सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।
25.7.08
सोमनाथ के बहाने
सोमनाथ चटर्जी के साथ जो हुआ उसने एक नई बहस को जन्म दिया है। मजे की बात यह है कि यह बहस उस पार्टी के अंदर नहीं चल रही है जिससे सोम संबंध रखते हैं (थे), बल्कि पार्टी के बाहर सोमनाथ दा के तमाम हितैषी एकाएक खड़े हो गए हैं। इनमें से अधिकांश अखबार वाले हैं और ये वही लोग हैं जो सुप्रीम कोर्ट से सोम दा के टकराव पर उनकी चुटकी लेते दिखाई देने लगे थे। सवाल उठता है कि उन लोगों को अचानक उनमें मासूमियत क्यों दिखाई देने लगी है। एकाएक सोमनाथ चटर्जी या स्पीकर उनके लिए सोम दा कैसे हो गए। किसी भी पार्टी द्वारा उसके सदस्य पर की गई कार्रवाई पार्टी का आंतरिक मामला होता है। सोमनाथ के मामले में अखबार और चैनल क्यों अधिक स्यापा करते नजर आ रहे हैं। कहीं यह एक पार्टी और उसके वैचारिक सिद्धांत को बदनाम करने की सोची समझी चाल तो नहीं। मीडिया का ऐसा ही कुछ रुप नेपाल में राजतंत्र की समाप्ति और कम्युनिस्टों की बढ़ती ताकत पर दिखाई दिया। तब लगा जैसे नेपाल में राजतंत्र का खत्म होना घोर पाप कर्म है और उसको करने वाले प्रचंड और उनके साथी पापी। मजे की बात यह देखो कि जब नेपाल में राजतंत्र के विरोध की बात होती है तो उसका श्रेय नेपाली कांग्रेस को दिया जाता है और जब राजा के अधिकार को खत्म करने की बात होती है तो उसका दोष प्रचंड पर मढ़ा जाता है। यानी कि मीठा-मीठा गप्प और कड़वा थू। खैर शायद में भटक रहा हूं मगर मुझे लगता है कि इन दोनों ही मामलों में मीडिया का कर्म तटस्थता या कहें दोनो पक्षों को समानता देने का नहीं रहा है। क्रांतिकारी सोमनाथ ने अपने कामकाज से आम आदमी के दिल में जो जगह बनाई है उसे सभी जानते हैं। सुप्रीम कोर्ट से टकराव के मामले में तो वह हीरो की तरह ही उभरे। जनता में उपजी इस सहानुभूति को माकपा को बदनाम करने के हथियार के रूप में तो नहीं किया जा रहा है। क्या यह अखबार और चैनल में बैठे माकपा विरोध की बुर्जुआ मानसिकता नहीं है। अगर नहीं तो फिर एक घटना को याद कीजिए। भाजपा ने अपने वरिष्ट साथी मदन लाल खुराना को पार्टी से निष्कासित किया। खुराना पार्टी के प्रति निष्टावान रहे। सोम दा की तरह वह भी काफी पुराने कार्यकर्ता थे। तक किसी अखबार या चैनल ने इस तरह की लाइन क्यों नहीं लिखी कि 40 सालों का साथ भूला दिया। सोमनाथ पर कार्रवाई उनका जन्मदिन देखकर तो पार्टी ने नहीं की होगी फिर क्यों उनके समाचार में जन्मदिन की संवेदनाओं को उभारने की कोशिश की गई। लगभग सभी अखबार और चैनल ने यह किया तो क्या सोम दा के सहारे माकपा को खलनायक बनाने का खेल खेला जा रहा है। सोमनाथ से इस्तीफे के लिए माकपा के अंदर का मामला है। वह सदन के लिए स्पीकर हो सकते हैं लेकिन पार्टी के लिए तो वह कार्यकर्ता ही हैं। इसे सोमनाथ के पद से जोड़कर क्यों देखा जा रहा है। पार्टी अपने कार्यकर्ता को निर्देश दे सकती है। यह कार्यकर्ता पर है वह माने न माने। फिर पार्टी को तय करना होता है कि कार्यकर्ता के खिलाफ क्या किया जाए। और अंत में यह कि विरोध करने वालों को पहले माकपा के सांगठनिक ढांचे की समझ होना चाहिए। यह कोई लालू या मुलायम का दल नहीं है जहां व्यक्ति की श्रेष्ठता का सवाल हो। पार्टी की सैद्धांतिक सोच पर व्यक्ति की सोच हावी नहीं हो सकती है। माकपा इससे पहले भी पार्टी के वरिष्ठ लोगों के खिलाफ अनुशासन की कार्रवाई और उन्हें पार्टी लाईन पर चलने के निर्देश देती रही है। ज्योति बसु को इसी पार्टी नेतृत्व ने प्रधानमंत्री न बनने को कहा था तब ज्योति बसु ने न चाहते हुए भी निर्देश माना था।
Labels: कुकुरमुत्ता, योगेश
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2 comments:
भाई,क्या अब बीहड़ में ये नया दल बनाने वाले हैं ????
योगेश भाई,
कहीं माले लिंग से तो नही हैं आप भी। पत्रकारिता तो व्यवसाय है, ओर बेचारे पत्रकार लाला जी के नौकर सो नौकरी बजा रहें हैं, रही बात सोम दादा की तो मामला ऐसी पार्टी का है जो कमोबेश अपने पतन कि ओर जाता दिख रहा है, नेत्रितव में असंतोश,पोलित बयुरो में पति पत्नी का होना ओर सबसे बडी बात वामपंथ का पुर्व ओर दक्षिन की लडाई दिलचस्प है देखिये आगे आगे क्या होता है।
जय जय भडास
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