दिल्ली चलो.....
मन बडा उदास था समझ मे नही आ रहा था क्या करु कभी मन
करता था कि आत्महत्या कर लूं पर दूसरे ही पल ये विचार आया कि
नही आत्महत्या करना तो पाप है बस इसी सोच विचार मे दिन कट रहे
थे बेचैनी बढती जा रही जीवन मे कोई भी लक्ष्य नजर नही आ रहा हर ओर
निराशा के बादल छाये हुये थे इन सब निराशाओं का कारण मेरे जीवन का लक्ष्य
निर्धारित न होना था इसी उधेडबुन मे दिन कटे जा रहे थे , आपको बताता चलूं
कि मै इक ३० साल का बेरोजगार कंम्पूटर मे परा स्नातक (M.C.A.) जो
इक लम्बे समय से अपने घर वालों पर घर के मोह में या अपनी कायरता से बोझ बना हुआ था इक अदद
सरकारी नौकरी कि तलाश मे मारा मारा भटक रहक था और इस जग मे भगवान का
मिलना आसान था पर सरकारी नौकरी का मिलना सामान्य श्रेणी के लोगो को लगभग असंभव,
खैर इसको विराम देते हुए आते है मुख्य बात पे ,कुछ साल शायद सन २००३ में मेरा द्क्षिण भारत के
शहर कन्याकुमारी जाना हुआ था वहां विवेकानन्द शिला पे इक कागज का टुकडा मिला जिसमें
विवेकानन्द सेवाकेन्द्र के सेवा क्षेत्रो के बारे मे लिखा था हमने पढा और संभाल के रख लिया इनका विवेकानन्द सेवाकेन्द्र )
इक कार्यक्रम अरुणाचल प्रदेश मे अरुणोदय के नाम से चलता है मैने भी सोचा कि चलो कभी
मौका मिला तो मैं भी देश सेवा करुंगा लेकिन जीवन के अपने ही रंग है मेरी तलाश जारी थी पर जब
मै जब थक गया तो अपने आप से कहा जीवन अनमोल है इसको बेकार करने से कोई फायदा नही
चलो देश सेवा ही करते क्योंकि नौकरी तो मिली नही थी भाई बात की विवेकानन्द सेवाकेन्द्र कन्याकुमारी वालो से कई बार अपना जीवन परिचय भेजा दूरभाष से बात हुई आखिर मे हरी झण्डी मिल गयी और मुझे दिल्ली बुलाया गया सो कोई परेशानी की बात नही थी अपने साथ वाले बहुत लोग दिल्ली मे पहले से जमे हुए थे जल्दी से अपना चलित दुरभाष यंत्र उठाया जाने का कार्यक्रम तय निकल पडे भाई दिल्ली को ऎसे कि अब तो घर लौटना नही था नम आंखो
से घर मे बगैर कुछ बताय हां इस बारे मे मेरी इक महिला मित्र को जरुर बताया था
आयी थी बेचारी मुझे विदा करने भरे आखों से लखनऊ जंकशन पे इंतजार खत्म हुआ गाडी प्लेटफार्म पे आ
चुकी थी बडी भीड थी पर अपने राम तो रिजर्वेशन वाले थे तो खुश थे कि अपनी तो सीट पक्की भाई अपनी सीट पकड के बैठ गये अपनी महिला मित्र से विदा ली अरे हां इक बात तो बताना ही भुल गया मित्र ने मेरे लिये कुछ खाने पीने का सामान भी लिया था जो मेरे मना करने के बाद भी मुझे थमा के चली गयी, गाडी के
छूटने से जरा पहले इक लडकी अपना समान लादे लगभग उसे घसीटते हुये मेरी सीट पे आके धम्म से बैठ
गयी खिड्की से हाथ निकाल कर अपने दोस्त से बात कर रही थी उसके दोस्त ने भाई इनका ध्यान रखियेगा
सीट नही मिली है किसी तरह एड्जस्ट कर लिजियेगा मुझे भी मन मांगी मुराद मिल गयी थी दिल्ली के सफर
का खूबसूरत नही कामचलाऊ हमसफर जो खूबसूरत थी
वो तो चली गयी मुझे अलविदा कह के, ट्रेन धीरे धीरे रेंग्ने लगी और जल्द ही रफ्तार पकड ली जैसा कि ऊपर बताया भीड बहुत थी पर मैने भी अकेली लड्की पे तरस
खा के या अपने फायदे के लिये उसे आधी सीट दे दी गलियारे के बगल वाली R.A.C. सीट थी तो हम दोनो इक इक खिड्की पकड के बैठ गये पहले तो संकोच या मर्यादा वश मैं खामोश रहा पर मन मे कुछ हलचल
हो रही थी इसी बीच उस लड्की के फोन भी आ रहे शायद उसी लड्के के थे जो उसे छोड्ने आया था
तकरीबन २ घण्टे शराफत से सीधे पैर समेट के बैठे बैठे उबने के बाद मैने सामने वाली लडकी से पुछा कि
क्या मै अपने पैर सीधे कर लूं लड्की ने जवाब दिया मन तो मेरा भी कर रहा था पर संकोच कर रही
थी कि इक तो आपने अपनी सीट शेयर की और अब मै आप से पैर फैलाने के लिये कैसे कहूं ,
खैर जैसे तैसे बात चीत का श्री गणेश हुआ पर मै अपनी ही धुन मे मस्त घर से दोस्त से बिछड्ने का गम
लिये जगजीत सिंह की गजले सुन रहा था अचानक इक मजेदार घटना हुई..........
आगे पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त...........
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