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24.1.10

जंगलराज (मेरी लिखी पहली और आखिरी व्यंग्य कथा)

पढने का शौक तो बचपन से था... लिखना कब शुरू किया पता नहीं चला... ९वि में पढता था, उन दिनों परसाई जी की एक व्यंग्य कथा पढ़ रहा था... अचानक मेरे मन में भी एक व्यंग्य ने जन्म लिए. मेरी पहली रचना है ये... और अब तक की आखरी व्यंग्य कथा भी... फिर कविता और कहानियों की ओर मुद चला और व्यंग्य शब्दों से निकल कर कहीं मेरे जीवन में बैठ गया... बहुत बात कर ली मैंने अब इस व्यंग्य कथा का आनंद लीजिये...



ओंस उपोन अ टाइम... अरे छोडिये ये तो हर समय की बात है... हाँ ये बात है एक जंगल की, जहाँ पूरी तरह जंगलराज था. अब जंगल है तो जंगल राज भी होगा ही... और जैसा की हर जंगलराज में होता है वहां भी वही होता था... बड़े और शक्तिशाली, बाहुबली जानवर राज करते थे, चप्प्लुस टाइप जानवर उनकी चापलूसी करते थे और बच गए बाकी जानवर उम्मीद में जीते थे कि कभी उनका भी दिन आएगा... जंगलराज ख़त्म होगा और राम राज आएगा... पर कभी ऐसा हुआ है कि जंगल में राम राज आये, वहां तो जंगल राज ही होगा... सब कुछ ठीक चल रहा था, बिलकुल जंगल राज की तरह...

पर एक दिन गड़बड़ हो गयी... कहीं से उस जंगल में एक जानावरखोर आदमी आ गया... रोज किसी न किसी मरियल जानवर के चारे को खा जाता... आतंक मंच गया पुरे जंगल में... सब त्राहिमाम करने लगे.. मीटिंग हुई, कि कैसे इस जानवरखोर आदमी से छुटकारा पाया जाये... जंगल का राजा तक घबराया हुआ था... तभी एक मरियल सी बकरी ने एक सुझाव दिया कि क्यों न किसी शिकारी बाघ को नियुक्त किया जाये उस जानवरखोर इंसान को मारने के लिए. बात सब को जंच गयी... पास के दुसरे जंगल से एक शिकारी बाघ को बुलवाया गया.. उसकी फीस जनता (जो कुछ नहीं जानता उसे जनता कहते है) के पैसे से देना तय हुआ... तो आ गया शिकारी शिकार को...लगाया एक ऊँची सी जगह पर अपना डेरा और थाम के बन्दुक जा बैठा... थोड़ी दूर पर जानवरखोर आदमी को फ़साने के लिए उसी बकरी के चारे को चारा बनाया... (अक्सर ऐसा ही होता है, चारा कोई और होता है, वाह-वाही कोई और लुटता है)... हाँ तो जैसा की शिकारी ने शिकार को फ़साने के लिए चारा डाला, और संभाल के बन्दुक बैठ गया इन्तेजार में...

शिकार आता उससे पहले आदमी पालन वाले भेडिये आ गए... उन्होंने शिकारी बाघ से पूछा कि क्या कर रहे हो यहाँ... शिकारी ने बताया कि उसे बुलवाया गया है जानवरखोर इंसान को मारने के लिए... "क्या तुम इंसान का शिकार करने आये हो? तुम्हे नहीं मालूम यहाँ आदमी का शिकार करना जुर्म है?"
"मालिक वो एक जानवरखोर इंसान है, जनता उससे परेशान है. उससे छुटकारा, बचाव चाहती है."
"वो सब हम नहीं जानते... तुम उसका शिकार नहीं कर सकते. तुम पर केस बनेगा, गिरफ्तारी होगी तुम्हारी. पुलिस बुलाना पड़ेगा." कह कर आदमी पालन वाले भेडिये ने मोबाइल निकाला और पुलिस सियार को बुलवा लिया.
पुलिस सियार ने आते ही अपनी हथकड़ी निकाली और शिकारी बाघ को पहना डाली.
बेचारा शिकारी समझाता रहा, गिडगिडाता रहा. तभी एक हवलदार लोमरी ने इंस्पेक्टर सियार से कहा "साहब इसके पास तो बन्दुक भी है, कहीं ये कोई आतंकवादी तो नहीं?"
"अरे नहीं सरकार, मैं एक शिकारी हूँ, बन्दुक का लायसेंसधारी हूँ. ये देखिये मेरा कार्ड और लायसेंस."
"अरे ये तो दुसरे जंगल का लायसेंस है. यहाँ इस जंगल में नहीं चलेगा. तुम्हे तो कैद होगी, सजा होगी."
"साहब ऐसा न कीजिये... उस जानवरखोर का मारा जाना अत्यंत आवश्यक है. जनता परेशान है, उनके चारे वो खाए जा रहा है... ऐसे ही छोड़ दिया तो कभी आपके चारे तक भी पहुँच सकता है."
"जनता का चारा खा रहा है तो तुम्हे क्या तकलीफ जब हमें नहीं है. बस तुम उसे नहीं मार सकते और अगर मारना चाहते हो तथा बचना चाहते हो तो कुछ हलके हो जाओ."
बात शिकारी बाघ की समझ में नहीं आई. बगल में तमाशा देख रहे जानवरों में से एक बुजुर्ग बन्दर ने बात समझाई. बात शिकारी के समझ में आ गयी... उसने ५० रुपये हवलदार लोमड़ी को, ५०० रुपये इंस्पेक्टर सियार को और ५००० रुपये आदमी पालन वाले भेडिये को देकर अपनी जान छुड़ाई... और उस जानवरखोर आदमी को मारने की परमीसन पाई...

एक बार फिर शिकारी ने अपना बदूक उठाया, निशाना लगाया और डेरा जमाया तब तक वो जानवरखोर आदमी उस मरियल बकरी के चारे के साथ साथ उस मरियल बकरी को भी मार कर खा चूका था और अगले दिन फिर आने के लिए जा चूका था....

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