बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
आसमां की किस हद को छू पायेगा तू....
आदमी के जाल से कब तक बच पायेगा तू.....
बोल रे परिंदे....कहाँ जाएगा तू....
तेरे घर तो अब दूर होने लगे हैं तुझसे
शहर के बसेरे तो खोने लगे हैं तुझसे
अब तो लोगों की जूठन भर ही खा पायेगा तू
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
दिन भर चिचियाने की आवाजें आती थी सबको
मीठी-मीठी बोली हर क्षण लुभाती थी सबको
आदमी का संग-साथ कब भूल पायेगा तू....
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
बस थोड़े से दिन हैं तेरे,अब वो भी गिन ले तू
चंद साँसे बस बची हैं,जी भरके उनको चुन ले तू.
फिर वापस इस धरती पर नहीं आ पायेगा तू....
बोल रे परिंदे...कहाँ जाएगा तू.......
2 comments:
बेहद गहन और सशक्त अभिव्यक्ति।
बहुत सुंदर भाव की सुंदर रचना
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