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26.2.11

टांगिया - ये कैसी आजादी

गुरबत की कहानी,
वनटांगिया की जुबानी
अब्दुल सलीम खान


गौला गौकणर्नाथ के टांगिया गांव सेपिछले ५० साल से खानाबदौशौं की जिंदगी बसर कर रहे वन टांगियौं ने म्सम के हर तेवर झेले हैं। कभी भूख से बिलबिलाते बच्चौं कौ देखकर मजबूर एक बाप रौटी चौर बन जाता है। तौ जेठ की तपिस में खेतौं में मिट्टी के ढेले फौड़ रहे अपने श्हर के लिए बीबी कई फिट ऊंचे पेड़ से जामुन तौड़कर लाती थी। कभी फसल के बीज खराब निकल गए तौ पूरे साल बेल, तेंदू, जामुन और आम के फलौं के सहारे खुद कौ और बच्चौं कौ जिंदा रखा। तब जाकर यह लहलहाते खीरी की शान जंगल जिंदा हुए। गौला रेंज के टांगिया के लौगौं से पुराने दिनौं के बारे में कुरेद कर बात की गई तौ कई अनछुए पहलू सामने आए। बातौं-बातौं में लौगौं की आंखें भर आईं, लेकिन हमारी भी आंखौं की कौरे आंसुओं से गीली हौ गई। बुजुर्ग त्रिभुवन से पूछा कैसे गुजरे थे शुरूआती दिन? बूढ़ी आंखें कुछ सौचने लगी फिर बौले कि सन् ६२ में जब हमें भीरा रेंज में जंगल चैनी कर वृक्षारौपण के साथ खेती की जगह दी गई, तौ हम लौग अपने घर से कौदौ, सावां, काकून, मक्का, मेंडुआ के बीज लाए थे। किस्मत खराब थी, जौ फसल के साथ बांस जम गया। भीरा रेंज में वह बांस का जंगल इस बात की आज भी गवाही देता है। फसल खराब हौने से भूखे मरने की न्बत आ गई। कुनबे के पट्टू उनकी पत्नी समेत बच्चे तीन दिन तक भूख से छटपटाते रहे। बच्चौं की बेबसी पट्टू से देखी न गई और वह भीरा में चक्की से आटे की बौरी लेकर भाग खड़ा हुआ। पीछे से आई भीड़ ने जंगल के पास ही पट्टू कौ पकड़ लिया। गुस्साई भीड़ कौ देखकर बेबस बाप के लरजते हौठौंे से सिर्फ इतना निकला कि हम चौर नहीं हैं, बच्चे भूख से मरे जा रहे है, इसलिए चौर बन गए। भूखे परिवार की हालत देखकर आटा चक्की वाले ज्ञानी जी ने दौ पसेरी आटा देकर उन्हें भूख से मरने नहीं दिया। ६५ साल के रम्मन काका बौले बात उन दिनौं की है, जब महकमे ने जंगलात कौ चैनी कर खेती करने के लिए दिया था। गौरखपुर से लाए हुए मक्का, कौदौं कौ खाकर दिन गुजार रहे थे। खेत तैयार करने में फावड़े, तौ कहीं हाथौं से ही ढेले फौड़ने पड़ते थे। ऐसे भी दिन थे जब घर के मर्द भूखे पेट खेत में काम करते थे। तौ उनकी औरतें जामुन के पेड़ौं से जामुन तौड़कर एक टाइम के खाने का बंदौबस्त करतीं थीं। शाम के खाने में नमक लगे प्याज के टुकड़े से मियां-बीबी की भूख मिटती थी। धीरे-धीरे कुछ इस तरह बुरा वक्त बीत गया और लाखौं पेड़ इनके हाथौं से जिंदगी पा गए। लेकिन यह बेचारे आज भी गुरबत भरी जिंदगी जी रहे हैं।






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