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26.2.11

उम्मींदो का आसमां


मैं चला था ईक नया जहां बनाने अपनी उम्मींदो का नया आसमां बनाने, मुझे कहां पता था यहां आसमानो के भी ठेकेदार होतें हैं जिन पर घमंड के बाद्ल छाये होतें हैं। किन्तु इनपर घमंड से सनी धनक कौन चढ के साफ़ करे, “ज्ञान-रूपी” अभिमान के इनको जालें लग चुकें हैं, रुपयों की श्याही का ईनको ठप्पा लग चुका है। कोई अगर उसे मिटाने की कोशिश भी करता है तो अभिमान की गर्द उड्ने लगती है।

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http://planetofwords.blogspot.com/2011/02/blog-post_26.html

3 comments:

Shalini kaushik said...

बहुत सही बात बहुत कम शब्दों में .विचारणीय पोस्ट.

sangeeta modi shamaa said...

short n sweet

Shikha Kaushik said...

बहुत सार्थक भावाभिव्यक्ति.सराहनीय प्रस्तुति...