-रविकुमार बाबुल
सर्द मौसम भले ही देश की रफ्तार थामने की कोशिश कर रही हो, लेकिन जनाब, सियासत तो भ्रष्टाचार के अलाव पर दिल्ली से निकल, पश्चिम बंगाल और गुवाहाटी में हाथ सेंकने की जुर्रत जुटाये बैठी है, ऐसे में आम आदमी की हैसियत की फिक्र उसके एक वोट के अतिरिक्त किसी को क्यों कर होने लगी? जवाब साफ है...... एक वोट की खातिर सरकार अर्जुन कमेटी कि रिपोर्ट पर क्यों फिक्रमंद हो? मसलन देश की 70 फीसदी आबादी ठंड में ठिठुरते हुये मात्र बीस रूपया या उससे कम ही रोज कमा पाती है, ौर सरकार है कि वह न्यूनतम मजदूरी 230 रूपये प्रतिदिन मिल रहा है, मान बैठी है? ऐसे में 70 फीसदी अवाम के भूख की चीख-चित्कार सत्ता के गलियारे तक अपनी पहुंच ही नहीं बना पाती हैं? तब ऐसे में अपरा या आत्महत्या के बहाने बिछी इन लाशों पर जो राजनीति की जाती है, उससे लोकतंत्र भले ही शर्मसार हो जाये लेकिन हुक्मरानों को शर्म नहीं आती है?
आज के लोकतंत्र का एक मात्र सत्य यही हो चला है कि सत्ता की छत्रछाया में भ्रष्ट हो चले देश के सभी पाये दागदार दिखने लगे हैं। इन्हें साफ करने या यह कहलें रखने की हैसियत अब लगता है किसी की रही ही नहीं हैं? और इन पायो को जिसने भी पकडऩे का दुस्साहस जुटा लिया भूख तो छोडिय़े, उन्हें अय्याशी का हर सामान मुहैया हो गया। लेकिन जिन्होंने ऐसे दागदार हो चले लोकतंत्र के पायो के मैल को देश की आजादी में शहीद हुये रणबांकुरों के खून से धोने का प्रण ले लिया है, उनकी ते हैसियत यह हो गयी कि वह सरकारी कोरे कागजों पर अंगूठा लगाकर मनरेगा को मन से मानने की बात लोकतंत्र को अंगूठा दिखाने वाले सफेदपोशों के दबाव में कहें ही नहीं बल्कि स्वीकारें भी? यह वास्तविक तस्वीर है हमारे दिन्दुस्तान की।
अनिवार्य शिक्षा की बात करने वाली सरकार से कौन पूछे कि पाकिस्तान के सामने प्याज के लिये कटोरा लेकर खड़ी हो जाने वाली सरकार से यह उम्मीद क्यूं कर की जाये, कि मजबूरी में मजदूरी करने वाला शख्स अपने बच्चों को ककहरा सिखलायेगा ही? वह भी तब, जब किसी ढ़ाबे में जूठे बर्तन धोकर या विकास के तेज रफ्तार के दौर में पंक्चर जोडऩे वाला नौनिहाल इस मुल्क में महंगाई के इस दौर में अपनी दिहाड़ी को परिवार का पार्ट-टाईम नहीं बल्कि लाइफ-सपोर्ट इन्कम बनाये बैठा है, या यूं कहें मान बैठा है?
जनाब..... ग्वालियर, आगरा, झाँसी, इन्दौर ही नहीं, जिस भी शहर को खंगालियेगा वहां सफेदपोशों ही नहीं, नौकरशाहों ने भी आम अवाम् का जीना मुहाल कर रखा है? लोकतंत्र के मंदिर में शायरी करके सियासत करने वाले हुक्मरानों से पूछ बैठियेगा आखिर क्या वजह है कि तेंदू के पत्ते में तम्बाकू भरने वाली औरत को उसका वाजिब मेहनताना क्यूं नहीं मिलता है? तो यकिन मानियेगा, आपका सवाल उनके हुक्के की गुडग़ुड़ाहट में अनसुना सा ही रह जायेगा या फिर उनकी बेशकीमती सिगार के कश के धुएं में आपका सवाल सिगार के धुंयें सरीखे सा ही उड़ जायेगा? उनका यह सवाल जरूर आपको बगले झांकने पर मजबूर कर देगा कि इल्म रहे या हिन्दुस्तान है?
जी जनाब...... यह दिन्दुस्तान है, वह हिन्दुस्तान जहां विकास के मोती को कोई आँखें धागों में नहीं पिरोती है, बल्कि विकास के मंजर को देखने की बाट जोहती आँखों को ही इन धांगों में पिरो लिया जाता है। बड़ी अजीब स्थिति है।
शायद यही वजह है कि मुफलिसी में कोई बीमार न पड़े यह सोचकर साफ-सुथरा रह लेने की कोशिश भी अब भारी पडऩे लगी है और आम जनता का खुद को हितैशी कहने वाली सरकार के नुमाइंदे गरीबी रेखा के नीचे उन्हें ही रखने को अपना पैमाना मान बैठे हैं, जो गंदगी के बीच रहें या यह कहें कि वह आज सरीखी गंदी हो चली राजनीति के बीच ही रहें? शायद यही वजह है कि ऐसे तमाम बी.पी.एल. कार्ड धारकों के कार्ड खारिज कर दिये है? गरीबी में स्वच्छ रहने की जद्दो-जहद के बीच अवैध तरीके से नियोजित किये गये कॉलोनियों के वाशिंदों के एक वोट की खातिर यहां बिजली भी आयी और नाली भी बह निकली। बिजली में करन्ट रह-रह कर दौड़ता है, और जनाब ऐसा कि कभी-कभी जलते हुये बल्ब को मोमबत्ती की लौ भी जीभ चिढ़ाती सी दिखती है? नाली नदी की तरह गली में सैलाब का सा रूतबा लिये बहती है इसी सैलाब में इनके वोट तो बह जाते है, लेकिन मुफलिसी आज तलक नहीं बह पायी है?
विकास के बहाने मुल्क को लूटने वाले राजनीतिज्ञ और नौकरशाह हमारी अंजुरी में कुछ देगें, अब यह सोच लेना या मान लेना बेमानी होगा? यह और बात है कि हमने तो उन्हें शिद्दत ही नहीं, पूरी ईमानदारी के साथ अपना यह मुल्क सौंप दिया था?
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