बचपन में जब हम कलकत्ता से गांव जाते, तो बाबा-दादा और चाचा के उम्र के लोग ज्योति बाबू के बारे में पूछते थे। आजकल कुछ लोग बंगाल की चर्चा चलने पर ममता बनर्जी के बारे में पूछते हैं। बिहार के सुदूर गांव में उन दिनों अखबार एक दिन बाद पहुंचता था। न जाने कितने खंभे बिजली के आने के इंतजार में बूढ़े होकर परलोक सिधार गये। इसलिए टीवी तो अब भी नियमित नहीं चलती। साढ़े सात बजे आकाशवाणी केंद्र, पटना की बुलेटिन देश-दुनिया का हाल सुनाती थी। रेडियो सेट के इर्द-गिर्द बैठकी जमती, तो राजनीति पर खूब बात होती थी। जो बिहार के गांवों में रहे हैं, वे जानते हैं। वहां लोग राजनीति पर खूब बात करते हैं।
हम जाते, तो बंगाल की चर्चा होती और ज्योति बसु पर बात आकर ठहर जाती। लालू प्रसाद यादव व राबड़ी देवी के लंबे शासनकाल के पहले बिहार में एक साल, दो साल में सरकार व मुख्यमंत्री बदल जाना आम बात थी। और पड़ोस में एक आदमी लगातार मुख्यमंत्री बना रहा और बना रहा। मेरे गांव के लोग उसे चामत्कारिक व्यक्तित्व वाला व्यक्ति मानते थे। बाद में दादाजी रिटायर होकर गांव चले गये। ज्योति बसु भी रिटायर होकर इंदिरा भवन में सीमित हो गये। समय बदला। अब हम गांव जाते, तो दादाजी ज्योति बसु के स्वास्थ्य व उनकी सक्रियता को लेकर कई सवाल करते। पचास साल बंगाल में नौकरी करने के बाद शायद ज्योति बसु दादाजी के अपने हो गये थे। यह आत्मीयता थी। बंगाल व ज्योति बाबू दादाजी के अपने थे। हमेशा कांग्रेसी रहे दादाजी ने कभी ज्योति बसु की पार्टी को वोट नहीं दिया, लेकिन पूछते सिर्फ उन्हीं के बारे में थे। ऐसे ही लाखों लोग ज्योति बाबू के अपने थे।
बंगाल में दादा व दीदी के संबोधन के बीच वे बाबू थे। ज्योति बाबू...। पांच दशक से जानने वाले प्रणब मुखर्जी उन्हें ज्योति बाबू कहते हैं। और प्रणब दा की उंगली पकड़ कर राजनीति में आने वाली ममता बनर्जी भी। विलायत में पढ़ाई करने वाले एक धनी-मानी परिवार के बेटे ज्योति बसु बंगाल की राजनीतिक धारा के अलग ध्रुव रहे। कोई और नेता बाबू नहीं कहा गया।
ज्योति बाबू की शायद यही विशेषता रही कि वे औरों से अलग रहे। एकमात्र ऐसे कम्युनिस्ट नेता, जो प्रधानमंत्री की कुर्सी के एकदम नजदीक पहुंच गये थे। प्रधानमंत्री की कुर्सी व उनमें बस एक वोट की दूरी रही। और उस एक वोट को उन्होंने इतिहास का सबसे गलत वोट कहा। बाद में वोट देने वाले ने भी माना, वह ऐतिहासिक गलती थी। उनके लंदन में छुट्टियां बिताने की खूब आलोचना हुई। प्रिय सुभाष चक्रवर्ती को बढ़ावा देने को गैर कम्युनिस्ट आचरण माना गया। लेकिन उन्होंने कभी भी उसके लिए अफसोस नहीं जताया। इन दिनों ममता बनर्जी का इंदिरा भवन आना-जाना बढ़ गया था। यह वही ममता बनर्जी थीं, जिन्हें ज्योति बाबू की पुलिस ने घसीटकर राइटर्स बिल्डिंग से लालबाजार के लाकअप में पहुंचा दिया था। वह अविचल मुख्यमंत्री का निर्णय था। लेकिन वयोवृद्ध नेता के रूप में ज्योति बसु बंगाल के अभिभावक बन गये। वे ममता बनर्जी के लंबे अनशन को लेकर परेशान थे। परेशानी यह नहीं थी कि सिंगुर मुद्दे उनके अनशन से ज्योति बाबू के अपने वाममोर्चा की मुश्किल बढ़ रही है, बल्कि इस लिए कि ममता के स्वास्थ्य पर इसका बुरा असर पड़ेगा। कुछ महीने पूर्व सुभाष चक्रवर्ती की मृत्यु हुई, तो ज्योति बाबू ने कहा था कि जाना तो मुझे चाहिए, वो क्यों चला गया?
वे जाने को तैयार थे। चले गये। बाबू कहने वाले लाखों समर्थकों व लाखों विरोधियों को छोड़कर।
19.1.10
लाखों समर्थकों के ज्योति बाबू... और लाखों विरोधियों के भी
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