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21.1.10

छिन रहा है बचपन

इंटरनेट, वीडियो गेम में सिमट गयी है उनकी दुनिया
-राजेश त्रिपाठी

एक जमाना था जब बच्चे दादी-नानी की गोद में परी कथाओं की रंगीन दुनिया में खो जाते और नींद में ही रच लेते थे सपनों का एक सुनहरा संसार। बूढ़ी दादी-नानी उन्हें कभी परी की तो कभी राक्षस के चंगुल में फंसी राजकुमारी की कहानी सुनातीं, जिसे कोई भला राजकुमार उस राक्षस के जाल से छुड़ाता, जिसकी जान किसी पिंजड़े में बंद तोते में बसी होती। तब बच्चे उस राजकुमार की राजकुमारी को छुड़ाने की फिक्र में जुट जाते और अक्सर दादी-नानी से जानना चाहते कि फिर उस राजकुमारी का क्या हुआ। कभी-कभी दादी-नानी चांद की ओर उंगली उठा कर कहतीं देख¨ चांद पर एक बुढिया सूत कात रही है। युग बीत गये लेकिन चांद की वह छाया आज भी बरकरार है। पहले लगता कि आखिर बुढ़िया का सूत सदियों से खत्म क्यों नहीं हो रहा। बच्चे बड़े हुए और स्कूल-कालेज गये तो उन्हें पता चला कि वह किसी बुढ़िया की शक्ल नहीं बल्कि चांद पर पड़ने वाली ग्रह की छाया है। अब दादी-नानी की वे रोचक कहानियां नहीं रहीं। आज की आधुनिकता की दौड़ में फंसे परिवारों में दादा, नाना, नानी, दादी या तो आप्रासंगिक हो गये हैं, या फिर वृद्धाश्रमों में भेज दिये गये हैं। अगर कुछ सौभाग्यशाली बच भी गये हैं तो अपने घरों में ही एक कोने में सिमट कर रह गये हैं। अब उन तक उनके नाती-पोते नहीं आते। क्योंकि या तो¨ उनके माता-पिता उन तक नहीं आने देते या फिर वे पुरानी पीढ़ी से पूरी तरह कट गये हैं। उन्होंने अपनी एक नयी दुनिया बसा ली है। दुनिया जहां हैं टीवी चैनलों से उनके दिमाग और उनकी सोच पर डाका डालते और हावी होते हिंसक कार्टून या फिर ऊलजलूल और दिमाग को¨ विध्वंस की ओर मोड़ने वाले कंप्यूटर गेम्स। इनसे उनका दिमाग तो¨ दूषित होता ही है उनके बौद्धिक विकास में भी बाधा पड़ती है। आज बच्चों¨ की कहानियां खो गयी हैं और उनका बचपन कार्टून, वीडियो गेम्स और ऐसे मनोरंजन (?) के साधनों के बीच गुम हो गया है जो उन्हें एक ऐसी दुनिया में ले जा रहे हैं जहां सिर्फ और सिर्फ भटकाव और एक अजीब सा व्यामोह है। उससे बालमन बदल रहा है, उनका मानस बदल रहा है। उनकी मासूमियत छिन रही है और उनका व्यवहार भी उनकी उम्र जैसा नहीं रहा। बच्चे अब बहुत बदल रहे हैं । कहा जा सकता है कि जब समाज बदल रहा है, समय बदल रहा है तो ऐसे में स्वाभाविक ही है कि बच्चे और उनसे जुडा उनका मनोविज्ञान, उनका स्वभाव, उनका व्यवहार ..सब कुछ बदलेगा ही। मगर सबसे बडी चिंता की बात ये है कि ये बदलाव बहुत ही गंभीर रूप से खतरनाक और नकारात्मक दिशा की ओर अग्रसर है। कभी- कभी तो लगता है कि बच्चे अपनी उम्र से कई गुना अधिक परिपक्व हो गये हैं। ये इस बात का संकेत है कि आने वाले
समय में जो नस्लें हमें मिलने वाली हैं..उनमें वो गुण और दोष स्वाभाविक रूप से मिलने वाले हैं, जिनसे आज का समाज ,बालिग समाज खुद जूझ रहा है। बच्चे आज जैसा पढ़ और जो देख रहे हैं उससे न तो उनका चारित्रिक विकास होगा और न ही बौद्धिक। वे हिंसक और ढीठ होते जा रहे हैं। खुद बाल मन¨विज्ञानी भी यह बात मानते हैं कि बच्चे अगर हिंसा से भरे खेल, कार्टून देखेंगे या वैसा साहित्य पड़ेंगे तो उसका असर उनके मानस पर पड़ेगा ही और वे वैसे ही बनेंगे। आज के बच्चों से किसी पौराणिक चरित्र का नाम पूछिए तो वे बगलें झांकने लगेंगे लेकिन किसी कार्टून चरित्र या किसी फिल्मी हीरो का नाम पूछिए तो वह उनकी जुबान पर ही रखा होगा। यह बदलाव उस माहौल, उस परिवेश से आया है जिसमें आज के बच्चे पल रहे हैं। आज उनके माता-पिता के पास उनके लिए वक्त नहीं है। उन्हें अपनों का मार्गदर्शन नहीं मिलता वे या तो नौकरों के बीच पलते हैं या फिर जिस तरह चाहते हैं रहते हैं। ऐसे में उनका खाली समय या तो हिंसक कार्टून देखते बीतता है या फिर वीडियो गेम्स या कंप्यूटर गेम्स में वे उलझे रहते हैं। आज बड़े घरों में इंटरनेट प्रवेश कर चुका है जिसके जरिये बच्चों और किशोरों की पहुंच गंदी प्रोन साइट्स तक हो गयी है। पश्चिम की यह बीमारी हमारे देश में भी पांव पसार चुकी है और इससे किशोर मन दूषित हो रहा है और विकृत हो रहा है उनका सोच। आज जितने भी कंप्यूटर गेम्स हैं चाहे वह प्रिंस आफ पर्सिया हो, डूम थ्री डी, प्रोजेक्ट आईजीआई, द.बार इन सबके प्रमुख चरित्र या चरित्रों को किसी न किसी से लड़ाई लड़नी होती है। चरित्र कंप्यूटर की स्क्रीन पर होता है लेकिन उसका कमांड बच्चे या किशोर के हाथ में माउस या ज्वाय स्टिक के जरिये होता है और एक तरह से सरी लडाई वह बच्चा ही लड़ता है। इस लडाई में दुश्मनों को मार कर जीत हासिल करनी होती है। दुश्मन को मारने के बाद बच्चों के चेहरे में उभरी चमक और क्रूर हंसी कब धीरे-धीरे उनके दिल-दिमाग में हिंसा और क्रूरता के बीज बोती जाती है, न उनको पता चलता है न उनके माता-पिता को। माता-पिता यह जानकर खुश रहते हैं कि चलो बच्चे कंप्यूटर सीख रहे हैं लेकिन वह तो कुछ और ही सीख रहे होते हैं जो उनके जीवन को¨ एक ऐसी राह की ओर मोड़ रहा होता है जो किसी भी तरह से सुखद नहीं।
आज बच्चों के मुंह में फिल्मों के भद्दे संवाद, ऊल-जलूल से गाने भरे रहते हैं। वे उन्हें ही दोहराते रहते हैं। घर में घुसपैठ कर बैठे बुद्धू बक्से यानी टीवी पर दिन भर वे फिल्मों के प्रोमो या म्यूजिक चैनल्स पर ये गाने देखते हैं और इन्हें ही दोहराते रहते हैं। जाहिर है इन ऊलजलूल और बेढंगे बेसिरपैर के गीतों से न उनका शब्द सामर्थ्य बढ़ना है और न ही बौद्धिक विकास होना है। ये तो उनके स्वभाव को विकृत करते चलते हैं।
एक कार्टून कथा शिनशिन है इसका चरित्र शिनशिन आज बच्चों का चहेता बना हुआ है। वह उनके दिल-दिमाग पर राज करता है। बच्चे इसके दीवाने हैं लेकिन अभिभावक इस दुष्ट प्रकृति के चरित्र शिनचैन की हरकतों से काफी परेशान हैं। इसके बोले संवाद बच्चों की जुबान पर चढ़ गए हैं। पहले इसे बच्चों के लिए स्वस्थ मनोरंजन माना जाता था लेकिन आज बच्चे इससे बिगड़ रहे हैं। इस बदलती भाषा से अभिभावक परेशान हैं। बच्चे अकेले में बैठे हों, दोस्तों के साथ या घर में, उल्टे-सीधे डायलॉग बोलते रहते हैं। यह सब टीवी पर 24 घंटे आने वाले कार्टून व म्यूजिक चैनल्स की बदौलत है। टीवी के कार्टून चरित्र के बोलने के ढंग को बच्चे पूरी तरह अपना लेते हैं। बच्चे स्कूल से घर आते ही कार्टून चैनल खोलते हैं। पहले कार्टून शाम को कुछ घंटे आते थे, मगर अब कार्टून चैनल्स 24 घंटे प्रोग्राम दिखाते हैं। बच्चे आपस में बातों में भी कार्टून के चरित्र वाली भाषा और लहजे का इस्तेमाल करने लगे हैं। जैसे बच्चू अब तुझे मजा चखाना ही होगा..। मेरे शरीर में शक्ति दौड़ रही है, अब मैं सारे दुश्मनों का सर्वनाश कर दूंगा.. कुछ ऐसे वाक्य हैं जिन्हें बच्चे रोज बोलने लगे हैं। बच्चे धीरे और लम्बे वाक्य वाले संवाद जल्दी नहीं सीख पाते हैं। वे तेज आवाज या जोर लगाकर बोली गयी चीजें ही सीखते हैं। कार्टून में अक्सर अभद्र वाक्यों को जोर देकर ही बोला जाता है जो बच्चों को जल्दी याद हो जाते हैं। बाजार अपनी चीज को बेचने के लिए समाज पर पड़ने वाले उसके प्रभावों की परवाह नहीं करता है। यही बच्चों के लिए घातक हो रहा है।
बच्चे शिनचैन से त¨ नहीं होते। कहने को तो शिनचैन एक चैनल पर आने वाले प्रोग्राम का कार्टून कैरेक्टर है, लेकिन उसकी भाषा बदतमीजी की सभी हदें पार कर जाती है। यह कैरेक्टर नर्सरी क्लास का छात्र है। वह लड़कियां पटाने, अपनी टीचर्स को आपस में झूठ बोलकर लड़वाने व शरारत करने में माहिर है। वह अपनी मां को गुस्से में ‘मोटी’, ‘काली’ ‘बच्चे चुराने वाली’ बोलता है। शिनचैन के पापा भी उससे कहते हैं- चलो बीच पर सुंदर लड़कियां देखने चलते हैं। अब आप खुद सोचिए कि क्या संस्कार और क्या आचार होंगे इन बच्चों के जिन्हें बचपन में ही इस तरह के अश्लील और बेहूदे कार्यक्रम चैनल परोस रहे हैं। अभिभावकों को अपने बच्चों को इनसे बचाना है तो उन्हें साथ बैठ कर वही कार्टून या फिल्में देखने को प्रेरित करना चाहिए जो सही और उनके चरित्र निर्माण के लिए सार्थक और सदुपयोगी हों। अगर ऐसा नहीं होता तो¨ फिर बच्चों के बिगड़ने के लिए उनके माता-पिता ही सौ फीसदी दोषी होंगे। बच्चों को तो अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं होता। जिस चीज के प्रति उत्सुकता जागती है वे उसे ही करना चाहते हैं बिना अच्छे-बुरे की परवाह किये।
आजकल बच्चों व किशोरों को उनके हिंसक और उग्र बर्ताव के लिए जिम्मेदार ठहराया जाता है, जबकि सच यह है कि उन्हें इस दिशा में मोड़ने के लिए घर और समाज के लोग ज्यादा कसूरवार हैं। असल में माता-पिता से मिलने वाले खिलौनों से लेकर वीडियो गेम्स, फिल्में, सीरियल, इंटरनेट, कार्टून चैनल, कॉमिक्स और खाने-पीने की चीजें तक में हिंसा का मसाला भर गया है। ये सभी चीजें मिलकर बच्चों को हिंसक बना रही हैं, क्योंकि हम जैसा सुनते, देखते, पढ़ते और खाते-पीते हैं, वैसा ही हमारा स्वभाव बनता चला जाता है। अगर अभिभावक बच्चों को अच्छी चीजें पढ़ने, अच्छे कार्यक्रम देखने और वीडियो गेम्स, कंप्यूटर गेम से उबारने की कोशिश करें तो यह उनके और बच्चे दोनों के लिए हितकर होगा। इनके बजाय वे उनको क्रिकेट या दूसरे खेलों के प्रति प्रेरित करें तो वे स्वस्थ भी रह सकेंगे और उनका दिमाग भी बुराई से बच सकेगा।
वीडियो गेम आदि से ही चिपके रहने से बच्चों का सामाजिक दायरा भी सिमट जाता है। वे अपनी एक अलग दुनिया बसा लेते हैं। उनकी इस दुनिया में सिर्फ कार्टून या कहानियों के चरित्र ही उनके साथी होते हैं। उन तक सिमट कर रह जाते हैं वे और परिवार के बड़ों से ज्यादा संपर्क नहीं रख पाते। इससे भविष्य में उनको इसका नुकसान और ज्यादा उठाना पड सकता है। लेकिन जब वे दूसरे बच्चों के साथ मिलकर प्ले-ग्राउंड आदि में खेलते हैं, तो इससे आपमें धीरे-धीरे सहयोग की भावना विकसित होती जाती है। खेलने से बच्चों के शारीरिक विकास पर सकारात्मक प्रभाव पडता है।
आजकल तो आलम यह है कि गर्मियों की छुट्टियां हों या कोई और अवकाश, टीवी के रिमोट कंट्रोल पर बच्चों का कंट्रोल हो जाता है। इसके बाद वे होते हैं और होते हैं उनके लिए दिखाये जा रहे ढेरों चैनल जैसे-पोगो, कार्टून नेटवर्क, निकल¨डियन, हंगामा, डिज्नी चैनल,निक। इसके अलावा हैरी पाटर की फिल्म अगर टीवी पर आ जाये त¨ कहना ही क्या। इसमें दिखाये जादुई करतब बच्चे मंत्र मुग्ध होकर देखते हैं। उस वक्त न उन्हें दिये गये होमवर्क की सुधि होती है और न अपने आसपास के माहौल की। एक तरह से हैरी पाटर की एडवेंचर की यात्रा के वे भी सहभागी बन जाते हैं। शरीर से नहीं तो दिमाग से ही सही। टीवी चैनल, कार्टून मेकर्स या वीडियो गेम्स वालों को इससे कोई सरोकार नहीं कि उनके ऊलजलूल के कार्यक्रम कच्चे बालमन को बिगाड़ रहे हैं और उनके स्वाभाविक मानसिक विकास में बाधक बन रहे हैं। उनकी बनायी चीज बाजार में खूब बिक रही है, उनके वारे-न्यारे हो रहे हैं फिर बाल-समाज पतन के किस गर्त में जा रहा है इसकी उन्हें क्या चिंता।
एक बात यह भी है कि हमारे यहां बच्चों के मनोरंजन के नाम पर अभी भी बच्चों के लिए कुछ खास पेश नहीं किया जा रहा है। आमतौर पर बच्चों के प्रोग्राम्स में भी तमाम मसाले डाल दिये जाते हैं। फिर बात यह भी है कि इन चैनलों के अधिकतर प्रोग्राम्स या तो डब होते हैं या फिर किसी विदेशी प्रोग्राम की नकल। ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या भारतीय बच्चों को सही मनोरंजन मिल रहा है?
वैसे समाज और बच्चों के प्रति अपनी जिम्मेदारी समझने वाले चैनल इस तरह के कार्यक्रमों के लिए पूरी टीम के साथ काम करते हैं। इनका मकसद बच्चों को खेल-खेल में बहुत कुछ सिखाने का होता है। लिहाजा ये प्रोग्राम इस तरह तैयार किए जाते हैं, जिससे बच्चों की कोमल भावनाओं पर कोई बुरा असर न पड़े। इनकी कोशिश बच्चों को जिम्मेदारी का अहसास करवाने, उनकी रचनात्मकता को उभारने और चीजों के प्रति उनकी समझ बढ़ाने की होती है।
अक्सर बच्चों के स्वभाव और संस्कार के बिगड़ने की शुरुआत खिलौनों से होती है। लड़की के हाथ में गुड़िया और लड़के के हाथ में खिलौना रिवॉल्वर थमाते वक्त शायद ही कोई अभिभावक सोचता होगा कि इसका भी बच्चे के दिमाग पर असर पड़ता है और इसके आधार पर सोच विकसित होती है। शायद इसीलिए किसी ढाई-तीन साल के लड़के के सामने गुडिया और खिलौना रिवॉल्वर रख दिया जाए तो वह रिवॉल्वर को ही चुनता है। लड़कियां आमतौर पर क¨मल चीजों की तरफ ज्यादा आकर्षित होती हैं, जबकि लड़के गाड़ियों, रिवॉल्वर जैसी चीजों के पीछे भागते हैं। साथ ही, घर और समाज का व्यवहार दोनों के लिए अलग होने की वजह से भिन्नता और बढ़ जाती है। ऐसे में अगर उम्र के हिसाब से बच्चा किसी चीज का इस्तेमाल करता है और समय के साथ उसका लगाव इससे खत्म हो जाता है, तो कोई बुराई नहीं है, मगर कोई बच्चा हिंसक चीजों से ज्यादा ही लगाव रखने लगे तो उसे वहीं रोक देना चाहिए। अगर कोई बच्चा बंदूक वाले खिलौने के साथ दिनभर खेलता रहता है तो यह अभिभावकों के लिए चिंता की बात होनी चाहिए । उन्हें बच्चे के इस व्यवहार के प्रति सावधान हो जाना चाहिए।

किसी बच्चे के मुंह से कोई भद्दी गाली या अश्लील बात सुनकर आप यह सोचते हैं कि यह गलत संगत का असर है, तो बिल्कुल सही है, मगर यह संगत किसकी है, इस पर भी गौर करना जरूरी है। क्योंकि अब बच्चों पर इंसानी संगत से ज्यादा मशीनी संगत का असर पड़ने लगा है। दरअसल, बच्चों की पसंदीदा कॉमिक्स और कार्टून चैनलों में भी हिंसा की घुसपैठ हो गयी है। अपनी जिद पूरी करने के लिए कॉमिक्स और कार्टून कैरक्टर्स द्वारा अपनाए जाने वाले हथकंडों को देखकर कोई भी हैरत में पड़ सकता है। इतना ही नहीं, आजकल ऐसे-ऐसे कार्टून प्रोग्राम आ रहे हैं, जिनके पात्रों के अश्लील डायलॉग सुनकर बड़ों को भी शर्म आ जाए। आमतौर पर लोग इन बातों पर गौर नहीं करते और यह सोचकर बच्चों को कार्टून आदि देखने से मना नहीं करते कि ये प्रोग्राम तो बच्चों के देखने के लिए ही बनाए गए हैं, इसलिए इनमें ऐसा कुछ भी नहीं होगा। ये कार्यक्रम बच्चों के दिमाग पर कितना असर डालते हैं इसका अंदाजा बच्चों के पॉपॉय, पॉकिमॉन, टॉम एंड जेरी जैसे कार्टून कैरक्टर्स से प्रेम को देखकर लगाया जा सकता है। आजकल बच्चे इन कार्टून्स जैसे मुंह बनाते हैं, वैसे ही संवाद बोलते हैं और वैसी ही हरकतें भी करते हैं। ऐसे में इस तरह के कार्यक्रमों को देखते समय भी बच्चों पर निगाह रखना जरूरी है। क्योंकि किसी भी चीज का अनुकरण करते-करते इंसान को उसकी आदत हो जाती है।

अब चलते हैं वीडिय¨ गेम्स की दुनिया में। एक उदाहरण पेश है- कुछ लोगों का ग्रुप बाइक से रेस लगा रहा है। रेस में कुछ मिनटों के अंदर एक निश्चित स्टेज तक पहुंचना होता है और रेसर इसके लिए कोई भी हथकंडा अपना सकते हैं। सारे रेसर अपनी-अपनी बाइक को लेकर आगे बढ़ते हैं और आसपास से गुजर रहे दूसरे प्रतिभागियों को पीछे छोड़ने के लिए कभी पैर से तो कभी हाथ से टक्कर मारते हुए लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। अब दूसरा गेम देखिएं- स्कूल में एक खूबसूरत लड़की ने दाखिला लिया है। वह लड़की पूरी क्लास के लड़कों को इतनी अच्छी लगती है कि सभी उसे पाने के लिए किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार हो जाते हैं। एक दिन उसको रिझाने की प्रतियोगिता होती है और इसमें शामिल लड़के लड़की को रिझाने के लिए आपस में तलवारबाजी, घुड़सवारी और फायरिंग करते हैं। अंत में एक लड़का बाकी लोगों को मारकर उस लड़की के पास पहुंच जाता है और लड़की खुश होकर उसे गले से लगा लेती है। ये कहानियां किसी उपन्यास या फिल्म की नहीं, बल्कि उन वीडियो गेम्स की हैं, जिनके लिए आजकल के किशोर दीवाने हैं। ये वीडियो गेम्स बच्चों पर इस कदर असर डालते हैं कि गेम्स के चरित्र की तरह इनके साथ खेल रहे बच्चे भी जुनून की हद तक पहुंच जाते हैं और गेम के लक्ष्य तक पहुंचने के लिए खाना-पीना तक भूल जाते हैं और घंटों बैठे रहते हैं।
एक वक्त था जब बच्चे अमरचित्रकथा माला की पौराणिक और शिक्षाप्रद चित्रकथाओं में रुचि लेते थे। उन्हें पंचतंत्र की कथाएं लुभाती थीं और उनसे वे शिक्षा पाते थे लेकिन धीरे-धीरे सब कुछ बदलता गया। इनकी जगह चाचा चौधरी, एस्ट्रिक्स, कैल्विन एंड होल्स, ब्लोंडे व टिनटिन जैसी चित्रकथाओं ने ली। टीवी में कभी जंगल बुक के मोगली का राज था। उसका टाइटिल सांग -जंगल जंगल बात चली है, पता चला है, चड्ढी पहन के फूल खिला है गीत सुनते ही बच्चे टीवी के पास आस जुटते थे। अभी भी कुछ गनीमत है कि देश में गनेशा, हनुमान रिटर्नस व अन्य भारतीय मिथकों व पौराणिक कथाओं व रामायण पर आधारित कार्टून कथाएं बन रही हैं और बच्चे उनको पसंद कर रहे हैं। लेकिन बच्चों की बड़ी तादाद तो निंजा (जिसका हटारी चरित्र उनमें बेहद लोकप्रिय है) , मिकी माउस, डोनाल्ड डक, टाम एंड जेरी, नोडी,आलिव, पूह, पोकरमैन,मिनी माउस, डेजी डक, पावर पफ गल्र्स, गूफी, स्क्रूज, मैक डक, चिप एंड डेल व अलादीन जैसे कार्टून कार्यक्रमों की दीवानी है।
अभी वक्त है जब बच्चों के बचपन को बचाया जा सकता है। इसके लिए सामाजिक और प्रशासनिक सतर्कता और सहभागिता तथा सहयोग की जरूरत है। बच्चों के लिए बनाये या दिखाये जाने वाले कार्यक्रमों के लिए गाइड लाइन्स होनी चाहिए। जो कार्यक्रम¨उनके अनुसार नहीं बने उनको टीवी पर दिखाये जाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। अभी वक्त है अगर अभी समाज और सरकार नहीं चेती तो देश का भविष्य इन कार्यक्रमों की बांह थाम किस अंधेरी राह में खो जायेगा कहा नहीं जा सकता। बच्चों के बचपन और उनकी मासूमियत को बचा कर ही हम उन्हें उनके सुखद और स्वस्थ भविष्य की गारंटी दे सकते हैं। यह हर समाज का एक पुनीत और प्रथम दायित्व है। बच्चों की दुनिया कहानियों से दूर भटक गयी है। उनकी कहानियां खो गयी हैं। अब जरूरत है उन्हें वापस सार्थक और चरित्र निर्माण के लिए उपयोगी साहित्य से जोड़ने की।

1 comment:

Sunita Sharma Khatri said...

लेख सार्थक है सत्यता को उजागर करता है बच्चो की मासूमियत का बचाना हमारा कर्तव्य है।