राष्ट्रकवि दिनकर ने कभी कहा था , "निरा श्वास का खेल कहो , यदि आग नहीं हो गाने में "।
एक बार कुछ उर्दू के जानकार मित्रों ने कहा कि अपना एक तक्खल्लुस रख लें । मैंने कहा कि रहा "बब्बर"।
लोगों ने कहा कि इस तक्खल्लुस के साथ गजलें कैसे लिखेंगे । मैंने कहा कि देखें ।
सामने आये आज फिर से सिकंदर कोई ,
देखना चाहता मैं एक नया मंजर कोई ।
नापाक होती जा रही इस मुल्क की बस्ती ,
फिर से लिख डाले सियासत का मुक्कद्दर कोई ।
ये जानवर सुनते नहीं आवाज कलम की ,
जाहिद उठाओ हाथ में खंजर कोई।
मौका दो तवारीख को लिखने की शहादत ,
तूफ़ान से टकरा दो समंदर कोई ।
बकरे की तरह आदमी हो रहा रोज क़त्ल
इन्सान में पैदा करो बब्बर कोई ।
28.2.11
अंदाज़े बयां बब्बर के
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