-priyank dwivedi-
समय समय पर समाज का एक बुद्धिजीवी तबक़ा समान नागरिक संहिता पर चर्चा करता है और अपनी राय देता है कि जब देश एक है तो कानून अलग अलग क्यों? अलग कानून की वजह से एक लोकतांत्रिक राष्ट्र दो भागों में बंट जाता है। समान नागरिक संहिता बेहद ही संवेदनशील और विचार विमर्श का विषय रहा है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-44 इसकी सिफारिश करता है। समान नागरिक संहिता पहले सामाजिक मुद्दा हुआ करता था लेकिन आज के बदलते राजनीतिक परिदृश्य ने इसे राजनीतिक मुद्दा बना दिया है। और यही कारण है कि आजादी के 68 वर्षों बाद भी ये लागू नहीं हो पाई है।
समान नागरिक संहिता वैसे तो हमेशा से ही चर्चा का विषय रहा है लेकिन 1980 के दशक में ये जनचर्चा का विषय तब बना जब शाहबानो नाम की 73 वर्षीय मुस्लिम महिला को उसके पति मोहम्मद अहमद खान जो कि आर्थिक रूप से अत्यंत मजबूत था, ने उसको तलाक के बाद गुजारा भत्ता देने से मना कर दिया था। यह मामला जब सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा तो अहमद खान ने कहा कि उसने इस्लामी कानून के हिसाब से शर्तें पूरी की हैं इसलिए वह शाहबानो को गुजारा भत्ता देने को तैयार नहीं है। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 125 के पत्नी, बच्चे और अभिभावक के गुजारा भत्ता प्रावधान के तहत अहमद खान को शाहबानो को गुजारा भत्ता देने का निर्णय सुनाया। जिस पर उस समय कई मुस्लिम संगठनों और कट्टरपंथियों ने काफी विरोध भी किया था।
समुदायों के पर्सनल कानून किस हद तक महिलाओं के विरोध में है इसका एक और उदाहरण इमराना नाम की मुस्लिम युवती भी है। उत्तरप्रदेश के मुजफ्फरनगर में रहने वाली 28 वर्षीय इमराना के साथ 6 जून 2005 को उसके ससुर ने बलात्कार किया। मामला स्थानीय शरिया अदालत में ले जाया गया। वहां से फरमान जारी हुआ कि चूंकि उसके ससुर ने उसके साथ बलात्कार किया है, इसलिए ससुर का बेटा अर्थात इमराना का पति, इमराना के लिए बेटे समान हो गया है और दोनों का निकाह अपने आप निरस्त हो गया है। और इमराना को अपने ससुर को पति मानना पड़ा। इसी तरह ना जाने कितनी इमराना और शाहबानो नाम की मुस्लिम महिलाएं होंगी जो शरीयत कानून और पर्सनल कानून के कारण एक जिंदा लाश की तरह जीने को मजबूर होंगी।
इसलिए समान नागरिक संहिता अब इस देश की आवश्यकता बन चुकी है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले इस देश में समान नागरिक संहिता लागू करने का वादा किया था। लेकिन लगभग 15 महीनों की मोदी सरकार में इसके लिए कोई कदम अभी तक उठाया नहीं गया है। जरूरी है कि सरकार मुस्लिम महिलाओं के हित और कल्याण को ध्यान में रखकर समान नागरिक संहिता की पहल करे, बजाय राजनीतिक फायदे के।
प्रियंक द्विवेदी
priyank.kumar.dwivedi@gmail.com
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