थाली में दीप सजा, द्वार पर वन्दनवार लगा,
साँझ से ही देहरी पर जा बैठी थी बावरी,
अनन्त तक तकती आँखों ने,
क्षितिज को लाल होते देखा,
अंधेरे को धीरे धीरे सरक कर आते,
और तारों को एक एक करके चटखते.
रात के साथ साथ
आँखों में कुछ गहराता गया.
उषा के आने का सन्देश लाने वाले
झोंके के साथ ही बोझिल नींद
अभागन की पलकों पर आ बैठी
और सिर चौखट से लग गया,
ऐसे में तुम आये बेदर्द और आकर लौट गये.
16.1.10
प्रतीक्षा
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
2 comments:
ख़ूबसूरत कविता।
वाह! खूब लिखा है.
Post a Comment