अपने आपको सर्वाधिक अनुशासित बता कर च्पार्टी विद द डिफ्रेंसज् का नारा बुलंद करने वाली भाजपा का शीर्ष नेतृत्व आखिरकार पूर्व मुख्यमंत्री श्रीमती वसुंधरा राजे के आगे नतमस्तक हो गया। हालत ये हो गई कि वे राजस्थान विधानसभा में विपक्ष का नेता दुबारा बनने को तैयार नहीं थीं और बड़े नेताओं को उन्हें राजी करने के लिए काफी अनुनय-विनय करना पड़ा। इसे राजस्थान भाजपा में व्यक्ति के पार्टी से ऊपर होने की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। कैसी विलक्षण स्थिति है कि दो साल पहले जिस वसुंधरा को विपक्ष का नेता पद छोडऩे के लिए हाईकमान मजबूर कर रहा था, वही उनका तोड़ नहीं निकाल पाने के कारण अंतत: पुन: उन्हीं को यह आसन ग्रहण करने की विनती करने को मजबूर हो गया। प्रदेश भाजपा के इतिहास में वर्षों तक यह बात रेखांकित की जाती रहेगी कि हटाने और दुबारा बनाने, दोनों मामलों में पार्टी को झुकना पड़ा। पार्टी के कोण से इसे थूक कर चाटने वाली हालत की उपमा दी जाए तो गलत नहीं होगा। चाटना क्या, निगलना तक पड़ा।
वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि हाईकमान को दो साल पहले विपक्ष का नेता पद छुड़वाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ा। असल बात तो ये कि उन्होंने पद छोड़ा ही न छोडऩे के अंदाज में। इसका नतीजा ये रहा कि उनके इस्तीफे के बाद किसी और को नेता नहीं बनाया जा सका और जब बनाया गया तो भी उन्हीं को, जबकि वे तैयार नहीं थीं। आखिर तक वे यही कहती रहीं कि यदि बनाना ही था तो फिर हटाया ही क्यों।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। पार्टी ने जब अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, तब भी वे दबाव में नहीं आईं और पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। चतुर्वेदी ने भी चालें कम नहीं चलीं, मगर विधायकों पर वसुंधरा के तिलिस्म को भंग नहीं कर पाए। वसुंधरा के आभा मंडल के आकर्षण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी में पद चाहने वाले भी चतुर्वेदी से छुप-छुप कर ही मिलते रहे कि कहीं वसुंधरा को पता न लग जाए, क्यों कि आने वाले दिनों में वसुंधरा के फिर से मजबूत होने के पूरे आसार हैं। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा है। प्रदेश में जहां भी जाती हैं, कार्यकर्ता और भाजपा मानसिकता के लोग उनके स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देते हैं।
हालांकि हाईकमान को वसुंधरा की ताकत का अंदाजा था, मगर संघ लॉबी के दबाव की वजह से वह सी एंड वाच की नीति बनाए हुए था। जब उसे यह पूरी तरह से समझ में आ गया कि वसुंधरा को दबाया जाना कत्तई संभव नहीं है और वीणा के तार ज्यादा खींचे तो वे टूट ही जाएंगे तो मजबूर हो कर उसे शरणागत होना पड़ा। जहां तक संघ का सवाल है, उसकी सोच ये रही कि वसुंधरा के पावरफुल रहते पार्टी का मौलिक चरित्र कायम रखना संभव नहीं है। संघ का ये भी मानना रहा कि वसुंधरा की कार्यशैली के कारण ही भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हुई। उन्होंने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वालों को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। यही वजह रही कि वह आखिरी क्षण तक इसी कोशिश में रहा कि वसुंधरा दुबारा विपक्ष का नेता न बनें, मगर आखिरकार झुक गया।
कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी
वस्तुत: राजस्थान में वसु मैडम की पार्टी विधायकों पर इतनी गहरी पकड़ है कि हाईकमान को दो साल पहले विपक्ष का नेता पद छुड़वाने के लिए एडी चोटी का जोर लगाना पड़ा। असल बात तो ये कि उन्होंने पद छोड़ा ही न छोडऩे के अंदाज में। इसका नतीजा ये रहा कि उनके इस्तीफे के बाद किसी और को नेता नहीं बनाया जा सका और जब बनाया गया तो भी उन्हीं को, जबकि वे तैयार नहीं थीं। आखिर तक वे यही कहती रहीं कि यदि बनाना ही था तो फिर हटाया ही क्यों।
पार्टी हाईकमान वसुंधरा को फिर से विपक्ष नेता बनाने को यूं ही तैयार नहीं हुआ है। उन्हें कई बार परखा गया है। पार्टी ने जब अरुण चतुर्वेदी को प्रदेश अध्यक्ष बनाया, तब भी वे दबाव में नहीं आईं और पार्टी का एक बड़ा धड़ा अनुशासन की परवाह किए बिना वसुंधरा खेमे में ही बना रहा। ये उनकी ताकत का ही प्रमाण है कि राज्यसभा चुनाव में दौरान वे पार्टी की राह से अलग चलने वाले राम जेठमलानी को न केवल पार्टी का अधिकृत प्रत्याशी बनवा लाईं, अपितु अपनी कूटनीतिक चालों से उन्हें जितवा भी दिया। ये वही जेठमलानी हैं, जिन्होंने भाजपाइयों के आदर्श वीर सावरकर की तुलना पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना से की, जिन्ना को इंच-इंच धर्मनिरपेक्ष तक करार दिया, पार्टी की मनाही के बाद इंदिरा गांधी के हत्यारों का केस लड़ा, संसद पर हमला करने वाले अफजल गुरु को फांसी नहीं देने की वकालत की और पार्टी के शीर्ष नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतर गए। जेठमलानी को जितवा कर लाने से ही साफ हो गया था कि प्रदेश में दिखाने भर को अरुण चतुर्वेदी के पास पार्टी की फं्रैचाइजी है, मगर असली मालिक श्रीमती वसुंधरा ही हैं। चतुर्वेदी ने भी चालें कम नहीं चलीं, मगर विधायकों पर वसुंधरा के तिलिस्म को भंग नहीं कर पाए। वसुंधरा के आभा मंडल के आकर्षण का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पार्टी में पद चाहने वाले भी चतुर्वेदी से छुप-छुप कर ही मिलते रहे कि कहीं वसुंधरा को पता न लग जाए, क्यों कि आने वाले दिनों में वसुंधरा के फिर से मजबूत होने के पूरे आसार हैं। आम भाजपाइयों में भी वसुंधरा के प्रति स्वीकारोक्ति ज्यादा है। प्रदेश में जहां भी जाती हैं, कार्यकर्ता और भाजपा मानसिकता के लोग उनके स्वागत के लिए पलक पांवड़े बिछा देते हैं।
हालांकि हाईकमान को वसुंधरा की ताकत का अंदाजा था, मगर संघ लॉबी के दबाव की वजह से वह सी एंड वाच की नीति बनाए हुए था। जब उसे यह पूरी तरह से समझ में आ गया कि वसुंधरा को दबाया जाना कत्तई संभव नहीं है और वीणा के तार ज्यादा खींचे तो वे टूट ही जाएंगे तो मजबूर हो कर उसे शरणागत होना पड़ा। जहां तक संघ का सवाल है, उसकी सोच ये रही कि वसुंधरा के पावरफुल रहते पार्टी का मौलिक चरित्र कायम रखना संभव नहीं है। संघ का ये भी मानना रहा कि वसुंधरा की कार्यशैली के कारण ही भाजपा की पार्टी विथ द डिफ्रंस की छवि समाप्त हुई। उन्होंने पार्टी की वर्षों से सेवा करने वालों को हाशिये पर खड़ा कर दिया, उन्हें खंडहर तक की संज्ञा देने लगीं, जिससे कर्मठ कार्यकर्ता का मनोबल टूट गया। यही वजह रही कि वह आखिरी क्षण तक इसी कोशिश में रहा कि वसुंधरा दुबारा विपक्ष का नेता न बनें, मगर आखिरकार झुक गया।
कुल मिला कर ताजा घटनाक्रम से तो यह पूरी तरह से स्थापित हो गया है के वे प्रदेश भाजपा में ऐसी क्षत्रप बन कर स्थापित हो चुकी हैं, जिसका पार्टी हाईकमान के पास कोई तोड़ नहीं है। उनकी टक्कर का एक भी ग्लेमरस नेता पार्टी में नहीं है, जो जननेता कहलाने योग्य हो। अब यह भी स्पष्ट हो गया है कि आगामी विधानसभा चुनाव में केवल वे ही पार्टी की नैया पार कर सकती हैं।
-गिरधर तेजवानी
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