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7.7.20

चितरंजन भाई - स्मृति शेष : इतना बड़ा परिवार पूरे देश में विरले ही किसी को नसीब होता है



कंधे पर लटकता झोला, गले में गमछा, कुछ ज्यादा ही पकी छोटी-छोटी हल्की दाढ़ी और हथेली पर मलते-पीटते खैनी के साथ चितरंजन भाई। देखने-सुनने में अति सहज चितरंजन भाई। दबे-कुचले लोगों की मजबूत आवाज चितरंजन भाई। कभी किसी को शिकायत का मौका नहीं देने वाले चितरंजन भाई। लेकिन आखिर आपने शिकायत का मौका दे ही दिया। मेरी शिकायत है... इतनी जल्दी क्यों चले गए आप। अभी तो और सुनाई देनी है इंकलाब की जोरदार गर्जना। अभी तो पूंजीवाद को जहान से मिटाना है। अभी तो सामराजों को सजा-ए-मौत पाना है। अभी किसान-कामगारों का राज कायम करना है। अभी तो जहान में बहुतेरे कामकाज बाकी हैं, जिनको पूरा करना है। 68-70 साल की उम्र ही क्या थी।

अभी तो जिंदगी मुसीबतों का नाम है!
अभी तो नींद मौत की मेरे लिए हराम है!!

चितरंजन भाई, आप सुन रहे हैं न इस नज्म को। यह नज्म आपके ही प्रिय शायर फिराक की है। जिन्हें आपकी पीढी़ हुजूर कहा करती थी। अगर आप आज नहीं सुन रहें तो आपकी तैयार की हुई नस्लें जरूर सुन रही हैं। इस नस्ल को आपने एक वैचारिकी से लैश किया है। जो शंकर गुहा नियोगी हत्याकांड के प्रतिरोध से लेकर बलिया के पेप्सी कोला बॉटलिंग प्लांट के संघर्ष के दौरान मुहिम में आपके साथ संघर्ष के गवाह रहे हैं।

पिछले पांच दशकों से इतिहास के हर उस मोड़ पर आप पूरी ताकत और सक्रियता से नजर आए। जहां से सामाजिक बदलाव की थोड़ी भी संभावना दिखाई दी। चितरंजन भाई आप संघर्ष, सहयोग, आत्मीयता, मानवीयता और पारिवारिकता के धागे से बुनकर एक ऐसी चादर तैयार कर गये हैं जिसे मैली करने की हिमाकत आपको चाहने वाला कोई शायद ही करे। घोर अन्याय, अत्याचार से जूझ रही जमातें आपकी जिंदगी की दीवार पर लिखी इबारत के हर लफ्ज़ से सबक ले सकती हैं।

मुझे यकीन है कि आपकी किसी भी लड़ाई में, आपके संघर्षों में और आपके हक-ओ-हुक़ूक़ के लिए अपने फकीरी अंदाज में चितरंजन सिंह कहीं भी, कभी भी आपके बीच होंगे। ऐसे शख्स का हमारे बीच से विदा होना, महज भौतिक शरीर का त्याग भर है। क्योंकि जिंदगी तो हर रोज मिलती है। मौत का एक ही दिन निश्चित है। ऐसे लोग हमेशा जिंदा रहते हैं अपने काम और विचार की वजह से । चितरंजन सिंह भी इन वजहों से हमारे बीच हमेशा जिंदा रहेंगे।

हम चाहे तो उनसे बात कर सकते हैं। सलाह-मश्वरा भी ले सकते हैं। गलतियां करने पर गाहे-बगाहे फटकार और झिड़कियां भी सुन सकते हैं। स्वर्गीय देवी प्रसाद त्रिपाठी (डीपीटी) जब शाम को बेलगाम हो जाते थे तो अक्सर ऐसा होता ही रहता था। चितरंजन भाई की एक डांट पड़ी नहीं कि डीपीटी अपने पूरे होशोहवाश में। आत्मीयता का ऐसा सेतु चितरंजन भाई ने तैयार किया कि उस डांट फटकार में भी गजब का अपनत्व दिखाई देता था। यह हैसियत पूरे देश में अकेले चितरंजन भाई को अपने चाहने वालों के बीच हासिल थी। जहां तक परिवार का सवाल है, जहां वे गए और जिनके बीच रहे वही उनका अपना परिवार हो जाता था। इतना बड़ा परिवार पूरे देश में विरले ही किसी को नसीब होता है।

मनोरंजन के भैया और उनके बच्चों के बड़े पिता भर नहीं थे चितरंजन भाई। महज ग्यारह-बारह साल ही गुजरे होंगे अपने परिवार और घर के बीच उनका। जिंदगी का तीन चौथाई से ज्यादा हिस्सा बीता है पूरे देश में फैले परिवारों के बीच। उतनी ही आत्मीयता, सहजता, निकटता और अपनेपन के साथ। हां, जिसे आजकल न्यूक्लियस फैमिली, यानी पति-पत्नी और बच्चों का आत्मकेंद्रित परिवार कहते हैं, ऐसा परिवार चितरंजन भाई को ना कभी नसीब हुआ और ना ऐसा उन्हें कभी गंवारा था।

एक अजीब बिडम्बना रहा उनके जीवन में, जिसे शिद्दत से चाहा वह हमेशा उनसे दूर होता चला गया। अपनी पत्नी, अपनी बेटी रजनी और कुमुदिनी के साथ संबंध भी कुछ ऐसे ही रहे। ऐसी दुर्घटनाओं के वक्त हर बार कुछ समय के लिए अंदर से वे बिखरे हुए नजर आते थे, पर जल्द ही अपने को संभाल लेते थे। गरीब, मजलूमों की लड़ाई लड़ने के लिए, उनके संघर्ष में शरीक होने के लिए ही अपनी गृहस्थी का सारा सामान अपने कंधों पर देश के एक किनारे से दूसरे किनारे तक ढोते रहे। शरीर जब जवाब देने लगा तो मनोरंजन के परिवार के घरौंदे में पहली बार कैद हुए। फिर अपने देश में फैले पूरे परिवारों से फोन से संपर्क में रहे। यह सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक उनकी जुबान में बोलने की ताकत रही।

ऐसी बेमिसाल शख्सियत वाले चितरंजन भाई का हमारे बीच से विदा होना महज एक परिवार की निजी क्षति नहीं हो सकती। पूरे देश में उनके परिवारों ने अपना एक गार्जियन, एक बुजुर्ग खोया है। जो अपनी सोच, अपने बात-व्यवहार, अपने रहन-सहन दूसरों से बोलते बतियाते हर वक्त अपनों से जुडे रहे। जो शख्स अपने हर दिल अजीज से कहता है- 'मेरा तरीका अमीरी नहीं फकीरी है। खुदी न बेच गरीबी में नाम पैदा कर।'

मोहन सिंह
दोकटी

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