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2.3.09

हल चलाता हुआ मंगरू

सोचता हूँ , हल चलाता हुआ मंगरू मुझसे अच्छा हैउसे अपने काम का पता तो है वह मन से कर भी रहा है
मुझे तो बहुत कुछ पता ही नही और कुछ - कुछ पता है भी तो काम नही करतामन से तो बिल्कुल ही नही
अवसर की आहट कई बार सुन कर भी अनसुना कर चुका हूँ , जिसका खामियाजा आजतक भुगत रहा हूँलगता है , कोई भी मंडप मेरे लिए नही सजेगामेरा कभी भी अभिषेक नही होगामै अकेला ही रह जाऊँगारातों में चाँदनी नसीब नही होगी
कोई राह नही कोई , कोई मंजील नही दिखती , गोल गोल घूम रहा हूँलगता है , आगे बढ़ रहा हूँ
क्या करू ,निर्दोष हिरणों को मारकर सेज नही सजा सकता ,
सो दुनिया से दो कदम पीछे रह गया
बछडे का हक़ मारकर पंचामृत नही बना सकता ,
सो प्यासा रह गया
चंदन तरु काटकर तिलक नही लगा सकता ,
सो आगे नही जा पाया

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