रोज दरीचे खोलकर
देखता हूँ तो नजर आता है एक अक्स उमुमन
बाहर आ कर पाता हूँ
बूढ़ी तुलसी की टकटकी बांधे
स्नेहसिक्त आँखे
और डाल देता हूँ एक लोटा रस्मी पानी
मुस्कराती है वह तब भी
छूता हूँ मैं उसके
पियराते पत्ते
बर्गरेज अभी दूर है
चश्मा भूल आया हूँ मेज पर रखा है
मैं मुड़ता हूँ
गिरती हैं कुछ बूंदे आसुओं की
पलट कर देखता हूँ
मुझे लगता है जैसे माँ बेठी हो सामने
25.7.08
माँ
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2 comments:
मम्मी.... देखो आप कितनी इमोशनल कविता लिखी है भाई ने आपके लिये....
मुझे भी लगती है, मुझे भी लगती है
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