Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

17.7.20

प्रताड़ना तंत्र में तब्दील होता प्रजातंत्र!


भारत के हुक्मरान कैसा सिस्टम चाहते हैं, यही कि गरीबों के साथ ज़ुल्म और अमीरों की जी-हुजूरी हो? क्या आप ये चाहते हैं कि, भारत का सिस्टम गरीबों के साथ बर्बरता का बर्ताब करे और अमीरों के तलवे चाटे? अगर साहिबानों को गरीबों को प्रताड़ित करके ही भारत को विश्व गुरु बनाना है तो, प्रताड़ना तंत्र का विश्वगुरु आपको मुबारक हो! हमारे देश के स्कूलों और कॉलेजों में भले ही पढ़ाने के लिए गुरु न हो। लेकिन नेता दंभ विश्वगुरु का ही भरेंगे।

देश के कई हिस्सों से पुलिसिया बर्बरता की खबरें आती ही रहती है। देश का ऐसा कोई हिस्सा नहीं है जहां की जनता पुलिसिया बर्बरता के रूबरू न हो। गुना की तस्वीर आत्मा को झकझोर देती है। पुलिस की बर्बरता और कीटनाशक दवा पीने के बाद अपने पिता को गोद में लेकर चीखते-बिलखते बच्चों की आवाज़ से अगर आपका दिल नहीं दहलता, तो यकीन मानिए सत्ता के सपनों का भीड़तंत्र बन चुका है। सत्ता जैसे नागरिकों का निर्माण करना चाहती थी, उसके मंसूबे कामयाब हो गए हैं। सत्ता तो ऐसे ही भारत का निर्माण करना चाहती थी जिसमें मूकदर्शक विपक्ष, मरा हुआ सिस्टम, अंधभक्त नागरिक और डरा हुआ मीडिया हो।

मध्यप्रदेश के गुना में एक दलित किसान दंपति की पुलिस ने बेरहमी से पिटाई की, ताकि उन्हें सरकारी ज़मीन के एक टुकड़े से हटाया जा सके। जहां पर उनकी फसल खड़ी थी। इसके बाद दंपति ने कीटनाशक पीकर अपना जीवन समाप्त करने की कोशिश की है। गुना में दलित किसान दंपति के साथ प्रशासन के अधिकारियों ने जिस तरह से मारपीट की, वह अति निंदनीय है। जो तस्वीर सामने आई है वो दिल दुखाने वाली है, क्योंकि एक तरफ पुलिस पति-पत्नी को पीट रही है तो दूसरी ओर उनके बच्चे रो रहे हैं और अपने मां-बाप को बचाने की कोशिश में हैं। उन छोटे-छोटे बच्चों ने अपने माँ बाप को गोद लिए रो रहे है, बिलख रहे है। जो तस्वीर और वीडियो वायरल हुए है, वह सिर्फ उन गरीबों की बेबसी की ही नहीं है बल्कि भारत के मरे हुए सिस्टम और जनता की मरी हुई आत्मा की है।

डॉयचे वेले के अनुसार भारत में पुलिस की बर्बरता एक बड़ी समस्या है। सरकारी आंकड़ों के अनुसार अप्रैल 2017 से फरवरी 2018 के बीच पूरे देश में पुलिस की हिरासत में 1,674 लोगों की जान चली गई, यानी औसत पांच जानें हर रोज। हिरासत के बाहर पुलिस द्वारा इस तरह के मार-पीट के मामले आम हैं। जानकार कहते हैं कि पुलिस के इस रवैये की विशेष मार अल्पसंख्यकों, दलितों, आदिवासियों, किन्नरों और प्रवासियों पर पड़ती है और यही लोग पुलिस द्वारा हिंसा के सबसे बड़े शिकार बनते हैं।

2006 में सुप्रीम कोर्ट ने प्रकाश सिंह फैसले में पुलिस सुधार के कई निर्देश दिए थे लेकिन उनमें से अधिकतर निर्देशों का पालन अभी तक नहीं हुआ है।

ये तो सिर्फ एक रिपोर्ट है। न जाने और कितनी रिपोर्ट है जो पुलिसिया बर्बरता की पोल-खोलती है। जेएनयू, ए.एम.यू यूनिवर्सिटी में भी पुलिस ने छात्रों के साथ बर्बरता की थी और उन्हें डंडों से बुरी तरह पीटा था। हाल में लागू हुए राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान भी प्रवासी मजदूरों को पुलिस में बेरहमी से पीटा था। क्या पुलिस में मानवीय संवेदना मर चुकी है। क्या पुलिस कानून और लोकतंत्र से परे है? क्या पुलिस हुक्मरानों की कठपुतली है जो जैसा नचाएगा पुलिस वैसे ही नाचेगी? अगर पुलिस को सत्ता और साहिबानों के इशारों पर नाचना है तो रोज शाम को सत्ता के दरबार में जाकर मुज़रा करे। लेकिन गरीबों, मज़लूमो पर सितम ढाना बंद करे। क्योंकि पुलिस की इन्हीं अमानवीयता के कारण प्रजातंत्र, प्रताड़ना तंत्र में तब्दील होता जा रहा है।

स्वतंत्र लेखक- मनीष अहिरवार
E-mail- mgoliya1@gmail.com
पता-हाउसिंग बोर्ड होशंगाबाद

No comments: