हमारे देश में डॉक्टरों को धरती पर विचरण करनेवाले भगवान का दर्जा दिया जाता है.मैं और आप सभी का जीवन कहीं-न-कहीं किसी-न-किसी डॉक्टर की देन है.बचपन में मेरा बायाँ हाथ कोहनी के पास से टूट गया था तब डॉ. आरसी राम ने शल्य चिकित्सा द्वारा मुझे विकलांग होने से बचा लिया था.मैं सोंचता हूँ कि अगर डॉक्टर नहीं होते तो न तो मैं होता और न ही मेरा परिवार ही.
लेकिन समय के साथ घटते सामाजिक मूल्यों ने डॉक्टरी को भी पेशे में बदल दिया है.आज इससे बेहतर कोई व्यवसाय नहीं है.मरीजो की मजबूरी का भरपूर लाभ उठाईये और उन्हें लूट लीजिए.आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब बिहार सरकार ने सरकारी डॉक्टरों से निजी प्रैक्टिस बंद करने को कहा था तो पटना के कई लब्धप्रतिष्ठित डॉक्टरों ने सरकारी नौकरियों से ही त्यागपत्र दे दिया था.तब से गंगा के प्रवाह में भारी कमी आ चुकी है और कमी आ चुकी है इस पेशे से जुड़े लोगों की संवेदनाओं में.आज निजी नर्सिंग होम खोलकर बैठे डॉक्टर मरीजों को एटीएम की मशीन समझते हैं.जब जितना चाहा उतना धन निकाल लिया.पटना में तो कई डॉक्टर रिक्शेवालों को मरीज लाने पर कमीशन भी देते हैं.कई बार तो निजी नर्सिंग होम वाले मनमाफिक पैसा नहीं देने पर मरीजों के साथ मारपीट भी करते हैं.बच्चे बदल देने की घटनाएँ भी इनमें खूब होती हैं.
यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि कुछ अपवादों के साथ सारे प्राइवेट नर्सिंग होम के डॉक्टर कहीं-न-कहीं सरकारी डॉक्टर भी हैं.सरकारी नौकरी से सिर्फ वेतन उठाया जाता है,९९ प्रतिशत डॉक्टर तो कभी ड्यूटी पर जाते ही नहीं है.यहाँ मैं ग्रामीण क्षेत्रों में पदस्थापित चिकित्सकों की बात कर रहा हूँ.सरकार समय-समय पर यह घोषणा करके कि डॉक्टरों को गांवों में ड्यूटी करने के लिए बाध्य किया जाएगा,जनता को कोरी सांत्वना देती रहती है.मजबूरन गाँव का गरीब आदमी बीमार होने पर शहर के बड़े सरकारी अस्पताल की ओर रूख करता है और जब वहां ईलाज शुरू होता है तो पता चलता है कि डॉक्टरों ने तो हड़ताल कर दी है.मुद्दा चाहे जो भी हो,कारण चाहे जो भी हों;मरता सिर्फ और सिर्फ गाँव का गरीब है.पैसेवालों का क्या,वे तो महंगे निजी अस्पतालों में भी ईलाज करा लेते हैं.गरीब हड़ताल से पहले आता तो अपने पैरों पर चलकर है,जाता चार कन्धों पर सवार होकर.अस्पताल से छुट्टी तो मिलती ही है;दुनिया से भी छुट्टी मिल जाती है.
मैं जब कॉलेज में था तब मेरे एक रसायन शास्त्र के शिक्षक जिनकी विद्वता का मैं आज भी आदर करता हूँ,कभी कॉलेज में सिलेबस पूरा नहीं करते थे.५० मिनट के क्लास में वे ३०-४० मिनट तक चुटकुला सुनाते रहते.वे ऐसा क्यों करते थे?क्योंकि उनका ट्यूशन खूब चलता था और अगर वे कक्षा में ही सबकुछ पढ़ा देते तो फ़िर ट्यूशन में कोई आता ही क्यों?मुझे लगता है कि डॉक्टरों की इन हड़तालों के पीछे भी एक कारण तो यह है ही.इन दिनों बिहार में उनके द्वारा किए गए हड़ताल को ही लीजिए.राज्य के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच में भर्ती सारे समर्थ मरीज निजी नर्सिंग होम की तरफ पलायन कर गए हैं और कर रहे हैं.जिनके पास पैसा नहीं वे यहीं रूककर हड़ताल के टूटने का इंतजार कर रहे हैं.उनमें से कईयों की इस इंतजार में सांसों की डोर ही टूट गई हैं.
रोजाना ५०-१०० लाशें पीएमसीएच से बाहर निकल रही हैं और सरकार मूकदर्शक बनी हुई है.सरकार क्यों नहीं डॉक्टरों पर अनुशासन का डंडा चला रही?सरकारें चाहे डॉक्टरों की हड़ताल दिल्ली में हो या पटना में या मुम्बई-चेन्नई में;इनके आगे इतनी लाचार क्यों हो जाती हैं?क्या ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इससे फायदा अंततः सरकार को ही है.मरनेवालों में अधिकतर बीपीएल हैं और इनकी मृत्यु से सरकारी फंड पर बोझ कम हो रहा है.गरीबी तो नहीं मिटी है और न ही मिटेगी,गरीब जरूर मिट जाएँगे;पूरी तरह से नहीं तो अंशतः ही सही.
लेकिन समय के साथ घटते सामाजिक मूल्यों ने डॉक्टरी को भी पेशे में बदल दिया है.आज इससे बेहतर कोई व्यवसाय नहीं है.मरीजो की मजबूरी का भरपूर लाभ उठाईये और उन्हें लूट लीजिए.आज से बीस-पच्चीस साल पहले जब बिहार सरकार ने सरकारी डॉक्टरों से निजी प्रैक्टिस बंद करने को कहा था तो पटना के कई लब्धप्रतिष्ठित डॉक्टरों ने सरकारी नौकरियों से ही त्यागपत्र दे दिया था.तब से गंगा के प्रवाह में भारी कमी आ चुकी है और कमी आ चुकी है इस पेशे से जुड़े लोगों की संवेदनाओं में.आज निजी नर्सिंग होम खोलकर बैठे डॉक्टर मरीजों को एटीएम की मशीन समझते हैं.जब जितना चाहा उतना धन निकाल लिया.पटना में तो कई डॉक्टर रिक्शेवालों को मरीज लाने पर कमीशन भी देते हैं.कई बार तो निजी नर्सिंग होम वाले मनमाफिक पैसा नहीं देने पर मरीजों के साथ मारपीट भी करते हैं.बच्चे बदल देने की घटनाएँ भी इनमें खूब होती हैं.
यह तथ्य किसी से छिपा हुआ नहीं है कि कुछ अपवादों के साथ सारे प्राइवेट नर्सिंग होम के डॉक्टर कहीं-न-कहीं सरकारी डॉक्टर भी हैं.सरकारी नौकरी से सिर्फ वेतन उठाया जाता है,९९ प्रतिशत डॉक्टर तो कभी ड्यूटी पर जाते ही नहीं है.यहाँ मैं ग्रामीण क्षेत्रों में पदस्थापित चिकित्सकों की बात कर रहा हूँ.सरकार समय-समय पर यह घोषणा करके कि डॉक्टरों को गांवों में ड्यूटी करने के लिए बाध्य किया जाएगा,जनता को कोरी सांत्वना देती रहती है.मजबूरन गाँव का गरीब आदमी बीमार होने पर शहर के बड़े सरकारी अस्पताल की ओर रूख करता है और जब वहां ईलाज शुरू होता है तो पता चलता है कि डॉक्टरों ने तो हड़ताल कर दी है.मुद्दा चाहे जो भी हो,कारण चाहे जो भी हों;मरता सिर्फ और सिर्फ गाँव का गरीब है.पैसेवालों का क्या,वे तो महंगे निजी अस्पतालों में भी ईलाज करा लेते हैं.गरीब हड़ताल से पहले आता तो अपने पैरों पर चलकर है,जाता चार कन्धों पर सवार होकर.अस्पताल से छुट्टी तो मिलती ही है;दुनिया से भी छुट्टी मिल जाती है.
मैं जब कॉलेज में था तब मेरे एक रसायन शास्त्र के शिक्षक जिनकी विद्वता का मैं आज भी आदर करता हूँ,कभी कॉलेज में सिलेबस पूरा नहीं करते थे.५० मिनट के क्लास में वे ३०-४० मिनट तक चुटकुला सुनाते रहते.वे ऐसा क्यों करते थे?क्योंकि उनका ट्यूशन खूब चलता था और अगर वे कक्षा में ही सबकुछ पढ़ा देते तो फ़िर ट्यूशन में कोई आता ही क्यों?मुझे लगता है कि डॉक्टरों की इन हड़तालों के पीछे भी एक कारण तो यह है ही.इन दिनों बिहार में उनके द्वारा किए गए हड़ताल को ही लीजिए.राज्य के सबसे बड़े अस्पताल पीएमसीएच में भर्ती सारे समर्थ मरीज निजी नर्सिंग होम की तरफ पलायन कर गए हैं और कर रहे हैं.जिनके पास पैसा नहीं वे यहीं रूककर हड़ताल के टूटने का इंतजार कर रहे हैं.उनमें से कईयों की इस इंतजार में सांसों की डोर ही टूट गई हैं.
रोजाना ५०-१०० लाशें पीएमसीएच से बाहर निकल रही हैं और सरकार मूकदर्शक बनी हुई है.सरकार क्यों नहीं डॉक्टरों पर अनुशासन का डंडा चला रही?सरकारें चाहे डॉक्टरों की हड़ताल दिल्ली में हो या पटना में या मुम्बई-चेन्नई में;इनके आगे इतनी लाचार क्यों हो जाती हैं?क्या ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इससे फायदा अंततः सरकार को ही है.मरनेवालों में अधिकतर बीपीएल हैं और इनकी मृत्यु से सरकारी फंड पर बोझ कम हो रहा है.गरीबी तो नहीं मिटी है और न ही मिटेगी,गरीब जरूर मिट जाएँगे;पूरी तरह से नहीं तो अंशतः ही सही.
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