस्ट को देखा जो उष ब्लॉग पर थी । उसमे चार - पाँच कमेंट मिले थे। उष पोस्ट का नाम था बलात्कार । जो आपलोग इस ब्लॉग मै भी पढ़ चुके होंगे। किसी ने लिखा था साधारण कविता है । किसी ने लिखा कमला भंडारी कौन है भड़ास पर भी है तो किसी ने लिखा की एक शालीन स्त्री इस शब्द का बार -बार प्रयौग कैसे कर सकती है। कितनी अजीब सी बात है सब कमेंट पुरुषो के थे । मैं पूछती हूँ की स्त्री की सालीनता तब क्यों नही देखी जाती जब मर्द जात उनपर अपनी घंदी नजर डालते है , उसे छेड़ते है । या उनका बलात्कार करते है ? क्या केवल इस शब्द का लिखने मै प्रयोग कर देने भर से स्त्री की शालीनता चली जाती है। फिर तो इसका सीधा अर्थ यही है की कोई भी स्त्री शालीन नही है क्युकी कभी न कभी तो हर स्त्री इस शब्द को अपनी जुबान पर लाती ही है । कभी अपनों के लिए कभी दुश्रो के लिए ।
इतना ही नही जब मेने उनका जवाब लिखकर पोस्ट की तो पेज एर्रोर आ गई । फिर मेने दुबारा कमेंट लिखना चाहा तो अबकी बार मेरा वह पोस्ट भी गायब था। समझ नही आ रहा था की ये सब क्या हो रहा है । उसके कुछ देर बाद मैंने अपनी मेल चेक की . उसी ब्लॉग के तीन मेल आए थे . तीनो मै लिखा था की आपने एक साथ कई पोस्ट की है जिश कारण आपकी सदश्ता रद्द की जा रही है । आपको पहले भी दो बार मेल किया जा चुका है पर आपने ध्यान नही दिया । तीनो एक ही तारिक के थे . तो पहले कब ? उस दिन मै अपने मेल देख चुकी थी तब उस ब्लॉग का कोई मेल नही था । तो क्या मै बार - बार अपनी मेल ही चेचक करती राहू ? बहुत दुःख हुआ मुझे और मैंने उस ब्लॉग को मेल भेजा की मुझे मालुम नही था की एक दिन मै एक ही पोस्ट भेजनी है । अथ मुझे एक मौका और दिया जाए । पर आज तक वहा से कोई जवाब नही आया। कितनी अजीब सी बात है की जहा ये ब्लॉग अपने को स्त्री का ब्लॉग कहता है ।वही एक स्त्री जो इशे अपना समजकर इश्से जुड़ना चाह रही है उसके साथ इस तरह का सलूक करता है ।आख़िर गलती क्या है मेरी ? अगर इनके ब्लॉग के कुछ नियम है तो क्यों नही किया है इन्होने उनका जिक्र अपने ब्लॉग मैं ? फिर क्यों है ये दिखावा की ये स्त्री का ब्लॉग है स्त्री के लिए। जबकि किसी स्त्री की आवाज उठने से पहले ही उसे दबा दिया गया।
केवल इश्लिये की स्त्री को समाज मै निर्बल , कमजोर समझा जाता है , उसका स्थान पुरुषो से कम समझा जाता है इसलिए उसके दुख्रो पर लिखकर उनका ब्लॉग बताकर वाह - वाहिया बटोरी जाए । चर्चा पाई जाए ?मैंने ये पोस्ट किसी की बुरे करने के लिए नही लिखी और ना ही किसी को दुःख पहुँचने के लिए ही लिखी है , लिखी है तो बस इसलिए की आइन्दा किसी और के साथ एषा न हो ।

28.4.08

नौकरी अखबार की, बनिया-बक्काल की, जय कन्हैया लाल की...

--जेपी नारायण--

वह आज भी अपने शब्दों से सबको गाजर-मूली की तरह काट रहा है। उसी की डायरी से चुराए गए कुछ पन्ने आज यहां आप भी पढ़ लीजिए। जान जाएंगे कि हालात किस कदर संगीन हैं। भीतर कितनी बेचैनी और गुस्सा है। कैसे एक-एक जबड़े में बीस-बीस अंगुलियां घुसी हुई हैं। ....और उनके बीच से रिस-रिस कर बाहर आ रही है कविताओं के सुर में गालियों की चिंगारी....

1....
ढाई बजे रात को

खाता हूं पीता हूं ढाई बजे रात को।
जो जीवन जीता हूं ढाई बजे रात को।
परवरिश घर-परिवार की,
नौकरी अखबार की,
बनिया-बक्काल की,
सत्ता के दलाल दमड़ीलाल की,
धूर्त, चापलूस, चुगलखोर हैं संघाती,
घाती-प्रतिघाती,
उनके ऊपर बैठे हिटलर के नाती,
नौकरी जाये किसी की तो मुस्कराते हैं,
ठहाके लगाते हैं, तालियां बजाते हैं,
मालिक की खाते हैं,
मालिक की गाते हैं,
मालिक को देखते ही
खूब दुम हिलाते हैं,
बड़े-बड़े पत्रकार,
हू-ब-हू रंगे सियार,
इन्हीं के बीच कटी जा रही जिंदगी,
सरसों-सी छिंटी-बंटी जा रही जिंदगी,
अपनी गरीबी और मैं,
चार बच्चे, बीवी और मैं,
महंगी में कैसे जीऊं,
वही पैबंदी कैसे सीऊं,
रोज-रोज सीता हूं ढाई बजे रात को।
खाता हूं, पीता हूं ढाई बजे रात को।
बैठा है कमीशन तनख्वाह बढ़ाएगा,
सात साल हो गए
लगता है फिर मालिक पट्टी पढ़ा़एगा,
दो सौ किलो मीटर प्रतिघंटा महंगाई की चाल,
जेब ठनठन गोपाल।
मकान का किराया
और दुकान की उधारी,
रूखी-सूखी सब्जी
और रोटी की मारामारी,
साल भर से एक किलो दूध का तकादा,
इसी में फट गया कुर्ता हरामजादा,
दिमाग में गोबर, आंख में रोशनाई
फूटी कौड़ी नहीं, आज सब्जी कैसे आई,
सोचता सुभीता हूं, ढाई बजे रात को।
खाता हूं, पीता हूं, ढाई बजे रात को।


----

2.....
सुनो कालीचरन!

पत्रकारिता तो अब
जूते की नोक पर होगी कालीचरन!
क्योंकि मिशन गया तेल लेने
और कलम गयी गदहिया की गां.... में।
आगया तो आ ही गया
कंप्यूटर,
उसी पर रात-दिन छींको-पादो,
आंख फोड़ो
हाथ जोड़ो
चार पैसा कमाओ,
घर जाओ,
बाल-बच्चों का पेट पालो।
वरना ....की....चू.....
पत्रकारिता का भूत
कहीं का नहीं रहने देगा तुम्हें,
रोओगे-रिरिआओगे,
एक अदद अंडरवियर के लिए
रिक्शे के पायदान पर
हांफते नजर आओगे,
कहां धरी है नौकरी
नहीं करना तो क्यों करी?
करना है तो कर,
जूते की नोक पर,
संभाल अपना पेट, अपना घर।
कुंए में भांग पड़ी है
विदेशी पूंजी सामने खड़ी है।
वो देख,
उधर ब...न के लं...वी-सेट
आ गया इंटरनेट
गेटअप, मेकअप अप-टू-डेट,
चकाचक्क, भकाभक्क,
विश्वसुंदरी पत्रकारिता के उन्नत ...तड़ों से
झड़तीं एक से एक गोबड़उला खबरें धक्कामार
सात समुंदर आरपार,
सर्रसर्र, फर्रफर्र शेयर बाजार,
कहीं चढ़ाव, कहीं उतार,
और पूंजी की रेलमपेल
देख-देख ....दरचो....
अखबारी खेल,
मिशन गया लेने तेल
खबर गयी कलम के भो...ड़े में
स्साला भाड़
फट गयी गां....
छींक-पाद,
हरामी की औलाद
पराड़कर का च.......ओ...द्दा।
पत्रकारिता होगी अब कलम की नोक पर.............


3......
अंडू वन-डे का फोरमैन

घूर-घूर कर मुस्कराता है
छापेखाने का फोरमैन,
सनसनीखेज खबरों से अंटे अखबार की तरह
लाल-लाल डोरोंवाली एक जोड़ी आंखें...
आंखों के बीच से झांकतीं
अधपकी मूंछों तक
निरंतर तनी नासिका
और पान की जर्दीली पीक से
पपड़ाये होठों पर बार-बार
चक्कर लगाता रक्ताभ-जिह्वाग्र....
घूरते हुए मुस्काना
मुस्काते हुए डांटना,
फिर डांट-डपट, गाली-गलौज
और हाथापाई पर उतर आना फोरमैन की
बेमियादी बीमारी है।
अखबार के दफ्तर में
इकत्तीस साल से डोल रहे हैं बूढ़ी मशीनों पर
उसके जवान हाथ
जिसकी जुबान खबरचियों की खबर लेने के
सारे गुर आजमा चुकी है।
अपनी इकत्तीस साल की दुनिया का
खबरदार पन्ना है बूढ़ा फोरमैन,
जिसके होशो-हवास पर तीन दशकों का
अखबारी अतीत दर्ज है।
संपादकों, संवाददाताओं, चपरासियों, आपरेटरों, मशीनमैनों की
भीड़ जुटने से, अखबारी सुबह होने तक
इस-उस से
अथ-इति होने तक
क्या कुछ नहीं कह डालता है
अंडू वन-डे का फोरमैन...

नौसिखिये संपादकों को नहीं मालूम
कि कैसे भागती हैं खबरें,
उन्हें पकड़ना होता है पाठकों की सुबह
और सेठ की तिजोरी
एक साथ!

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(साभार : http://behaya.blogspot.com)

मीडिया का कोई ईमान है कि नहीं?

जब से हरभजन-श्रीशन्त चांटा विवाद हुआ है, मीडिया, खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया हरभजन को विलन बनाने पर उतारू है. ये वही टीवी न्यूज़ चैनेल्स हैं जो साइमंड्स-हरभजन विवाद में साइमंड्स को विलेन और हरभजन को हीरो बताते नहीं थक रहे थे. तब इन्हें हरभजन में कोई बुराई नहीं दिख रही थी और आज उन्हें हरभजन में एक भी अच्छाई नहीं दिख रही है. उनके लिए उन्ही तीखे शब्दों का प्रयोग किया जा रहा है जो ऑस्ट्रेलिया विवाद के समय साइमंड्स और हेडेन आदि के लिए किए जा रहे थे. इनके पास रटे रटाये हैं संवाद हैं जिनमें सिर्फ़ नामों को परिवर्तित भर कर दिया जाता है. एक तरफा रिपोर्टिंग में न्यूज़ चैनलों का कोई जवाब नहीं है. कोई भी न्यूज़ चैनल मामले को निष्पक्ष रूप से देखने को तैयार नहीं है. हरभजन उग्र हैं पर श्रीशन्त भी क्या कम उग्र हैं उन्हें भी तो बेवजह नाक फुलाकर पंगा लेने की आदत है. हरभजन ने यदि थप्पड़ चलने जैसा अतिवादी कदम उठाया तो उन्हें उकसाने की प्रक्रिया कितनी तीखी रही होगी इसपर विचार करने के लिए कोई तैयार नहीं है. थप्पड़ मारना अगर आइपीअल के कानून में बड़ा अपराध है तो इसके लिए उकसाये जाने पर क्या कोई सज़ा नहीं है. कोई ये क्यों नहीं कह रहा है की गलती श्रीशांत की भी थी भले ही हरभजन ने अपना आपा खोकर बड़ी गलती की है. अगर गलती के लिए सज़ा है तो सज़ा दोनों कोई मिलनी चाहिए. सुनने में आया है कि हरभजन ने श्रीशंत को मैच से पहले ही उनकी इस आदत के ख़िलाफ़ चेतावनी दी थी परन्तु श्रीशंत बाज नही आए। एक कप्तान जो अपने तीनो मैच हार चुका हो उसे मैच हारने के बाद यदि आप उकसाने जायेंगे तो वह बन्दा अपना आपा तो खोयेगा ही. मैच के दौरान उकसाये जाने की प्रक्रिया को तो फ़िर भी एक हद तक जायज़ ठहराया जा सकता है, परन्तु मैच ख़त्म होने के बाद यदि आप विपक्षी कप्तान को जो की न सिर्फ़ आपका सीनियर है बल्कि देश के लिए आपके साथ कंधे से कन्धा मिला कर खेलता भी है उकसाने जायेंगे तो आप थप्पड़ के तो हक़दार हैं ही. और जो सबसे अहम् बात है वो ये कि जब श्रीशंत बात को तूल नहीं देना चाहते हैं ओर हरभजन को भी अपनी गलती का अहसास है तो फ़िर पंच की कहाँ जरूरत है । ओर उनकी टीम मैनेज्मेन्ट के लोग हरभजन पर बैन लगवा कर क्या हासिल करना चाह रहे हैं. यही कि देश एक बेहतरीन स्पिनर की सेवा से वंचित रह जाए. आप क्षेत्रीयता, छुद्र स्वार्थ और अहम् की वजह से अपने ही देश का नुकसान करना चाह रहे हैं और इसके दूरगामी प्रभाव की ओर
भी नहीं सोच रहे हैं कि भविष्य में यदि फ़िर कोई हेडेन या साइमंड्स हरभजन को माँ की गाली भी देता है तो क्या हरभजन इसका प्रतिवाद कर सकेंगे. क्या इसके बाद हरभजन एक मैच जिताऊ गेंदबाज बने रह सकेंगे? और मै अनुशासन की बात करने वाले अनुशासन के रहनुमाओं से पूछना
चाहता हूँ कि मैच देखने जा रहे छोटे छोटे बच्चों को अधनंगी लड़कियों का डांस दिखलाकर कौन सा अनुशासन का पाठ पढ़ा रहे हैं।
"औरों को देते हैं दर्से -बेदारी
जिनके अपने जमीर सोते हैं"
वरुण राय

27.4.08

आई पी एल - मनोरंजन या साजिश?

आख़िर वही हुआ जिसका डर मुझे तब से सता रहा था जबसे आई पी एल नाम का तमाशा शुरू हुआ था । मेरा शुरू से ही ये मानना रहा है कि आई पी एल का ढांचा तैयार ही किया गया है भारतीयों के बीच दरार पैदा करने के लिए । पहले भी भड़ास पर कई लोगों ने ऐसी आशंका जतायी है। हरभजन और श्रीशांत के बीच जो हुआ , वह इस आशंका का एक छोटा सा नमूना है। कुछ और नमूने भी लोगों ने देखे होंगे । द्रविड़ जैसे सम्मानित खिलाड़ी के चौके पर उनके घरेलू मैदान के आलावा कहीं ताली तक नहीं बजती है, सहवाग जैसे लोकप्रिय खिलाड़ी के तूफानी अर्धशतक पर स्टेडियम में सन्नाटा छाया रहता है, अनुरोध करने पर भी एक ताली तक नहीं बजती है । खेल इतना स्वार्थपरक तो कभी नहीं था। दरअसल ये स्वार्थपरता नहीं बल्कि क्षेत्रीयता का जहर है जो लोगों के दिलों में इतने गहरे उतार देने की साजिश है जिसमें एक देश एक लोग का जज्बा घुट कर दम तोड़ दे । मेरी बात अभी कुछ अजीब सी लग सकती है परन्तु इसपर गहरे सोचने की जरूरत है। अब, हरभजन-श्रीशांत का ही मामला लें । किसकी गलती है किसकी कितनी गलती है यह बहस का मुद्दा हो सकता है परन्तु घटना के बाद की प्रतिक्रियाएं सोचनीय हैं । केरला क्रिकेट संघ द्वारा हरभजन को सजा देने की मांग और मुंबई इंडिंयंस द्वारा हरभजन के सपोर्ट में खड़े होना कुछ अच्छा संकेत नहीं है। आई पी एल को डिजाईन ही इस तरह से किया गया है कि इससे क्षेत्रीयता को बढ़ावा मिले। लोग किस खिलाड़ी के लिए ताली बजा रहे हैं यह मुख्य नहीं है , वो सिर्फ़ अपने क्षेत्र के लिए ताली बजा रहे हैं , यह मुख्य भी है और चिंतनीय भी। एक राज ठाकरे काफी नहीं था जो आठ-आठ राज ठाकरे देश को बांटने के लिए कमर कसे खड़े हैं । और हम हैं कि अधनंगी लड़कियों को देख कर ताली बजाने में मशगूल हैं। क्योंकि हम विकसित हो रहे हैं ।

वरुण राय

पत्रकारिता तो गई गदहिया के उसमें ए रामू!

जेपी नारायण

पूंजी लूटने का इस समय सबसे मजबूत मोहरा मीडिया। बातें क्रमशः सौ (प्रतिदिन दस) काल्पनिक पात्रों के माध्यम से। पत्रकारों ही नहीं, पूरे सिस्टम के मन की गांठें खुद-ब-खुद खुलती जा रही हैं....कितने धूर्त और लंपट हैं मीडिया के भारतीय आकाश पर चमकते कुछ चांद-सितारे, एक-एक चेहरे पर कई-कई चेहरे चढ़ाये हुए, कर्मचारियों को हुरपेटते हुए और अपने हुजूरों के सामने दुम दुबकाए हुए, कैसे-कैसे खोखलेजी दर्शन और राजनीति के महामहोपाध्याय बने डोल रहे हैं, और अंदर खाने मचा हुआ है हाहाकार। हर अखबार या चैनल का हर तीसरा आदमी अपने हालात से उकताया हुआ कहीं और नौकरी पाने की जुगाड़ या ताक में। यानी भीतर-ही-भीतर पानी खदबदा रहा है।

1. विनोद मदहोशी जी देश के सबसे बड़े अखबार के सबसे बड़े संपादक हैं। अपनी लखटकिया नौकरी बरकरार रखने के लिए रोजमर्रा के अखबारी कुकर्म निपटाते हुए, हर किसी को हूल-पट्टी पढ़ाते हुए, अपने ऊपर वाले से रिरियाते, नीचे वाले से खिखियाते हुए, स्वदेशी से विदेशी पूंजी तक के गुणा-भाग लगाते हुए, सपने में भी एनसीआर-एनसीआर गुनगुनाते हुए हर हफ्ते अपने अखबार में चोंतभर बस्सैनी लीद फिर देते हैं। लफ्फाजी फिरना उनका पुराना शगल है। इसके बाद शुरू होता है दूसरे पायदान पर यानी दूसरे नंबर के मातहत का लाजवाब अल्हैती-गायन। वाह्ह-वाह्ह, वाह्ह-वाह्ह। आज तो आपने कलम तोड़कर रख दी। आपका लेख पढ़के अब तक सीएम-पीएम गश खा चुके होंगे। हीहीहीहीहीहीही....

2. मदहोशी जी होश-हुनर के पूरे हैं, पक्के पहाड़ी घूरे हैं। आज कल मैदानी क्षेत्रों में मैदान किए जा रहे हैं। उनके अखबार में नौकरी की पहली शर्त है पहाड़ी होना। आप पहाड़ के नहीं तो किसी काम के नहीं। उनकी लालटेन सिर्फ पहाड़ पर जलती है। मैदानी के नाम पर भुकभुकाने लगती है। मीडिया में ये खफ्तुलहवासी किस्म का क्षेत्रीयतावाद कहा जा सकता है। उनके इर्द-गिर्द पल रहे मैदानी भाई-बंधु मन-ही-मन कलपते रहते हैं, मसोसते रहते हैं कि काश हम भी होते पहाड़ के डब्लू-बब्लू ....। सालो से पहाड़ी दर्रे में बेमतलब दरकचा रहे हैं। न कोई इंक्रीमेंट, न प्रमोशन। ऐसे लोग धीरे-धीरे या तो इधर-उधर, अगल-बगल के ठिकानों की ओर लपक रहे हैं, खिसक रहे हैं या झक्क में शाम को तीन-चार पैग सूत कर पट्ट हो ले रहे हैं।

3. एक हैं मिहिर जी। देश के धक्काड़ जर्नलिस्ट। तीन दशक से दिल्ली के चुनिंदा मठाधीशों में एक। उनका एक अदद मकसद होता है सत्ता के चरणों में लार पौटाते रहना। लार पौटाते-पौटाते फूलकर गैंडा हो चुके हैं। सियासत और मीडिया के विविध आयामों के साथ इन दिनों करोड़ों में खेल रहे हैं। उनकी पत्रकारिता से भौचक्के कई और वनगैंडे ताल-में-ताल मिलाकर वैसा ही हो लेने के लिए सालो से बेकरार हैं, लेकिन किल्ली-कांटा बैठ नहीं रहा। सो, यदा-कदा मिहिर जी के साथ मय-मेहमानी के दौरान कसीदे पढ़ते रहते हैं, अभिभूत होते रहते हैं, देश-विदेश की राजनीति पर अपनी पंडिताई झाड़ते रहते हैं। इन अट्ठों-पट्ठों की नब्ज से पूरी तरह वाकिफ मिहिर जी उनकी बातों पर भंगेड़ी धृटराष्ट्र की तरह मंद-मंद मुस्काते रहते हैं। खुदा-न-खास्ता किसी पर मेहरबान हुए तो किसी विदेशी थैलीचोर से दो-चार करोड़ का सौदा कराते हुए कहते हैं, जाओ वत्स! अपने स्वामी के चरणों में लोट जाओ....!!

4. बकचोद जी किसी टाइम्स-फाइम्स के कलमगीर रहे हैं। देश के नामी सटायरबाज हैं। अपने और अपने संस्थान को छोड़ पूरी दुनिया पर अपनी कुंद-कलम के बंदूक चलाते फिरते रहे हैं। कहा जाता है कि उनके पीछे सीख-पढ़कर पास दो-तीन दर्जन कुख्यात पत्रकारों का गिरोह बटमारी करता रहता है। यूपी के माफियाओं के साथ उनकी अच्छी ऊठक-बैठकी है। उनके साथ तूतक-तूतक तूतिया करते-करते बकचोद जी खुद को ही एक समय में तो पत्रकारिता का सबसे बड़ा माफिया मानने लगे। अपनी इज्जत-बेइज्जत से बेफिक्र, मान-सम्मान से परे संतई मुद्रा में कुछ दिनों से इतने आभाहीन और पिनकी हो चुके हैं कि अपने अखबार समूह के पुरखों को भद्दी-भद्दी गालियां देते रहते हैं। कहते हैं...कितना-कुछ किया हरामखोरों के लिए, झुंड-के-झुंड पत्रकार कौड़ियों में टांग लाये, पन्ना-का-पन्ना विज्ञापनों के अंबार लगा दिए और आज मुझे ये दिन देखने पड़ रहे हैं। कभी सिर्फ विदेशों में पिकनिक किया करते थे, आजकल मोहल्ले वालों से पान मसाला के पैसे मांगने पड़ते हैं।

5. प्रणामी जी, अभी कुछ ही दिन हुए प्रधान संपादक पद से सेवा निवृत्त हुए हैं। सारा खून अपने अखबार को पिलाकर पूरा देह ठठरी भर बचा है। रिटायरमेंट के दो ही महीने में चेहरा आरके लक्ष्मणन का कार्टून हो चला है। पत्रकारिता पर किताबें लिखते रहे हैं। उनके पढ़े शिष्य कभी-कभार दिलासा देते रहते हैं कि अफसोस मत करो गुरू जी, अंत में सबकी यही गत होती है। आपको कंधा देने वालों की लाइन लग जाएगी। क्या खूब हेडिंग लगाते थे आप, क्या खूब संपादकीय लिखते थे। ...और आज आपका कोई नामलेवा नहीं। अगर आप अपने आखिरी दिनों में बौरा नहीं गए होते तो आज ये दिन नहीं देखने पड़ते। आपसे मिलने आना चाहता हूं, लेकिन आपकी कटखनी बीवी से बड़ा डर लगता है, अब तो वह और सठिया गई होगी।

6. बिरजू प्रधान मीडिया में लच्छू घराने से आये हैं। लच्छू घराना पत्रकारिता के लक्ष्योन्मुखी मिशन के लिए मशहूर रहा है। सबसे पहले पराड़कर जी ने इस घराने को दीक्षित किया था। आजकल इस घराने के ज्यादातर लोग कटहल छील रहे हैं। बिरजू प्रधान की कटहली-पत्रकारिता से अभिभूत एक भूतपूर्व सीएम ने उन्हें उनके घर पहुंचकर एक लाख की कट्टू उपाधि से नवाजा था। बिरजू प्रधान का मझला बेटा कुछ दिनो पहले ब्लू फिल्मो की सीडी सप्लाई करते हुए पकड़ा गया है।

7. मीडिया जगत में दिगंबर दादा के नाम से प्रसिद्ध दिग्गू जी रिटायर होने के बाद भी कर्मचारियों का खून पी रहे हैं। चंदन-टीका लगाकर ठीक दस बजे दफ्तर में आकर बैठ जाते हैं। दिन भर भीतर मालिक से तीया-पांचा भिड़ाते रहते हैं, बाहर संपादकीय कर्मियों में से किसी घर की बिजली ठीक कराने, किसी को मोहल्ले की सड़क पर डामर डलवाने, किसी को अपनी खटारा (जो कभी मालिक की थी ) की सर्विस कराने तो किसी को लादकर घर पहुंचाने का हुकुम सुनाते रहते हैं। सबसे ज्यादा आजिज तो दफ्तर का चपरासी रामभरोसे। भुनभुनाता रहता है....लगता है मुझे ही चार डंडा बजाकर इसे निपटाना पड़ेगा, नौकरी रहे चाहे जाय। साला बात-बात पर तू-तड़ाक करता है, दिन भर में पचास गिलास पानी पीता है, आधा थूकदान में गुड़गुड़ा देता है।

8. महासंपादक भुवनचंद्र आज कल इस बात से बहुत हैरान-परेशान हैं कि हर कर्मचारी उनके पीठ पीछे उन्हें गाली क्यों देता है? गाली भी कोई हल्की-फुल्की नहीं कि पीछे से डालकर आगे से निकाल लूंगा। क्यों? .....कि मालिक के चेंबर में बैठकर हम लोगों की चारपाई बुनता रहता है। अब बहुत हो गया। बुनो चारपाई, हम तो इकट्ठे खाट खड़ी करने वाले हैं। तब न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। बहुत हो गई नौकरी....पीछे से डालकर आगे से निकाल लूंगा। ...ऐं...सच्ची....ऐसा क्या? आखिर इतने गुस्से की कोई खास वजह? हां-हां, है ना। दफ्तर की लड़कियों से पेंच लड़ाता रहता है। वे भी सब समझती हैं। कहीं लड़कियां ही न किसी दिन बीच दफ्तर बीन बजा दें।

9. मीडिया की आंखों में सुर्ख डोरे उभर आए हैं। टुंडा ने अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए जो तरकीबें इजाद की हैं, बाकी सभी चैनल पीछे-पीछे उसी राह पर चल पड़े हैं। वेश्याओं का स्टिंग आपरेशन करो। हिरोइनो को चड्ढी-चोली में कैटवाक कराओ। नई पीढ़ी के साथ कोकशास्त्र पर डिबेट करो। एकरिंग के लिए पहली शर्त होगी बार गर्ल होना या जेंट्स है तो एक झटके में नीड अद्धा सुड़ुक जाना। नारी उत्थान कार्यक्रम में सहवास की दशा-दिशा से दर्शकों को रू-ब-रू कराना। नुस्खे कामयाब रहे। टीआरपी धांय-धांय बढ़ रही है। कोठों पर मुर्दनी छायी हुई है। ब्ल्यू सीडी का धंधा करने वालों को सांप सूंघ गया है। टुंडा मुर्दाबाद के नारे लगा रहे हैं। अब वे सीडी के बजाय डाइरेक्ट इस तरह के कार्यक्रम आयोजित करने के लिए सरकार से लाइसेंस मांगने वाले हैं। कोठा तो कोठा, एक कोठा और सही।

10. आइए आखिर में स्तंभकार जोगिंदर जी की चार लाइनें आपको भी सुनवाइ देते हैं.....

नाचो खूब नचाओ रंभा....
चोंथो-चोंथो चौथा खंभा....
पत्रकारिता तो गई गदहिया के उसमें ए रामू!

सभी नाम काल्पनिक, बाकी सब सही-सही
((पत्रकारिता की कोख में कैसे-कैसे पापः भाग चार : साभार : बेहया http://behaya.blogspot.com))