यासिर अराफ़ात ने इस्राइल के खिलाफ अरब का साथ तो दिया पर उन्होंने फिलिस्तीनी राष्ट्र की स्वतंत्रता और मुक्ति के मसले को बिल्कुल भिन्न रूप में स्वीकार किया। यासिर अराफ़ात की सोच उन तत्कालीन राजनीतिज्ञों और सशस्त्र गुरिल्ला संगठनों से भिन्न थी जो एकीकृत अरब-राष्ट्र में विश्वास करते थे।
अराफ़ात ने फिलिस्तीन राष्ट्र की स्वतंत्रता प्राप्ति का नारा बुलंद किया। मिस्र,इराक,सऊदी अरब,सीरिया और मुस्लिम राष्ट्रों से अलग फिलिस्तीन मुक्ति को स्पष्ट रूप में सामने रखा। उन्होंने पहली बार फिलिस्तीन मातृभूमि की कल्पना की। अराफ़ात के लिए यह मुक्ति फिलिस्तीन जनता की आत्म-चेतना तथा पहचान से जुड़ी थी।
पैलेस्टीनियन नेशनल अथॉरिटी (पी एल ए) के पहले राष्ट्रपति यासिर अराफ़ात का पूरा नाम 'मोहम्मद अब्देल रहमान अब्देल रऊफ़ अराफ़ात अल-कुद्वा अल-हुसैनी या अबु अमर था। उनका जन्म 24 अगस्त 1929 में काहिरा (मिस्र की राजधानी) में हुआ था। फिलिस्तीन माता (ज़हवा अबुल सऊद)-पिता (अब्देल रऊफ़ अल-कुद्वा अल-हुसैनी) के पुत्र अराफ़ात सात बच्चों में दूसरे पुत्र थे। किडनी की खराबी के कारण माँ की मृत्यु अराफ़ात के पाँचवे वर्ष में ही हो गई थी। अराफ़ात और उनके छोटे भाई फ़ाथी के बचपन के आगामी चार वर्ष मामा सलीम अबुल सऊद के साथ बीते। बाद में उनकी देखभाल बहन इनाम ने की। पिता के साथ उनके संबंधों का पता इसी से चल जाता है कि उन्होंने न तो पिता की अंत्येष्टि क्रिया में हिस्सा लिया न ही कभी उनकी कब्र पर गए।
सन् 1950 में उन्होंने किंग फहद विश्वविद्यालय से स्नातक की पढ़ाई पूरी की। अराफ़ात ने यहूदियों और ब्रिटिशों के खिलाफ फिलिस्तीन लड़ाकों को हथियार मुहैय्या कराने का काम किया।
सन् 1948 में अरब-इस्राइली युध्द के दौरान अराफ़ात ने पढ़ाई छोड़ कर अरबों का साथ दिया। वहाँ वे फिलिस्तीनियों की तरफ से फिदायीन बनकर नहीं अरबमित्र बनकर गए। 1949 में अरबों की हार से मर्माहत होकर वे काहिरा चले गए। किंग फहद प्रथम विश्वविद्यालय, जो बाद में काहिरा विश्वविद्यालय के नाम से जाना गया, लौटकर उन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और फिलीस्तीन छात्रसंघ (जनरल यूनियन ऑफ पैलेस्टीनियन स्टूडेन्ट्स) के अध्यक्ष (सन्1952-1956) भी रहे।
अराफ़ात ने कुछ समय के लिए मिस्त्र में काम किया। तदुपरान्त सिविल इंजीनियरिंग के काम को आधार बनाकर वे कुवैत पहुँच गए जहाँ उन्हें दो फिलिस्तीन मित्र - अबु इयाद और अबु जिहाद मिले। इन दोनों ने अराफ़ात के जीवन और फिलिस्तीन राजनीति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कुवैत में अराफ़ात स्कूल शिक्षक बने और दूसरी ओर अपनी कांट्रैक्टिंग फर्म भी चलाई। बाकी समय उन्होंने राजनीतिक गतिविधियों और फिलिस्तीनी शरणार्थियों से मिलने में बिताया। इसके परिणामस्वरूप 'अल-फ़तह' नामक विशाल किन्तु गुप्त संगठन का निर्माण हुआ जिसके विकास में अराफ़ात ने अपनी फर्म का पूरा लाभ लगा दिया। 'अल-फ़तह' का अरबी में अर्थ 'हरकत अल-तहरीर अल-वतनी अल-फिलिस्तीनी' अर्थात् 'फिलिस्तीन राष्ट्रीय मुक्ति संग्राम' था।
अल-फ़तह (सन्1959) द्वारा प्रकाशित पत्रिका में इस्राइल के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष की वकालत की गई। स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए फिलिस्तीनी नागरिकों को एकजुट होने की सलाह दी गई। अराफ़ात ने फिलिस्तीनियों को एकजुट करने के क्रम में काफी सावधानी बरती। वे फिलिस्तीनी अस्मिता से समझौता करने को तैयार नहीं थे। जबकि कई अरब देश, इस्रायल के साथ मिलकर फिलिस्तीन स्वायत्तता को समाप्त करना चाहते थे। यही कारण था कि बड़े अरब राष्ट्रों की तरफ से की गई आर्थिक सहायता की पेशकश को उन्होंने ठुकरा दिया। बिना किसी की सरपरस्ती और दबाव के वे आत्मनिर्भर होकर कार्य करना चाहते थे। किन्तु सबसे छिटककर अलग हो जाने की भूल न करते हुए उन्होंने आर्थिक सहायता और किसी प्रकार के गठजोड़ को नकारते हुए भी विभिन्न संगठनों से उनके एकीकृत समर्थन की बात की। अल-फ़तह को स्थापित और विकसित करने के लिए उन्होंने कड़ी मेहनत की। इस संगठन को सुचारू रूप से चलाने के लिए उन्होंने कुवैत और खाड़ी देशों के धनिकों से मदद ली। बडे-बड़े व्यवसायियों ने और तेल व्यापारियों ने उदारता से अल-फ़तह की मदद की। बाद में इस कार्य में सीरिया और लीबिया जैसे देश भी जुड़ गए।
मुक्त ,संप्रभु और स्वायत्त फिलिस्तीन राष्ट्र और फिलिस्तीनियों के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों को एकत्रित कर अरब लीग की सहायता और समर्थन स् ' फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन'(पैलेस्टाइन लिबरल ऑर्गेनाइजेशन-पी एल ओ) की सन् 1964 में स्थापना की। इस संगठन के अतंर्गत अन्य अरब समूह सुलह और मेल-मिलाप से चलने के पक्षधर थे।
किन्तु 1967 के छह दिनों तक चले लम्बे,भयानक युध्द में इस्राइल की विजय के बाद 'अल-फ़तह' सबसे मजबूत और शक्तिशाली संगठन बनकर उभरा। पी एल ओ की कार्यकारी समिति का चेयरमैन बनने के बाद यह पूरा संगठन अराफ़ात के हाथों में आ गया। पी एल ओ अब अरब समूहों की कठपुतली नही वरन जॉर्डन में स्थित फिलिस्तीन के अधिकारो और संघर्ष से जुड़ा आत्मनिर्भर संगठन बन गया था।
आगे चलकर जॉर्डन सरकार और फिलिस्तीनियों के बीच भी तनाव बढ़ने लगा था। जिसका मूल कारण था अराफ़ात ने जॉर्डन में सत्ता और निजी सेना के साथ अपनी हुकूमत तैयार कर ली थी। देश के सभी बड़े राजनीतिक पदों पर आधिपत्य जमा लिया था।
फिलिस्तीन रक्षक सेना ने जॉर्डन में सामान्य नागरिक जीवन को नियंत्रित करना शुरू कर दिया था। हालात यह हो गए कि जॉर्डन के राजा हुसैन को अपनी सत्ता और देश की सुरक्षा की चिंता होने लगी। आखिर उसने पी एल ओ को देश से बाहर निकाल दिया। अराफ़ात ने हार नहीं मानी। उन्होंने लेबनान में इस संगठन के पुनर्निर्माण की कोशिश की। लेकिन इस्रायल के लगातार सैनिक हमलों, लेबनान के गृहयुध्द और संगठनों की मनमानियों ने उसे नाकाम कर दिया। इसके बाद उन्होंने अपना मुख्यालय टयूनिस में बनाया।
अराफ़ात का पूरा जीवन फिलिस्तीनी स्वतंत्रता हेतु एक देश से दूसरे देश में भ्रमण करते हुए बीता। उन्होंने अपने व्यक्तिगत जीवन और क्रियाकलापों को बाहरी दुनिया से छिपाए रखा। 61वर्ष की उम्र में उन्होंने सुहा ताविल(27 वर्ष) से शादी की। सुहा ने ज़हवा नामक पुत्री को जन्म भी दिया। वे भी अपंग और अनाथ बच्चों के लिए सकारात्मक मानवीय कार्यों में लगी रहीं।
1980 में अराफ़ात ने लीबिया और सऊदी अरब की मदद से पी एल ओ को पुन: गठित किया। दिसम्बर 1987 में फिलिस्तीन के पश्चिमी किनारे(वेस्ट बैंक) और गाज़ा पट्टी में इस्राइल के विरुध्द फिलिस्तीनी युवाओं ने पहला विद्रोह शुरू किया। अबु जिहाद के कहने पर अराफ़ात ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया। इस विद्रोह से सशस्त्र फिलिस्तीनी संगठन जुड़ने लगे जिनमें हम्मास और पैलेस्टीनियन इस्लामिक जिहाद (पी आई जे) प्रमुख थे।
15 नवम्बर 1988 को पी एल ओ ने स्वतंत्र फिलिस्तीन राज्य की घोषणा कर दी। अराफ़ात पर लगातार आतंकवादियों से जुड़े होने के आरोप लगते रहे। इसी बीच उन्होंने सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव संख्या 242 का समर्थन करते हुए सभी प्रकार की आतंकवादी कार्रवाइयों की भर्त्सना करते हुए सभी देशों के लिए शांति और सुरक्षा के महत्व को स्वीकार किया। उनके इस बयान का स्वागत किया गया। यह वक्तव्य वस्तुत: पी एल ओ के आधारभूत सिध्दांतों पर आधारित था। 2 अप्रैल 1989 में फिलिस्तीनी राष्ट्रीय परिषद की केंद्रीय समिति द्वारा अराफ़ात को राष्ट्रपति चुना गया। 1990-91 के खाड़ी युध्द में अराफ़ात ने सद्दाम हुसैन (इराक) द्वारा कुवैत पर आक्रमण का समर्थन किया और अमेरिका द्वारा इराक पर हमले का विरोध किया। अराफ़ात के इस निर्णय ने मिस्त्र और अन्य अरब देशों जो अमेरिका के साथ थे, से संबंधों को खराब कर दिया। उनके इस कदम को शांति विरोधी माना गया। इसका आर्थिक लाभ अल-फ़तह व पी एल ओ के विरोधी संगठनों और हम्मास आदि को मिला।
1990 में अराफ़ात और उनके महत्वपूर्ण अफसरों ने इज़राइल से शांति वार्ता शुरू कर दी जिसके परिणामस्वरूप 1993 में ओस्लो नामक समझौता वार्ता शुरू हुई। इसमें कई महत्वपूर्ण फैसले लिए गए, जैसे- वेस्ट बैंक और गाज़ा पट्टी में फिलिस्तीनियों के अधिकार, फिलिस्तीनी पुलिस बल तथा अंतरिम सरकार का गठन। ओस्लो संधि से पहले अराफ़ात को हिंसा के त्याग और इस्राइल के अस्तित्व को अधिकारिक मान्यता देनी पड़ी।
इस्राइल के प्रधानमंत्री इज़ाक रैबिन ने भी पी एल ओ को आधिकारिक मान्यता प्रदान की। इसीलिए अराफ़ात और इज़ाक रैबिन को शीमोन पेरेस के साथ 'नोबुल शांति सम्मान' से नवाज़ा गया। ओस्लो समझौते के अनुसार 1996 में फिलिस्तीन में चुनाव हुए और अराफ़ात राष्ट्रपति चुने गए। उनकी कार्यप्रणाली में लोकतांत्रिक कम और मनमाना भाव ज्यादा था।
इस्राइल में 'बेंजामिन नेतनयाहू' के नेतृत्व में दक्षिणपंथी सरकार के आते ही इस्राइल और फिलिस्तीन की शांति प्रक्रिया को धक्का पहुँचा। इनके बीच आगे चलकर कई समझौते भी हुए। किन्तु हम्मास और पी आई जे जैसे संगठनों ने इस्राइल पर हमले कर शांति प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करनी शुरू कर दी। नाराज़ होकर इस्राइल ने भी फिलिस्तीन में 'ऑपरेशन डिफेन्स शील्ड' आरम्भ कर दिया। अराफ़ात के मुख्यालय रामल्लाह पर भी हमले किए गए।
अन्तत: 2003 में अमेरिका के दबाव में अराफ़ात ने पद-त्याग किया। अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने अराफ़ात पर शांति प्रक्रिया में असफल होने का आरोप लगाया। सम्पत्ति को लेकर भी उनपर कई आरोप-प्रत्यारोप लगते रहे। पश्चिमी विचारक अराफ़ात के बड़े राजनीतिक जीवन का मुख्य कारण अनिश्चित, आक्रामक युध्दनीति और निपुण राजनीति को मानते हैं।
अराफ़ात का फिलिस्तीनियों में बहुत सम्मान था। यही कारण था कि इस्राइल द्वारा अराफ़ात को मारने के सभी प्रयास नाकाम हो गए थे। 11 नवम्बर 2004 को 75 वर्ष की आयु में अराफ़ात की मृत्यु अनजानी बीमारी से हुई। निधन का स्पष्ट कारण ज्ञात न होने के कारण उनकी हत्या के कयास भी लगाए जाते रहे हैं। उनकी कब्र मुख्यालय रामल्लाह में बनाई गई है।
(लेखिका- विजया सिंह, रिसर्च स्कॉलर, कलकत्ता विश्वविद्यालय,कोलकाता )
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