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21.4.08

वर्तमान पत्रकारिता और पत्रकारः ऐसे वैसे कैसे कैसे रंग रूप? ........उधार के कुछ चिल्लर लेख-आलेख

पहली बात...
पत्रकार या स्टेनोग्राफर
--संजय तिवारी--
(विस्फोट ब्लाग और विस्फोट डाट काम के माडरेटर)

हमारे बिजनेस अखबार आयातित बुद्धि के प्रभाव में कंपनियों को रिपोर्ट करते समय निवेश पत्रकारिता का रूख अपनाते हैं. अखबारों और चैनलों में बिजनेस रिपोर्टिंग में हर रोज ऐसी खबरें होती हैं कि यह कंपनी यहां इतना निवेश करेगी. वह कंपनी वहां उतना निवेश करेगी. लेकिन कभी आपने यह भी सुना कि उस निवेश की जरूरत वहां है कितनी? या फिर निवेश करने का प्रभाव होगा या दुष्प्रभाव. हमारे बिजनेस अखबार इसे पत्रकारिता नहीं मानते. वह जो निवेश कर रहा है उससे उसे फायदा कितना होगा और समाज-पर्यावरण को कितना नुकसान इसका कोई आंकलन कभी हमारे बिजनेस पत्रकार नहीं करते. भाई कुएं में बाल्टी डालने की खबरें देते हो लेकिन उसने वहां से कितना पानी उलीचा कभी यह खबर क्यों नहीं बनाते?

इसीलिए मैं इन पत्रकारों को कंपनी पत्रकार कहता हूं. पत्रकार भी क्यों कहें? पी साईंनाथ ठीक कहते हैं कि असल में ये लोग स्टेनोग्राफर हैं. जो कंपनियों से डिक्टेशन लेते हैं. इस डिक्टेशन के बदले उन्हें तनख्वाह के अलावा कुछ गिफ्ट-शिफ्ट भी मिल जाता है.

पत्रकारिता तो शायद ही कहीं बची हो. हिन्दी टीवी चैनलों ने अपनी औकात दिखा दी है और यह साबित कर दिया है कि हिन्दी लुच्चों और लफंगों की भाषा है इसलिए उनकी प्राथमिकता वही लोग हैं. बिजनेस अखबर और चैनल तो कंपनियों को रिपोर्ट करने को ही पत्रकारिता समझते हैं. लगता है फिर पश्चिम से कोई हवा आयेगी तो इन पत्रकारों की बुद्धि ठिकाने आयेगी इनकी अपनी कोई समझ तो बची नहीं है.

पत्रकारिता का एक मूलभूत सिद्धांत है कि वह खबर नहीं है जो आपके पास चलकर आती है. खबर वह है जिसके पास चलकर आप जाते हैं. और इस चलने-फिरने में भी एक बात नहीं भूलनी चाहिए आपका अंतिम लक्ष्य आम आदमी की भलाई, उसका हक-हित सुरक्षित करना है न कि कंपनियों और साम्राज्यवादी ताकतों का. लेकिन अव्वल तो पत्रकारों ने चलने-फिरने से ही तौबा कर लिया है. चलते-फिरते भी हैं तो वहीं जाते हैं जहां उन्हें ले जाया जाता है.

ज्यादा कुछ तो नहीं सिर्फ इतनी प्रार्थना करता हूं कि ऐसे स्टेनोग्राफरों से भगवान इस देश की रक्षा करें.
(साभारः http://visfot.blogspot.com/2008/04/blog-post_21.html)
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दूसरी बात...
पत्रकार फिर निशाने पर एक का अपहरण तो दूसरा जेल में
--अंबरीश कुमार--
(जनसत्ता के वरिष्ठ पत्रकार और विरोध ब्लाग के माडरेटर)

उत्तर प्रदेश में पत्रकार फिर निशाने पर हैं। शनिवार को ही इलाहाबाद के पत्रकार श्यामेन्द्र कुशवाहा अपहृताओं के चंगुल से जन बचाकर भाग आए। उनका अपहरण पांच अप्रैल को इलाहाबाद में हुआ था। दूसरे वरिष्ठ पत्रकार मेहरूद्दीन खान पिछले १५ दिन से जेल में हैं। ६५ साल के मेहरूद्दीन खान को अपहरण के मामले में शामिल बताया गया है। मेहरूद्दीन खान दिल्ली से निकलने वाले अखबारों में लिखते रहे हैं और शाह टाइम्स के पूर्व संपादक रहे हैं। शाह टाइम्स के संपादक शाहनवाज राणा बहुजन समाज पार्टी के विधायक हैं। दूसरी तरफ प्रेस काउंसिल ने आगामी दो मई पत्रकार समीउद्दीन नीलू के मामले में उत्तर प्रदेश के पुलिस महानिदेशक और गृह सचिव को तलब किया हुआ है। समीउद्दीन वही पत्रकार हैं जिन्हें नौ फरवरी, 2005 को वन्य जीव तस्करी के मामले में गिरफ्तार कर लखीमपुर खीरी जिले की सीमा पर फर्जी एनकाउंटर में मारने का प्रयास किया गया था। बाद में उन्हें 20 लाख की वन्य जीव तस्करी के मामले में जेल भेज दिया गया। यह कुछ उदाहरण हैं कि किस तरह पुलिस प्रशासन और नेता फर्जी मामलों में पत्रकारों को फंसा रहे हैं। उत्तर प्रदेश वर्किग जनर्लिस्ट यूनियन के अध्यक्ष हसीब सिद्दीकी ने डा. मेहरूद्दीन की गिरफ्तारी और उनके परिवार के उत्पीड़न की तीखी निंदा की है। उन्होंने मांग की है कि डा. मेहरूद्दीन को फौरन रिहा कर दोषी अफसरों व नेताओं के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की जए।

इलाहाबाद में पत्रकार श्यामेन्द्र कुशवाहा के अपहरण का मामला अभी गर्माया ही हुआ था कि मुजफ्फरनगर से पत्रकार मेहरूद्दीन खान को गिरफ्तार कर जेल भेजने की जनकारी मिली। हालांकि शनिवार को ही कुशवाहा हरिद्वार में अपहृताओं के चंगुल से भाग निकले तो इलाहाबाद के पत्रकारों ने राहत की सांस ली। लेकिन मुजफ्फरनगर के पत्रकार अब मेहरूद्दीन खान को लेकर आहत हैं। मेहरूद्दीन खान को न सिर्फ बदसलूकी कर गिरफ्तार किया गया बल्कि उनके परिवार की बेटियां जहां-जहां ब्याही हैं, उनके घरों में भी पुलिस दबिश दे रही है। उनके पुत्र शाकिर को पहले ही गिरफ्तार किया ज चुका है। उनके परिवार की कई महिलाओं को पुलिस परेशान कर चुकी है। इस पूरे मामले में एक समाजवादी पार्टी सरकार में लोकदल कोटे से मंत्री रहे नेता पर अंगुली उठ रही है। डा. मेहरूद्दीन से कुछ पत्रकारों ने जेल में मुलाकात की तो उन्होंने कहा-मुङो फर्जी मामलों में फंसाकर परेशान किया ज रहा है। मामला यहीं तक सीमित नहीं है। मेरे परिवार के लोगों का उत्पीड़न जरी है।

डा. मेहरूद्दीन को एक अपहरण के मामले में फंसाया गया है। उनके रिश्तेदार पर एक लड़की के अपहरण का मामला दर्ज किया गया था। उसी मामले में चार अप्रैल की रात कांधला पुलिस ने गाजियाबाद के थाना दादरी के गांव बढ़पुरा से डा. मेहरूद्दीन और उनके पुत्र शाकिर को मारपीट करते हुए उठाया। इस बीच घर की महिलाएं बीच में आईं तो उनके साथ भी बदसलूकी की गई। थाने ले जकर उनके खिलाफ मामला दर्ज किया गया। इस बीच क्षेत्र के एक पूर्व मंत्री पुलिस से लगातार संपर्क बनाए हुए थे। बाद में उन्हें जेल भेज दिया गया। पुलिस ने उनके खिलाफ अपहरण की साजिश रचने और अपहृत लड़की को पनाह देने जसे आरोप लगाए हैं। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में प्रेम संबंधों को लेकर कई मामले उछले हैं जिनमें कभी पंचायतों ने बर्बर भूमिका निभाई तो कभी पुलिस और नेताओं ने। इस मामले में स्थानीय पुलिस और नेताओं की भूमिका संदिग्ध रही है।

समीउद्दीन नीलू के बाद यह दूसरा मामला है जिसमें पत्रकार को फर्जी मामलों में फंसाकर जेल भेज गया है। नीलू के मामले में तो पुलिस अधिकारी ने साफ कह दिया था-जो हम लिख देंगे, जिला की अदालत उसी को सच मानेगी। पुलिस ने तब 20 लाख रूपए मूल्य की वन्य जीवों की खालें आदि की बरामदगी भी दिखा दी थी। बाद में पुलिस से यह मामला ले लिया गया और सीआईडी ने अपनी रिपोर्ट में सारे मामले को फर्जी करार दिया। वर्किग जनर्लिस्ट यूनियन के अध्यक्ष हसीब सिद्दीकी ने कहा-हम लोगों ने कई साल पहले पत्रकार बंधु की स्थापना की थी ताकि पत्रकारों से जुड़े मामलों की वहां जंच-पड़ताल हो सके पर सरकार ने कोई पहल नहीं की। हम चाहते हैं कि किसी भी पत्रकार की गिरफ्तारी से पहले प्रदेश के आला अफसरों से इजजत ली जए ताकि जिला स्तर पर इस तरह की घटनाएं न हों। इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किग जनर्लिस्ट के अध्यक्ष के विक्रमराव रायपुर जकर छत्तीसगढ़ में एक पत्रकार को नक्सली बताकर जेल भेजने का विरोध कर रहे हैं तो दूसरी तरफ उत्तर प्रदेश में ६५ साल के बुजुर्ग पत्रकार को एक लड़की के अपहरण के मामले में जेल में डालने पर मीडिया के वरिष्ठ लोग हैरान हैं।
(साभारः http://virodh.blogspot.com/2008/04/blog-post_20.html)
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तीसरी बात...
संपादकों की औकात, मालिकान सोचते हैं कि संपादक नाम का प्राणी तो बोझ है
--खुशवंत सिंह--
(जाने माने स्तंभकार और लेखक)

बात बहुत पुरानी नहीं है, जब हमारे यहां अख़बार इस लिए जाने जाते थे कि उनके संपादकों का कद कितना बड़ा है। ब्रिटिश राज के वक्त तो कई सरकारी अख़बारों, जैसे टाइम्स ऑफ इंडिया और स्टेट्समैन के संपादकों को नाइटहुड की उपाधि तक से सम्मानित किया गया। आजादी के बाद भी अख़बारों के एडिटर को समाज में काफ़ी सम्मान प्राप्त था। फ्रेंक मोरेस, चलपति राव, कस्तूरी रंगन अयंगर, प्रेम भाटिया आदि नामों से पाठक भली भांति परिचित थे। अस्सी के दशक में टाइम्स ऑफ़ इंडिया के संपादक रहे दिलिप पदगांवकर का तो यहाँ तक कहना था कि देश में प्रधानमंत्री के बाद सबसे महत्वपूर्ण काम उन्हीं के ज़िम्मे है। सरकार के ग़लत नीतियों की सकारात्मक आलोचना विपक्ष से नहीं बल्कि इन्ही काबिल संपादकों के बदौलत होती थी।


लेकिन टेलीविजन के आते ही हालात बदलने लगे। जो चीजें टीवी के परदे पर दिखने लगी, उसे लोग पढ़ने की जहमत नहीं उठाना चाहते थे। संपादकीय पढ़ने वालों की तादाद घटती गई। अख़बारों के मालिकान यह सोचने लगे कि संपादक नाम का प्राणी तो बोझ है और उनके बिज़नेश मैनेज़र ही टेलीविजन की चुनौतियों का बेहतर ढ़ंग से सामना कर सकते हैं। जरूरत थी तो सिर्फ़ छड़हरी बदन वाली मॉडलों, गॉशिप, विंटेज वाईन और लज़ीज़ व्यंजनों से अख़बारी पन्नों को भर देने की। और इस फार्मूला को चार फ से परिभाषित किया गया - फिल्म, फैशन, फुड और फक द एडिटर (पता नहीं हिंदी में इसका मतलब क्या हो सकता है!)। अपने जमाने के कई मशहूर कलमकार (संपादक) चौथे फ यानि फक द एडिटर के शिकार हो गए। इनमें से कुछ के नाम काबिल-ए-गौर है - फ्रेंक मोरेस (द नेशनल स्टैंडर्ड जो बाद में इंडियन एक्सप्रेस बना), गिरिलाल जैन (टाइम्स ऑफ इंडिया), बी जी वर्गिज़ ( मैग्सेसे पुरस्कार विजेता - टाइम्स ऑफ इंडिया), अरुण शौरी (इंडियन एक्सप्रेस), विनोद मेहता (वर्तमान संपादक ऑउटलुक), इंदर मलहोत्रा (टाइम्स ऑफ इंडिया), प्रेम शंकर झा (हिंदुस्तान टाईम्स)। आज अगर आप पूछें कि टाइम्स ऑफ इंडिया, हिंदुस्तान टाईम्स या फिर टेलिग्राफ के संपादक कौन हैं, दस में से नौ लोग शायद न बता पाएं। दिलिप पदगांवकर.....ये कौन है?


दरअसल,भारतीय पत्रकारिता की यह विडंबना है कि यहाँ मालिकान संपादक से ज्यादा अहमियत रखते हैं। पैसा, प्रतिभा पर भारी पड़ती है। पैसे के इस खेल में सबसे ताजा उदाहरण एम जे अकबर का दुर्भाग्यापुर्ण तरीके से एशियन ऐज़ से निकाला जाना है। अकबर, शायद जुझारू पत्रकारीय विरादरी के सबसे काबिल सदस्य हैं। उन्होंने कलकत्ता से निकलने वाले आनंद बाजार पत्रिका ग्रुप के सहयोग से संडे और टेलिग्राफ जैसी नामी अख़बार निकाला था। वे लोक सभा के लिए भी चुने गए और तक़रीबन आधे दर्जन किताबों के लेखक भी रहे हैं। पंद्रह साल पहले अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर उन्होंने द एशियन एज का प्रकाशन शुरु किया था। यह एक कठिन कार्य था और अकबर ने इसे बख़ूबी से अंजाम दिया। एशियन एज़ भारत के लगभग हर मेट्रो से साथ ही लंदन से भी छपने लगा। इस अख़बार में नाम मात्र का विज्ञापन होता था लेकिन पठनीय सामग्री काफी मात्रा में थी-जो नामी ब्रिटिश और अमरीकन अखबारों से भी ली जाती थी।कुल मिलाकर यह एक मुकम्मल अखबार था।इसके आलावा, इसमें ऐसे भी लेख छपते थे जो हुक्मरानों को नागवार गुजरते थे।और शायद यहीं वजह थी जिसने अखबार में अकबर के व्यवसायिक पार्टनर को नाराज कर दिया, क्योंकि इससे उनकी राजनीतिक आकांक्षा को ठेस पहुंच रही थी।बस फिर क्या था-बिना किसी चेतावनी के ही अकबर को एशियन एज के मुख्य संपादक के पद से हटा दिया गया ।पैसे ने एक बार फिर से अपना नग्न और घिनौना चेहरा सामने दिखा दिया। यह कहना अभी मुश्किल है कि बदले में अब अकबर उस आदमी के साथ क्या करेंगे जिन्होने उनके और पत्रकारिता दोनों के साथ बड़े ही अपमानजनक व्यवहार किया। लेकिन अकबर को यह वाकया लंबे समय तक जरुर सालता रहेगा। वो अभी सिर्फ सत्तावन साल के हैं और न तो किसी घटना को भूलते हैं न ही अपने विरोधियों को माफ करते हैं।


जब मैं इलिस्ट्रेटेड वीकली का संपादन कर रहा था तब अकबर उस छोटी सी टीम का हिस्सा थे जिसकी मदद से इलिस्ट्रेटेड वीकली का प्रसार 6,000 से बढ़कर 400,000 तक जा पहुंचा था। यह कितनी बड़ी बिडंवना है कि मुझे भी उसी तरीके से उस पत्रिका से निकाल दिया गया जिस तरीके से अकबर को इस साल एशियन एज से। तब तक टाइम्स ऑफ इंडिया समेत बेनेट कोलमेन के तमाम प्रकाशनों का मालिकाना हक सरकार द्वारा जैन परिवार को सौंपा जा चुका था। ज्योंही जैन परिवार ने कमान अपने हाथ में ली, उन्होने मेरे काम में अड़ंगा डालना शुरु कर दिया। मेरे करार को खत्म कर दिया गया और मेरे उत्तराधिकारी की घोषणा कर दी गई। मुझे एक सप्ताह के भीतर इलिस्ट्रेटेड वीकली छोड़ देना था। मैंने वीकली के लिए भारी मन से भावुक होकर अपना आखिरी लेख लिखा और पत्रिका के भविष्य की सुखद कामना की। लेकिन वो कभी नहीं छपा। जब मैं सुबह अपने ऑफिस में आया तो मुझे एक चिट्ठी थमा दी गई और तत्काल चले जाने को कहा गया। मैंने अपना छाता लिया और घर वापस आ गया। मुझे बड़े ही घटिया तरीके से ज़लील किया गया। यह अभी भी रह-रह कर मुझे परेशान करता है। जैन परिवार द्वारा किया गया वह अपमान मैं आज तक नहीं भूल पाया हूं। आज भी मेरे सम्मान में जब कोई समारोह होता है-भले ही उसकी अध्यक्षता अमिताभ बच्चन, महारानी गायत्री देवी या खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही क्यों न करें-उसकी रिपोर्ट तो टाइम्स ऑफ इंडिया में छपती है लेकिन उसमें न तो मेरा फोटो छपता है न ही नाम होता है।और यह उदाहरण साबित करता है कि पैसा और सत्ता के मद में चूर छोटे दिमाग बाले आदमी कैसे हो सकते हैं।
(साभारः http://kissago.blogspot.com/2008/04/blog-post_18.html)
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(उपरोक्त तीनों आलेख दूसरे ब्लागों से लिए गए हैं। उम्मीद है, उपरोक्त ब्लागों के माडरेटर इस चोरी के लिए क्षमा करेंगे। मकसद सिर्फ इतना है कि पत्रकार समुदाय से जुड़े उपरोक्त आलेख देश के कोने कोने मौजूद पत्रकारों तक भी पहुंच जाएं....जय भड़ास, यशवंत)

2 comments:

Anonymous said...

दादा कमाल के है ये तीनो लेख

बडा कटु है मगर सत्य है, और ये ही सत्य है कि व्यापार के इस दौर में बस ब्यव्साय ही बचा रह गया है, पत्रकारिता गयी तेल बेचने, आपने सत्य कहा बहुत सारे पत्रकार मित्र इस पर अपनी राय रखेंगे मगर करेंगे वही जो आपने लिखा है । अब उनकी मजबूरी या उनके जेब कि ये तो वो ही जाने मगर अपने कलम को उन्होने अपने मालिकान का रखैल जरूर बना दिया है

वैसे अम्बरीश जी का लेख विवादाश्पद लगता है क्योँ कि सारे घटनाक्रम को देखें तो ये राजनैतिक ही लग रहा है। पत्रकार, नेता,और राजनीतिक पार्टी का मिश्रण अपने आप में एक विवादित सरबत हो जाता है, विवाद इसलिए कि किसे नुकसान ज्यादा हो रहा है वह फायदे वाले कि टांग खिंचाई करेगा ही ।

और खुशवंत जी के क्या कहने बेबाकी के बादशाह ने जिस बेबाकी से इन मालिकों कि बात जाहिर कि वह बेहतरीन है , पुराने ज़माने कि बात फिर से तजा कर कर इन्होने अभी के संपादकों के मन को जरूर कसैला कर दिया होगा, मगर दादा उस ज़माने में सिर्फ पत्रकारिता थी और आज व्यावसायिकता। ये तो कम सा कम खुशवंत जी को समझना ही होगा क्यूंकि अगर व्यसाय्वाद ना आता तो हमारे यहाँ कुकुरमुत्तों कि तरह पत्रक्कारों को नोकरी भी नही मिलती .

डॉ.रूपेश श्रीवास्तव(Dr.Rupesh Shrivastava) said...

दादा,इंद्रधनुष की रंगो की पट्टियों में काले रंग की पट्टी क्यों नहीं होती? तीनो लेख गहरे हैं? संजय तिवारी जी ने बात करी थी तो ये बात तो उनके शब्दों में ही सुनी थी कि पत्रकारिता मात्र मूल पत्रकारिता और स्टेनोग्राफ़ी के बीच झूल रही है...