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24.7.08

चार दिनों दा प्यार हो रब्बा...

नदीम अख्तर

अभी अखबार पढ़ते-पढ़ते मुझे बाहर से फ़िल्म जन्नत का ये गाना सुनाई दिया. चार दिनों दा प्यार हो रब्बा... लम्बी जुदाई, लम्बी जुदाई. मौका और दस्तूर के हिसाब से ही गाना बज रहा था, इसलिए चेहरे पर एक मुस्कान खिल गयी. असल में संप्रग और वाम के रिश्तों की टूटी डोर और सोमनाथ चटर्जी को पार्टी से निकले जाने के बाद इस गाने की प्रासंगिकता और बढ़ी हुई लगी. लेकिन फर्क सिर्फ़ इतना ही है कि वाम और संप्रग का बेमेल प्यार या फिर यूँ कहें कि वाम दलों द्वारा संप्रग के साथ अप्राकृतिक राजनीतिक यौनाचार चार दिनों तक नहीं बल्कि चार सालों तक चला. सरकार बहुत ज़्यादा तकलीफ महसूस करने लगी, तो उसने भी बिस्तर से उठने की हिम्मत दिखा ही दी. लेकिन वाम दलों ने लाजवंती सरकार की इस हिमाकत का बदला अपने ही वरिष्ठ साथी से ले लिया. 40 सालों तक जिसने पार्टी (सीपीएम) की निःस्वार्थ सेवा की, उसे एक झटके में पार्टी से निष्कासित कर डाला. आख़िर माकपा क्या चाहती थी सोमनाथ चटर्जी से. क्या वे स्पीकर के दायित्व का निर्वहन न करके एक आम राजनेता की तरह आचरण करते. स्पीकर होने का मतलब जिस करीने से सोमनाथ चटर्जी ने भारत के लोगों और राजनेताओं को समझाया है, संसदीय इतिहास में आज तक इतने कायदे से कोई नहीं समझा पाया था. सोमनाथ चटर्जी भले ही विश्वास मत से पहले कुर्सी छोड़ कर नहीं गए, लेकिन उन्होंने विश्वास मत की पूरी प्रक्रिया के दौरान अपने आचरण में किसी दल विशेष का पुट सुवासित नहीं होने दिया. अपना काम बखूबी अंजाम दिया और वैसी नौबत भी नहीं
आयी की स्पीकर को पक्ष-विपक्ष के मतों में समानता आने के कारन अपने मताधिकार का इस्तेमाल करना पडा हो. और जब सोमनाथ चटर्जी ने अपने मत का इस्तेमाल ही नहीं किया, तो उनके ऊपर किसी के समर्थन या फिर किसी के विरोध का आरोप कैसे मढ़ा जा सकता है. सिर्फ़ इसलिए कि सोमनाथ जी माकपा के संसद हैं, और उन्हें भी नोटों का बण्डल दिखने जैसा कोई नाटक करना चाहिए था वेल में खड़े हो कर. या फिर उन्हें भी इस्तीफा देकर आम माकपाइयों की तरह "इन्कलाब मुर्दाबाद" का नारा लगना चाहिए था क्या? आख़िर सोमनाथ चटर्जी इस्तीफा दे भी देते तो क्या होता, संप्रग ने अभी जिस प्रकार सांसदों का जुगाड़ किया वैसे ही सोमनाथ के इस्तीफे के बाद भी जुगाड़ कर ही लेते संप्रग के नेता. और वैसे भी राजनितिक आरोप तो दोनों और से लगाये जा रहे हैं. कौन दूध का धुला है. पक्ष के पास तो विपक्ष से ज़्यादा तादाद में सांसद हैं विपक्षी दलों पर आरोप लगाने के लिए. असल में माकपा को ऐसा लग रहा है कि इस खेल में उनकी नहीं चली, तो आगे जहाँ-जहाँ उनकी सरकार है वहाँ की जनता को ये क्या मुंह दिखाएंगे? लोगों से क्या कहेंगे कि हम कांग्रेस के साथ हो चुके हैं, असल में इन्हें सरकार से या फिर यूँ कहें कि कांग्रेस से पल्ला तो छुडाना ही था, बस मौके की तलाश थी, वो मिल गया. अब उस मौके के बाण से कुछ तीर भी छूट रहे हैं. एक तीर सोमनाथ चटर्जी को लगा है, आगे देखिये और किसे-किसे लगता है..

1 comment:

Anonymous said...

अप्राकृतिक राजनीतिक यौनाचार तो था ही मगर एकदुसरे से ज्यादा लोकतंत्र का, लोगों की भावनाओं का, विश्वासघात था ये मिलन दोनो पार्टियों के द्वारा। सच्चे मायने में लोगों का सामाजिक बलातकार किया था इन दोनों पार्टियों ने। हमारी नदान आमजन कब सोचने लायक होगी प्रश्न तो इस पर आकर अटकता है