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21.1.10

नीरो सरकार जाये, जनता जनार्दन आती है

आज देश के समक्ष बढ़ी किंकर्त्तव्यविमूढ़ता की स्थिति है. देश में महंगाई कहने भर को नहीं, वाकई सातवें आसमान पर है, और सरकार के मंत्री अपने सुख संसाधनों के साथ अपने व्यापारी आकाओं के हित साधने की चिंताओं में न केवल उलझे हुए हैं, वरन "नीरो" की तरह "बंशी" बजा रहे हैं. खासकर कृषि मंत्री शरद पवार पूर्व में चीनी को अपने एक बयान से कढवा करने के बाद अब दूध को महंगाई की हांडी में उबालने पर तुले हुए हैं. देश के अकेले "इंसान" शशि थरूर हमें "जानवर" कह चुके हैं, और अफ़सोस की हम चुप बैठे हुए हैं . 


एक समय था जब महंगा होने पर केवल एक प्याज ने सरकार गिरा दी थी, और आज कहने को हमारे देश के शीर्ष पदों पर एक-दो नहीं कई "देश के सर्वश्रेष्ठ अर्थशाश्त्री " आसीन हैं. स्वयं प्रधानमंत्री मनमोहन जी (मनमोहन ने तो त्रेता में भी बांसुरी बजाई थी, पर प्रेम की), पी चिदंबरम जी, मोंटेक सिंह अहलूवालिया जी, प्रणव जी तथा और भी कई लोग. लेकिन फिर भी महंगाई केवल कहने भर को नहीं, वास्तव में दिन दोगुनी रात चौगुनी गति से बढ़ रही है. और सबसे बढ़ी चिंता की बात यह कि इन सभी को यह कहने में लेश मात्र की शर्म नहीं आ रही कि महंगाई को रोकने में वे असमर्थ हैं.  


यानी, देश के सामने संकट केवल महंगाई का ही नहीं वरन "देश के अर्थशाश्त्रियों के सामर्थ्य शून्य होने" का भी है. हांलांकि मानना पड़ेगा की यह सच्चाई नहीं है, नेताओं की देश के बजाये निजी स्वार्थों को प्राथमिकता देने की राजनीतिक से अधिक व्यावसायिक मजबूरी इस समस्या की जड़ में है. शरद पवार व शशि थरूर जैसे उनके मंत्रिमंडल के अन्य व्यापारी मित्र भी इसी व्यवस्था के अंग लगते हैं.


अब समय आ गया है, जब सरकार को जाना चाहिए, केवल पंवार की बलि (जैसा कि लगता है सरकार इस २७ को होने वाली मुख्य मंत्रियों की बैठक से पहले दे सकती है) से लोकतंत्र के सबसे बड़े देव जनता जनार्दन को संतुष्ट नहीं हो जाना चाहिए. पिछले खासकर ढाई वर्ष से लूटने वालों को सजा तो मिलनी ही चाहिए.

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