देश में कल गणतंत्र की धूम दिखी इसी बीच एक और बात जो प्रचुर मात्रा में देखने कों मिली वो थी कागजी मीडियाके महारथी का देश के नाम शाब्दिक पटुता का एक नया अंदाज़ | ये कोई नयी बात नहीं थी |शब्दों के कुशलकारीगर गणतंत्र पर देश की खामियों कों गिनाने में लगे हुए थे |सुबह से लेकर शाम तक मैं ने करीब दस आलेखऔर कुछेक ब्लॉग पढ़े सबके सब शाब्दिक चिंता में डूबे दिखे वजह देश की आजादी के लम्बे अरसे बाद भी देश केस्थिति का चरित्र चित्रण |मेरी समझ में एक बात बिलकुल नहीं आयी ये आखिर कलम के जादूगर कहना औरकरना क्या चाहते है |
क्या देश की खामियों कों गिनाकर कोई क्रांती लायी जा सकती है जिसकी नीव बदलाव के साथ रखीजायेगी |क्यागणतंत्र पर राजपथ की परेड कों फिजूलखर्ची कहने से गरीबों का पेट भर जाएगा |कलम के बादशाहों कों शायद येपता नहीं की उनके शब्द में अब वो ताकत नहीं है, जो गांधी, दिनकर और भगत की लेखनी में हुआ करते थेआखिर ये अपनी शाब्दिक पटुता कों काली स्याही के रंग में रंग कर साबित क्या करना चाहते है |चन्द पैसों केलिए कलम चलाने वाले ये महानुभाव लेखनी से ही देश की गरीबी ,भूखमरी और नक्सलवाद जैसी समस्याओं कासमूल नाश करने का बीड़ा उठा रखा है |
ये सवाल उन प्रबुद्ध जनों से नहीं है जो देश की उपलब्धियों कों धता बताते है और शब्दों में ही सुधार की गुंजाइशदेखते है |काश ऐसा हो पाता ! सही मायने में ये लोकतंत्र से ही एक सवाल है |जहाँ गणतंत्र और स्वतंत्र होने के भीदिवस कों मनाया जाता है |शाब्दिक प्रबुधता से देश का कल्याण नहीं हो सकता है |इस देश में लिखने वालो कीकोई कमी नहीं है जो अपनी शाब्दिक पटुता से देश हित की कागजी बातें करते करते खुद कों ख़तम कर लेते हैलेकिन सुधार के नाम पर बासठ सालो में तो कुछ भी देखने कों नहीं मिलता |ये सवाल सिर्फ सिर्फ प्रबुद्ध जनों केमन मष्तिष्क में ही नहीं उभरा है , मैं और मेरे जैसे पत्रकारिता के कुछ मेरे दोस्त भी इस दौर में शामिल है |शब्दका अस्तित्व ही क्या है .....क्या आग कहने से आग जलने लगती है , क्या पानी कहने से प्यास बुझ जाती है |नहींबिलकुल नहीं |
सब अपना भड़ास सिर्फ शब्दों में निकालकर शांत हो जायेंगे फिर अगले साल गणतंत्र आयेगा और खुद कों आमआदमी के लेबल से चिपकाकर ये अगली बार फिर लिखेंगे जिनके इन्हें चन्द पैसे मिल जायेंगे | शब्द देश काकल्याण करते तो ये कलम के जादूगर देश और देश की आम जनता के लिए सरकार का ध्यान आकृष्ट करवा पातेदेश के गणतंत्र और स्वतंत्रता दिवस की पूर्व संध्या और दिवस पर ऐसे ही आलेख लिखे जायंगे ,हम जैसे मूकपाठक उसे पढ़कर मौन रहने का संकल्प लेंगे और अगली बार फिर देशहित और समाज के समग्र विकास की परिकल्पनाओं में खुद कों शाब्दिक शेर साबित करेंगे|
27.1.10
गणतंत्र पर शाब्दिक हमला
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