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25.9.11

व्यंग्य - महंगाई ‘डायन’ है कि सरकार

राजकुमार साहू, जांजगीर, छत्तीसगढ़
महंगाई पर हम बेकार की तोहमत लगाते रहते हैं। अभी जब बाजार में सामग्रियां सातवें आसमान में महंगाई की मार के कारण उछलने लगी, उसके बाद महंगाई एक बार फिर हमें ‘डायन’ लगने लगी। इस बार तंग आकर महंगाई ने भी अपनी भृकुटी तान दी और कहा कि उसने कौन सी गलती कर दी, जिसके बाद उसे ऐसी जलालत बार-बार झेलनी पड़ती है। महंगाई को बार-बार की बेइज्जती बर्दास्त नहीं हो रही है। उसने सोचा, अब वह कहीं और जाकर अपनी बसेरा तय करेगी, मगर सरकार मानें, तब ना।
सरकार ने जैसे दंभ भर लिया हो कि जो भी हो जाए, महंगाई को साथ रखना ही है। ये अलग बात है कि सरकार की अपने एकला चलो की नीति से जनता, जितने भी अपना सिर खुजाए। महंगाई चाहे जितनी एड़ियां रगड़े, लेकिन सरकार चाहती है कि महंगाई, उससे हर हाल में जुड़ी रहे। सरकार की कार्यप्रणाली से लगता है कि जैसे महंगाई से उसकी चोली-दामन का साथ है, तभी तो साथ छोड़े से भी नहीं छूट रहा है। इस बात से जनता का मानसिक पारा उतरने का नाम नहीं ले रहा है, किन्तु सरकार कुछ समझती है। कहां जबर्दस्ती में अपनी फजीहत कराने तुली हुई है और जनता का कबाड़ा।
जनता बेचारी चारों ओर से त्रस्त है। कभी महंगाई आकर उसके जीवन में आग लगा देती है और कभी भ्रष्टाचार का दानव, मन की शांति छीन लेता है। जनता, महंगाई को ताने मारती है और भ्रष्टाचार को भी आह देती है। वैसे ये तो हमारी पुरानी आदत है कि हम बीमारी की जड़ के बारे में नहीं सोचते। महंगाई और भ्रष्टाचार को आखिर हमें कौन परोस रहा है ? जीवन के अंधकार खत्म होने की हम सोचते हैं, मगर बीमारी की जकड़न के बारे में नहीं सोचते। जो दोषी नहीं है, उसे ही हम पहले खत्म करने की कतार में खड़ी करते हैं। जो दिखता है, उसी पर विश्वास करते हैं, मगर जिसके द्वारा पूरा करतब दिखाया जाता है, उसकी करतूत पर गौर नहीं करते। महंगाई का भी कुछ ऐसा ही हाल है, वह शतरंज की चाल में फंसी है और हर चाल तो सरकार ही चल रही है। जनता भी दो पाटों के बीच पीस रही है और अपने सब्र के थाह पर पूरा भरोसा कर रही है।
हम लोग सुबह उठते ही महंगाई को कोसते हैं, भ्रष्टाचार को दो-चार गिनाते हैं। बाजार जाते ही आग उगलती चीजों के ताप से सन्ना जाते हैं। यह कभी नहीं सोचते कि इस संताप की खिलाफत कैसे करें ? जिसने ऐसे हालात बनाएं, उसे सबक सीखाएं। हमारी चुप रहने की पुरानी आदत है, उसी पर कायम रहते हैं। हालांकि, यह अच्छी बात है, क्योंकि कहीं ज्यादा मुंह खोला तो... हममें डर बना रहता है कि कहीं मुंह की खानी न पड़ जाए। एक बात है, ऐसा कोई दिन नहीं जाता, जब हम महंगाई से दो-दो हाथ नहीं करते और मुंह की भी नहीं खाते। बावजूद, हम चेतते कहां हैं ? महंगाई, हिलोर मारती हुई आती है, अंगड़ाई करती है और हम आहें भरते रह जाते हैं। भ्रष्टाचार मस्तमौला होकर आता है और पुरानी बोतल में फिर समा जाता है। जब कोई उसे हिलाने की कोशिश करता है, तब हमारी तंद्रा टूटती है।
मैं यही कहना चाहूंगा कि हमारी सोच कितना संकीर्ण है, हम महंगाई के विरोधी बन बैठे हैं, उसे ‘डायन’ बना बैठे हैं। यह कहां का भलमनसाहत है कि ‘करे कोई और भरे कोई’। इन्हीं कारणों से महंगाई भी अपनी हिकारत पर आंसू बहाती रहती है। ये अलग बात है कि उसके नाम से देश की करोड़ों आंखें खून के आंसू भी रोती हैं। ये आंसू न सरकार को दिखाई देती है और न ही, हमारे कर्णधारों को। ऐसी स्थिति में महंगाई बेचारी क्या कर सकती है। जैसे बरसों से जनता बेचारी बनी बैठी है, वैसे ही सरकार के तरकस में फंसी, महंगाई भी ‘डायन’ बन गई है। पूरे हालात पर गौर फरमाने के बाद हमें ही तय करना है कि आखिर, महंगाई ‘डायन’ है कि सरकार ?

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