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18.5.09

देश ने नफरत की राजनीति को नकारा

सलीम अख्तर सिद्दीकी

जनसंघ से बनी भारतीय जनता पार्टी 1984 के लोकसभा में चुनाव केवल दो सीटें जीतकर लगभग मर ही चुकी थी। लेकिन फरवरी 1986 में बाबरी मस्जिद पर लगा ताला खुलने पर आखिरी सांसें गिन रही भाजपा को जैसे ’संजीवनी’ मिल गयी थी। संघ परिवार ने गली-गली रामसेवकों की फौजें तैयार करके नफरत और घृणा का ऐसा माहौल तैयार किया था कि हिन्दुस्तान का धर्मनिरपेक्ष ढांचा चरमरा कर रह गया। पूरा देश साम्प्रदायिक दंगों की आग में झुलस गया था। चुनाव दर चुनाव भाजपा की सीटें बढ़ती रहीं। 1998 के चुनाव में भाजपा की सीटें 188 हो गयीं। भाजपा ने फिर से केन्द्र में सरकार बनायी, जो केवल 13 महीने ही चल सकी। लेकिन 1999 के मध्यावधि चुनाव में भाजपा की सीटें नहीं बढ़ सकीं। वह 188 पर ही टिकी रही। तमामतर कोशिशों के बाद भी पूर्ण बहुमत पाने का भाजपा का सपना पूरा नहीं हो सका। 1999 में भाजपा ने राममंदिर, धारा 370 और समान सिविल कोड जैसे मुद्दों को सत्ता की खातिर कूड़े दान में डाल कर यह दिखा दिया कि वह अब सत्ता से ज्यादा दिन दूर नहीं रह सकती। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा को 2 से 188 सीटों तक लाने का श्रेय आडवाणी को ही जाता है। लेकिन प्रधानमंत्री बनने में उनकी कट्टर छवि उनकी दुश्मन बन गयी। लेकिन भाजपा के पास अटल बिहारी वाजपेयी के रुप में एक ’मुखौटा’ मौजूद था। इसी मुखौटे को आगे करके बार-बार के चुनावों से आजिज आ चुके छोट-बड़े राजनैतिक दलों का समर्थन लेकर गठबंधन सरकार बनायी। भले ही भाजपा ने तीनों मुद्दों को छोड़ दिया हो, लेकिन संघ परिवार ने पर्दे के पीछे से अपना साम्प्रदायिक एजेंडा चलाए रखा। फरवरी 2002 में नरेन्द्र मोदी ने गुजरात में जो कुछ किया, वह उसी एजेंडे का हिस्सा था। नरेन्द्र मोदी ’हिन्दू सम्राट’ हो गए।2004 के चुनाव में एक बार फिर भाजपा ने साम्प्रदायिक कार्ड खेला, जो नहीं चल सका था। हालांकि तब कहा गया था कि भाजपा नरेन्द्र मोदी की वजह से हारी है, लेकिन भाजपा ने वरुण को भी दूसरा नरेन्द्र मोदी बनाने की कोषिष की भाजपा ने 2004 की हार से सबक नहीं लेते हुए एक बार फिर साम्प्रदायिक कार्ड खेलकर सत्ता पर काबिज होना चाहा। नरेन्द्र मोदी को स्टार प्रचारक बता कर उन्हें पूरे देष में घुमाया गया। वरुण को भी हिन्ुत्व का नया पुरोघा मान लिया गया। लेकिन देष की जनता कुछ और ही सोचे बैठी थी। देष की जनता ने राजग सरकार में देख लिया था कि ‘मजबूत नेता, निर्णायक सरकार’ का नारा लगाने वाले न तो ‘मजबूत’ हैं और न ही ‘निर्णायक‘। चुनाव हारते ही अपने को मजबूत बताने वाले आडवाणी विपक्ष के नेता बनने से गुरेज कर रहे हंै। यानि उस जिम्मेदारी से भाग रहे हैं, जिसकी भाजपा को सबसे ज्यादा जरुरत है। ये ठीक है कि अब आडवाणी प्रधानमंत्री शायद ही बन सकें, लेकिन क्या भाजपा को मजबूती देना उनकी जिम्मेदारी नहीं है। कांगेस के युवा चेहरे राहुल गांधी ने शालीन तरीके से चुनाव प्रचार करके देष की जनता को बताया कि देष राम नाम से नहीं विकास से दुनिया की ताकत बनेगा। भाजपा को गलतफहमी हो गयी थी कि देष की जनता का धर्म के नाम पर ध्रवीकरण किया जा सकता है। लेकिन ये इक्सवीं सदी है। 1992 और 2009 में जमीन आसमान का फर्क आ गया है। जनता ने देख लिया था कि धर्म के नाम पर राजनैतिक रोटियां सेंकने के अलावा कुछ नहीं किया जाता। इस वुनाव ने भाजपा को सबक दिया है कि अब धर्म के नाम पर जनता को बेवकूफ नहीं बनाया जा सकता है। आम जनता को रोटी, कपड़ा और मकान पहले चाहिए, राम मंदिर या राम सेतु नहीं। इस चुनाव के जरिए देष की जनता ने उन राजनैतिक दलों को भी आईना दिखाया है, जो पांच-दस सीटें लेकर प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे थे। बसपा सुप्रीमो को भी दलितों ने एहसास करा दिया है वे केवल उन्हें सत्ता तक पहुंचाने की सीढ़ी नहीं बनेेंगे। मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान को भी मुसलमानों ने बता दिया है कि अब भाजपा का भय दिखाकर उनका इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। देष की जनता ने बाहुबलियों को बाहर का रास्ता दिखा कर हिम्मत का काम किया है। वाम दलो को भी पता चल गया होगा कि समाजवाद का नारा लगाकर गरीब किसानों की बेषकीमती जमीनों को पूंजीपतियों को सौंपने का क्या अन्जाम होता है। नन्दी ग्राम और सिंगूर का खून रंग लाया है। लेकिन यह चुनाव यह भी बताता है कि अब एक आम आदमी लोकसभा में जाने का ख्वाब न पाले। क्योंकि इस बार संसद में पहुंचने वाले ज्यादतर सांसद करोड़पति या अरबपति हैं। एक बात और। सचिन पायलट, ज्योतिरादत्य सिंधिया, जयन्त चैधरी, अखिलेष यादव, वरुण और प्रिया दत्त आदि जैसे युवाओं को दिखाकर यह प्रचारित किया जा रहा है कि अब युवा आगे आ रहा है। सवाल यह है कि इन लोगों का अपना क्या है। ये युवा कितने जमीन से जुड़े हैं। इनको उस वर्ग की दुख-तकलीफों का कितना ज्ञान है, जिन्होंने इनको चुन कर भेजा है। क्या इनकी महज इतनी काबिलियत नहीं है कि ये राजनेताओं के चश्म ओ चिराग है। क्या इस बात की जरुरत नहीं है कि राजनैतिक पार्टियां ऐसे युवाओं को टिकट देकर अपने खर्च पर चुनाव लड़वाकर संसद में भेजें जो आम आदमी की तकलीफों को समझकर उनको दूर करे।
170, मलियाना, मेरठ।

8 comments:

अमिताभ श्रीवास्तव said...

saleem bhai,
aapka aalekh aapke vicharo se lipaputa he/ vese vicharo ki aazaadi is loktantra me he/isliye aalekh ka mudda he/ is mudde par kai sahmat honge, kai nahi/ jo nahi honge use aap apni aalochna samjh bethenge/ iske alava aap doosara kuchh soch nahi sakte/ yah maanviyajanit dosh he, isme aapki burai nahi he/
jis nafrat ko aapne uthaya he, use bahut koi nafarat nahi maante/khaaskar unhe chahne vaale/ye thik vesa he jese aap doosre ko chahte he, isliye inki baate aapko achhi nahi lagti/ saleem bhai, mera mananaa he, desh ke sandarbh me yadi aapko vakai sochna he to esa kuchh sochiye jisme vikaas sheel chintan ho// baar-baar yahi saari chije padhh kar, desh ka bhalaa hoga?????
isme sandeh he//aapki baat mujhe hazam nahi hoti////

आशेन्द्र सिंह said...

मेरी याददास्त में "वेटिंग पी एम" को लेकर लड़ा गया यह पहला चुनाव था, भाजपा और अडवानी की छवि जनता से छुपी नहीं है . वैसे इस तरह की करारी चोट ज़रूरी भी थी. अगर शर्म हो तो अब "वेटिंग पी एम" को राजनीती से सन्यास ले लेना चाहिए.

गौरव मिश्रा (वाराणसी) said...

amitabh bhai ne sahi likha hai

sbharti said...

भाजपा की राजनीति राष्ट्रवादी है, religionवादी नहीं, जबकी कॉंग्रेस की राजनीति है फूट डालो शासन करो की (जैसे अंग्रेज़ करते थे), चाहे वो धर्म हो या फिर जाति। और जहाँ तक रही बात भारत के दैयनीय स्थिति की, यह ५५ साल की कॉंग्रेस सत्ता का परिणाम नहीं तो और क्या है?

आज के नौजवान जाति-भेद के लिए क्यों लड़ रहे हैं? आज हमारे ही देश में उग्रवादी क्यों पैदा हो रहे हैं? naxalites के उत्थान का कारण क्या है? क्यों non-congress सरकारों वाली राज्य पिछड़ी हैं? हमारे देश की प्रगति एक धुंध है, जो शहर की सीमा के बाहर खत्म हो जाती है। उसके बाद क्या सच है और क्या झूठ, सब साफ नज़र आता है। हमने सिर्फ अपनी आर्थिक मज़बूती ही नहीं बल्कि सांस्क्रितिक आभा को भी खो दिया है।

कॉंग्रेस की उत्थान का कारण भाजपा का पतन नहीं, क्षेत्रीय पार्टियों की विफलता है। ये उत्तरप्रदेश वासी वही हैं जिन्होंने कुछ माह पहले बसपा का पताका फहराया था। और इसमे कोई शक नहीं कि अगर कल भाजपा घर-घर जाकर वोट की भीख मांगे और सुनहरे वादे करे तो यूपी उनके साथ हो ले। जिस प्रदेश की प्रगति ठप हो और सरकार popular ना हो, वहाँ सरकार का बदलना नई बात नहीं है।

राहुल गांधी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह और माननीय राष्ट्रपति, ये सब लोकतंत्र के स्तम्भ नहीं, शोसक हैं। ये तो आप मान के चलिए कि जब तक देश में ऐसे राजनेता रहेंगे, देश की स्थिति डमाडोल रहेगी।

काशिफ़ आरिफ़/Kashif Arif said...

मैं अमिताभ जी, की बात से बिलकुल भी सहमत नहीं हूँ, भाजपा ने जितने वक़्त राज करना था उसने कर लिया लेकिन अब ऐसा नहीं होगा क्यूंकि आज का नौजवान मतदाता यह अच्छी तरह जानता है की नफरत से कुछ हासिल नहीं सिवाय नुक्सान के....इसीलिए वो विकास का साथ दे रहा है...

Saleem Khan said...

@अमिताभ जी, आप एक अच्छे ब्लॉगर है... लेकिन आपने जो कुछ सलीम जी के लेख के सम्बन्ध में कहा, ठीक वही सब आप पर लागू होती है...ठीक वही सब... आप अपनी टिपण्णी दोबारा कुछ इस तरह पढ़े की जैसे सलीम जी ने या मैंने लिखी हो... ज़रा दोबारा पढें...

Saleem Khan said...

@आशेन्द्र सिंह जी से मै सहमत हूँ, भारत की जनता ने बड़बोलेपन, साम्प्रदायिकता ताकतों और मौकापरस्तों को धुल छठा दी... मेल यूपी से हूँ और इस बात का पुरज़ोर हिमायती कि यूपी में अगली सरकार कांग्रेस की हो वो भी पूर्ण बहुमत के साथ... जय हो...

Anonymous said...

@सौरभ भारती जी, भाजपा की राजनीती राष्ट्रवादी नहीं मुसलमानों के प्रति नफरतवादी वाली है... राष्ट्रवाद किसे कहेंगे जो आये दिन मारकाट की बात करें, नरेन्द्र मोदी, वरुण गाँधी, गुजरात....क्या यही राजनीती है...