-कुमार कृष्णन-
स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जिससे हर व्यक्ति सरोकार है। स्वास्थ्य पर हमारे देश में जो स्थितियाँ हैं उससे यह भी निकलता है कि देश में जनस्वास्थ्य की स्थितियाँ कमोबेश बेहतर नहीं है। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज में बेहतर स्वास्थ्य रखना और बिगड़े हुए स्वास्थ्य को दुरुस्त करवाना खासा मुश्किल हो रहा है। स्वास्थ्य के निजीकरण ने इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र से लाभ आधारित व्यवस्था का पर्याय बना दिया है। स्वास्थ्य एक ऐसा विषय है जिससे हर व्यक्ति सरोकार है। स्वास्थ्य पर हमारे देश में जो स्थितियाँ हैं उससे यह भी निकलता है कि देश में जनस्वास्थ्य की स्थितियाँ कमोबेश बेहतर नहीं है। खासकर मध्यमवर्गीय और निम्नवर्गीय समाज में बेहतर स्वास्थ्य रखना और बिगड़े हुए स्वास्थ्य को दुरुस्त करवाना खासा मुश्किल हो रहा है। स्वास्थ्य के निजीकरण ने इस क्षेत्र को सेवा क्षेत्र से लाभ आधारित व्यवस्था का पर्याय बना दिया है।
इसी परिप्रेक्ष्य में विकास संवाद की ओर से मध्यप्रदेश के झाबुआ में 'मीडिया और स्वास्थ्य' विषय पर आयोजित परिसंवाद के प्रथम दिन के दूसरे सत्र में स्वास्थ्य के विभिन्न आयामों पर चर्चा हुई। इस संवाद का मकसद यहाँ पर बैठकर संवाद करना और जमीनी स्थितियाँ देखना। दरअसल झाबुआ में आयोजित का उद्देश्य कुछ और ही था। झाबुआ का नाम देश के चंद जिलों में शुमार है आदिवासी आबादी 89 प्रतिशत तक है, लेकिन स्थितियाँ इतनी भयावह है। गरीबी की स्थितियों ने यहाँ पर पलायन को विकराल रूप में पेश किया है। पलायन ने यहाँ पर सिलिकोसिस को जानलेवा बना दिया है।
परिसंवाद में वरिष्ठ पत्रकार चिन्मय मिश्र ने कहा कि सिलिकोसिस मिस्र में पिरामिड के निर्माण से लेकर मायावती की मूर्तियाँ बनाने वाले कामगारों से जुड़ा है। यह व्यवसायजन्य रोग है। यह भयंकर रोग धूल में सूक्ष्म कणों के अत्यधिक मात्रा में रहने से उत्पन्न होता है। स्फटिक के कारखानों में काम करनेवालों में यह रोग अधिक होता है। ऐल्यूमिना, कार्बन, जिप्सम तथा हेमाटाईट के कण यदि धूल में सिलिका के साथ मिले रहते हैं। तो प्रतिक्रिया में अनिष्टकर प्रभाव कम होते हैं। मध्यप्रदेश के झाबुआ, अलीराजपुर, धार के लोग ज्यादा प्रभावित हैं। स्थिति इतनी विषम है कि मध्य प्रदेश और गुजरात में फर्क है मानवता का यहाँ के लोग गुजरात जाते हैं और बीमारी लेकर आते हैं, लेकिन सरकार उन्हें मुआवजा तक नहीं दे पाती है। इस परिसंवाद में सिलकोसिस से पीड़ित दिनेश राय सिंह ने बताया कि वे 2000 में गोधरा गए थे काम की तलाश में और हिन्दुस्तान फैक्ट्री में काम मिला। वहाँ पत्थर पीसने का काम था। वहीं इस बीमारी से जकड़ा और अब वे इस बीमारी से जूझ रहे हैं। उनके परिवार में कोई महिला नहीं बची है। सबो को इस बीमारी ने लील लिया।
सामाजिक कार्यकर्ता अमूल्य ने बताया कि गोधरा में पत्थर को पाउडर में तब्दील कर देने वाले इन कारखानों में बेहद खतरनाक ढँग से काम होता है। मालिकों का दावा है कि कारखाने पूरी तरह मशीनीकृत हैं और यहाँ बिना मानव श्रम के काम होते हैं। विस्थापन और स्वास्थ्य का सवाल कुछ ऐसा ही है। काम नहीं मिलने पर लोग काम के लिए दूसरे प्रदेश में जाते हैं और वहाँ से जानलेवा बीमारी लेकर लौटते हैं। कारखानों सरजमीन की सच्चाई कुछ और है। उन्होंने लोकसंघर्ष साझा मंच के प्रयासों का उल्लेख करते हुए कहा कि पहले तो टीबी बनाम सिलिकोसिस का उठा। ऐसी बीमारी में चिकित्सक टीबी का इलाज कर देते थे। लेकिन सारे इलाज धरे रह जाते। बीमारी से छुटकारा तो मिलता, लेकिन मौत के बाद। कई लोगों की मौत के बाद इस रहस्यमयी बीमारी से पर्दा उठा। समुदाय आधारित सर्वेक्षण के बाद असलियत सामने आयी। फिर साक्ष्य नहीं और साक्ष्य का सवाल आया। पूरी स्थिति के आकलन के बाद बात सामने आती है कि यह संगठित और असंगठित मजदूरों का है। इनके पास कोई साक्ष्य नहीं होने के कारण काफी परेशानी होती थी। साक्ष्य जुटने पर राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को शिकायत की गयी।
जाँच के बाद मुआवजा का आदेश हुआ। सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर किए गए। इतने संघर्ष के बाद स्थिति यह है कि केन्द्र ने मुआवजे का पैसा तो दिया है, लेकिन गुजरात सरकार खर्च नहीं कर पा रही है। यह आमानवीय स्थित इतने संघर्षों के बाद भी बरकरार है। वहीं मोहन सुलिया ने कहा कि पलायन अब भी जारी है। सवाल सरकारी योजना के हकीकत का है। यदि यहीं काम मिल जाए तो पलायन क्यों होगा। पलायन का सिलसिला इस क्षेत्र में 2009 से ही जारी है। वहीं प्रेम विजय पाटिल ने कहा कि इमपेक्ट नहीं फालोअप की है। उन्होंने संघर्ष के अनुभवों को साझा करते हुए कहा कि योजना की प्राथमिकता आधिकारियों पर टिकी होती है।
शंकर भाई ने कहा कि आदिवासी समाज धर्म बनने से पहले का समाज है। इनमें मानवता और सामूहिकता दोनों है। प्रकृति के साथ जीता है। जहाँ तक स्वास्थ्य का सवाल है पहले संसाधनों से इलाज करते थे अब खरीदकर दवा लेने की परम्परा चल पड़ी है। वहीं संदीप ने खदानों में चल रहे शोषण और स्वास्थ्य के खिलाफ हो रहे षड्यंत्र को रेखांकित किया। अध्यक्षीय उद्गार व्यक्त करते हुए वरिष्ठ पत्रकार सुधीर जैन ने कहा कि मानवीयता का सवाल महत्त्वपूर्ण है। पूरा मामला मानव संसाधनों के विकास पर सवाल खड़ा करता है। प्रदूषण की जो स्थिति और भयावहता है वह 2050 में जिस ढंग से जनसंख्या में बढ़ोत्तरी का जो अनुमान किया गया है, वह चुनौतीपूर्ण होगा।
13.8.15
सिलकोसिस: गुजरात का अमानवीय चेहरा
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