दूर खड़े उस पेड़ को देख रहा हूँ
अकेला, तन्हा, उदास
वो तकलीफ में है
दर्द में है
उसके साथी छुट चुके है
उनकी जगह हमने ले ली है
हमने वहां भवन खड़े क़र दिए
बाज़ार की चकाचौंध भर दी
हमने उसे बिलकुल अकेला छोड़ दिया
अकेले... इन्तेजार में
कि कब उसका अस्तित्व भी ख़त्म हो जायेगा
कि कब उसकी जगह हम फिर ले लेंगे
और वहां कोई नया भवन खड़ा कर देंगे
वो पेड़ जिस पर पत्तियाँ खिलखिला रही है
जिसपर कुछ पंछियाँ चहचहा रहे है
वो पेड़ अपनी मौत के इन्तेजार में है
वो मरेगा नहीं
वरण हम उसे मार डालेंगे
और दर्द उससे भी ज्यादा होगा कि
कोई उसकी मौत पर अफ़सोस भी नहीं करेगा
दूर खड़े उस पेड़ को देख रहा हूँ
अकेला, तन्हा, उदास...
1 comment:
रचना अच्छी लगी।
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