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13.2.09

'नवदुनिया' का 'क्रांतिकाल' और

पुष्पेंद्र सौलंकी के 'तेवर'

अमिताभ बुधौलिया 'फरोग'

पिछले दिनों सामाजिक मुद्दों से जुडीं खबरों के सिलसिले में सागर रायसेन, विदिशा, सीहोर और बीना जाना हुआ। इस बार यह यात्रा संस्मरण इस मायने में भी कुछ खास हुआ, क्योंकि करीब पांच साल पहले जब मैं 'दैनिक भास्कर' के भोपाल संस्मरण में घूमंतू संवाददाता हुआ करता था, तब इन क्षेत्रों में सिर्फ दैनिक भास्कर की ही तूती बोला करती थी। मेरे कई मित्र इन शहरों और कस्बों में निवास करते हैं, लेकिन इस बार जब मैं सागर पहुंचा, तो उनके अखबार प्रेम में अप्रत्याशित परिवर्तन देखने को मिला। हम जब भी साथ बैठते-खाते या गपियाते तो मेरे एक मित्र दैनिक भास्कर का गुणगान-बखान करते थकते नहीं थे, लेकिन इस बार उनके घर नवदुनिया देखकर मैं मुस्कुराए बगैर नहीं रह सका। मैंने व्यंग्यात्मक लहजे में सवाल दागा-अरे! आपका पुराना अतिलोकप्रिय अखबार कहीं दिखाई नहीं पड़ रहा? वो मेरे कहने का आशय समझ चुका था। उसने मुस्कुराते हुए दो टूक कहा-जो वक्त के साथ नहीं चलेगा, उसे तो पीछे होना ही पड़ता है। अगर कल मैं किसी दूसरे अखबार की तारीफ करता था, तो वो उस लायक था, वैसे ही आज 'नवदुनिया' मेरी कसौटी पर खरी उतर रही है।

अकेले सागर ही क्यों, भोपाल और आसपास के नगरों और कस्बों में लोगों के घरों, चाय-नाश्ते की गुमठियों-ठेलों और दुकानों में नवदुनिया को भी भोपाल के एक बड़े अखबार के साथ बराबर की हैसियत के साथ पढ़ते देख मेरे जेहन में एक शख्स की छवि चमक उठी-पुष्पेंद्र सौलंकी। पुष्पेंद्रजी मेरी कई खबरों के ऊर्जास्त्रोत रहे हैं। आज न्यूज चैनल जिन स्टिंग ऑपरेशनों के बूते टीआरपी की दौड़ में आगे बने रहते हैं, उस जोखिम और साहसपूर्ण पत्रकारिता की शुरुआत बहुत पहले पुष्पेंद्रजी कर चुके थे। खासकर भोपाल में पुष्पेंद्रजी घूमंतू पत्रकारिता की एक मिसाल रहे हैं। यह सच है कि दुनिया में बदलाव तभी आए हैं, जब लोगों की भावनाओं, उनके विचारों और क्रियाकलापों में नई ऊर्जा भरी गई। इन दिनों मैं 'पीपुल्स समाचार' में सेवाएं दे रहा हूं। इससे पहले जब मैं क्रमश: दैनिक भास्कर, नवभारत, राज एक्सप्रेस और दैनिक जागरण में कार्यरत रहा, तब महीनों में कभी-कभार ही 'राज्य की नई दुनिया'(नवदुनिया का रीलांच के पूर्व का नाम) देखा करता था। हालांकि उस वक्त भी इस अखबार में मेरे कई मार्गदर्शक अपनी सेवाएं दे रहे थे, विनय उपाध्याय सरीखे। लेकिन यह सौ टका सच है कि तब की 'राज्य की नई दुनिया' और आज की 'नवदुनिया' में जमीन-आसमान का अंतर है-प्रस्तुतिकरण, कलेवर से लेकर खबरों के लेखन तक।

आज 'नव दुनिया' की सोच और दिशा में स्फूर्ति और कुछ कर दिखाने का जोश-जुनून स्पष्ट महसूस किया जा सकता है। अकेले भोपाल नहीं, प्रांतीय संस्करणों में 'नवदुनिया' जिस चमक-दमक के साथ फैला है, वह चमत्कृत कर देने वाला सच है। मैं जब भी 'नवदुनिया' का कोई प्रांतीय संस्करण पढ़ता हूं, तो सबसे पहले मेरे मन-मस्तिष्क में पुष्पेंद्रजी की कार्यशैली और रचनात्मक दृष्टिकोण कौंधता है।यह 1999 की घटना है। मेरा चयन 'दैनिक भास्कर' की पत्रकारिता अकादमी के लिए हुआ था। घर से पहली बार लंबे समय के लिए किसी अनजान और बड़े शहर में रहने आया था। व्यावहारिक प्रशिक्षण के लिए अकसर 'भास्कर' के दफ्तर आना होता था। एक बार मैं और मेरे मित्र भास्कर के दफ्तर में प्रवेश कर रहे थे, तभी मेरी नजर एक लंबी कद-काठी के आदमी पर पड़ी। ढीला-ढाला जींस का पैंट और करीब घुटने तक लटकती टीशर्ट पहने यह व्यक्ति अपनी मोपेड को चालू कर रहा था। हम दोनों की निगाह टकराईं और दोनों ओर से मुस्कराहट का आदान-प्रदान हुआ। मुझे उस आदमी के व्यक्तित्व में एक अजीब-सा आकर्षण लगा-गोया हम दोनों वर्षों से एक-दूसरे को जानते हों। हालांकि बाद में जब उस आदमी ने मेरे सारे मित्रों का उसी अंदाज-मुस्कराहट के साथ अभिवादन किया, तब मुझे महसूस हुआ कि यह आदमी मिलनसार है।

कुछ दिनों बाद हमें बताया गया कि आज अकादमी में एक ऐसा पत्रकार अपने अनुभव बताने आ रहा है, जिसने नक्सली समस्या पर ढेर-सारा काम किया है, नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में दिनों-दिनों तक भूखे-प्यासे रहकर खबरें जुटाई हैं। उनका नाम पुष्पेंद्र सौलंकी बताया गया। हम सब उछल-से पड़े। दरअसल, हम इनके बारे में बहुत कुछ सुन चुके थे। हमने उनकी कई खबरें भी पढ़ी थीं, इसलिए ऐसे व्यक्ति से रूबरू होना हम नवे-नवेले पत्रकारों के लिए प्रफुल्लित कर देने वाला क्षण था। एक-डेढ़ घंटे बाद जब पुष्पेंद्रजी हम सबके सामने आए, तो मेरे ओठों पर मुस्कराहट और दिन में उल्लास-सा भर गया। ये वही मोपेड वाले शख्स थे।
खैर, पुष्पेंद्रजी के साथ एक बार हम सब कोलार पिकनिक मनाने गए। वहां रास्ते में एक आदिवासी गांव में जब हमने डेरा डाला, तो पुष्पेंद्रजी को देखते ही गांव के कई लोग इकट्ठा हो गए। पुष्पेंद्रजी को इन आदिवासियों से उनकी ही बोली में बतियाते देख हम हैरान थे। जब हम डेम पहुंचे, तो वहां संयोग से विधायक कल्पना परुलेकर मौजूद थीं। वे पुष्पेंद्रजी को देखते ही दौड़ी-सी चली आईं और गर्मजोशी से मिलीं। चूंकि पत्रकारिता में सारा खेल संपर्कों का होता है, इसलिए पुष्पेंद्रजी का परिचय क्षेत्र देखकर हम सब उत्साह से भर उठे।बाद में ज्ञात हुआ कि पुष्पेंद्रजी 'नर्मदा बचाओ' जैसे सामाजिक आंदोलनों से भी जुड़े रहे हैं। कुछ साल पहले जब मुझे यह मालूम चला कि पुष्पेंद्रजी अलीराजपुर के जमीदार घराने से ताल्लुक रखते हैं, तो अचरज और बढ़ गया। उनके साधारण रहन-सहन और खान-पान को देखकर कोई भी यह सोच भी नहीं सकता कि इस शख्स की मुट्ठी में क्या है, हथेलियों में वैभव की कितनी रेखाएं मौजूद हैं।कुछ घटनाएं, समयकाल ऐसे होते हैं, जो दिलो-दिमाग पर अमिट हो जाते हैं। अकादमी से प्रशिक्षण लेने के बाद मैं करीब छह महीने 'चंडीगढ़ भास्कर' में रहा। जब भोपाल आना हुआ, तो कुछ महीनों बाद ही पुष्पेंद्रजी अपने कुछ मित्रों के साथ 'सांध्यप्रकाश' चले गए। उनके मित्रों में सबसे करीबी थे पंकज मुकाती, जो इन दिनों पत्रिका-इंदौर के स्थानीय संपादक हैं। उन दिनों 'सांध्यप्रकाश' साधारण-से अखबारों में गिना जाता था। कुछ महीने बाद भोपाल में सांध्यप्रकाश ने जो चमक बिखेरी, वो सांध्यकालीन अखबारों के लिए एक ऊर्जा और प्रेरणा का आधार बन गया। पुष्पेंद्रजी ने अपने संपादकीय कार्यकाल के दौरान सांध्यप्रकाश को एक मुकाम दिलाया, जो दुर्भाग्य से उनके 'दैनिक भास्कर, जबलपुर जाने के बाद बिखर-सा गया। दैनिक भास्कर, भोपाल में उस समय नरेंद्र कुमार सिंहजी संपादक हुआ करते थे। सिंह साहब के कार्यकाल में मुझे बहुत कुछ सीखने को मिला। उन्होंने मुझे घूमंतू संवादाता बनाया और पहली यात्रा थी-पिपरिया। इससे पहले मैंने कभी भी दूसरे शहरों-कस्बों में जाकर खबरें नहीं निकाली थीं, सो स्वाभाविक है कि भीतर से घबराया हुआ था। उस वक्त मुझे पुष्पेंद्रजी का स्मरण आया, और मैंने आत्मसाहस जुटाया। पिपरिया से मैंने एक स्टोरी निकाली थी, जो वहां जहर-से फैले सट्टा और मादक पदार्थों पर आधारित थी। शीर्षक था-'सट्टा और सुट्टा में फंसी पिपरिया की जान।' यह खबर प्रथम पृष्ठ पर मध्यप्रदेश के पूरे संस्करणों में प्रकाशित हुई। कुछ ऐसी ही पड़ताल करती खबरें मैंने बैतूल और अन्य शहरों-ग्रामीण क्षेत्रों से भी निकाली थीं। 'घूमंतू पत्रकारिता' के दौरान मैं अकसर पुष्पेंद्रजी के उस वाक्य को जेहन में रखता था, कि कार्य कोई भी हो अगर हम उसमें पूरी शिद्दत से उतर जाएं, तो सफलता मिलना तय है।पिछले साल 'राज्य की नई दुनिया' जब 'नवदुनिया' के रूप में रीलांच होने जा रहा था, तब दूसरे बड़े अखबारों के भोपाल और समीपवर्ती प्रांतीय संस्करणों से जुड़े पत्रकार निश्चिंत बैठे रहे। दरअसल, उनकी सोच थी कि मठों-सरीखें समाचार पत्रों को हिला-डुला पाना 'नवदुनिया' के बूते में नहीं है, लेकिन आज यही लोग बौखलाए-से नई कार्ययोजनाएं बनाने में जुटे हैं। वाकई इसे अखबारी दुनिया के बदलते तेवर के रूप में देखा जाना चाहिए, कि कुछ महीने पहले तक जिन पाठकों को 'दैनिक भास्कर' जैसे बड़े अखबार का चस्का चढ़ा हुआ था, आज उनके हाथों-घरों में नवदुनिया सुगंध-सी महक रही है।मैं जब सागर पहुंचा, तो कुछ पत्रकारों ने चुटकी ली-'यार नवदुनिया ऐसा चमत्कार करेगी, सोचा न था! इन्हीं मित्रों से मुझे मालूम चला कि पिछले 20-22 दिनों तक यहां पुष्पेंद्रजी अपना डेरा डाल के गए हैं। ये मित्र हैरानी-से बोले थे-यार, पुष्पेंद्रजी यहां नवदुनिया के पत्रकारों को क्या टॉनिक/घुट्टी पिला के गए हैं कि उनकी खबरों को दूसरे बड़े अखबार फॉलोअप के रूप में छापने पर विवश हैं? चंद शब्दों में कहें तो 'नवदुनिया' ने दूसरे अखबारों की बैंड बजाकर रख दी है। इन मित्रों के कथन पर मुझे बहुत अधिक अचरज नहीं हुआ, क्योंकि मुझे मालूम था कि जहां पुष्पेंद्रजी हैं, वहां नए तेवर तो पनपने ही हैं, नई क्रांति तो आनी ही है, नई कहानियां गढऩी ही हैं।मैं अपने ब्लॉक पर कुछ चुटकियां लिखता हूँ -पहचान कौन? यह पहला मौका होगा जब मैं एक पहेली का जवाब खुद बताऊंगा-पहले चुटकी लीजिए...
राजा हैं पर रहे घुमंतू, आदिम जाति में साख।
जंगल-जंगल करी रिपोर्टिंग, खूब जमाई धाक।।
नक्सलवादी मुद्दों पर जिनका नहीं दूसरा सानी।
धारदार लिखने में माहिर, किंतु नहीं अभिमानी।
गुरु, फिर से करो कोई कमाल शुरू॥
ये हैं पुष्पेंद्र सौलंकी । लगो रहो उस्ताद.......।

1 comment:

satish aliya said...

budholiya tumhara bheja fir gya hai, ya fir wo hai hi nhi. mitr ghtiya logon ke jethmlani bnne ki thani hai kya! kbhl lfange avinash das ki to kbhi frzi puspendr solanki ki panke hue ja rhe ho.