खुदरा माफिया से बेफिक्र भारतीय वित्त व्यवस्था
देश के बिहार जैसे राज्य जिन्हें अक्सर बीमारु राज्य कह दिया जाता है उनकी एक विशेषता यह है कि दुनिया के सबसे सस्ते शहरों में से कई यहीं हैं। अमीर राज्यों में प्रति व्यक्ति आय ज्यादा होने से क्रयशक्ति ज्यादा है और क्रेडिट कार्ड जैसे आधुनिक विनिमय साधन भी ज्यादा है जिसकी वजह से महंगाई ज्यादा है।
कम क्रयशक्ति वाले बाजार में खुदरा की जरुरत ज्यादा होती है बजाए उनके जो क्रेडिट कार्ड से खरीदारी करते हों। लेकिन गरीब की बात सुनता कौन है। आज भी बिहार के गावों में तीन रुपये में समोसा और दो रुपये में खीरा मिल जाता है, लेकिन वहां बाहरी लोगों को सिर्फ इसलिए भुखा रहना पड़ सकता है क्योंकि खुदरा आपके पास नहीं है और विक्रेता के पास भी नहीं है। गांव तो भूल जाइए, बिहार के आधे पंचायतों मे अभीतक बैंक ही नहीं पहुंचा है तो खुदरा कौन उपलब्ध करवाए – ऐसी स्थिति में छोटी जोत वाले जो किसान रोज बाजार में टोकरी में सब्जी लेकर बेचने जाते हैं, खुदरा की उपलब्धता में कमी का दर्द उन्हें ही पता है।
दुसरी तरफ ग्रामीण खुदरा दुकानदार उधार ले-देकर काम चलाते हैं जिससे करेंसी से काम चल सके, लेकिन इसकी मार उसके व्यवसाय पर पड़ती है क्योंकि कभी-कभार आनेवाले या अंजान ग्राहकों को उधार नहीं दिया जा सकता। ये समाज के वे लोग हैं जिन्हें आज भी एक रुपये की अहमीयत का एहसास है और यह समाज का वह हिस्सा है जहां दो रुपये के सिक्के के लिए 10 रुपये का नोट लेकर एक घंटा घुमना पड़ता है।
शहरों की हालत भी बड़ी अच्छी नहीं है। कई बार ग्राहक और दुकानदार इस बात को लेकर भीड़ जाते हैं कि खुदरा रखना किसकी जिम्मेवारी है। सुबह-सुबह टेम्पो ड्राइवर की बोहनी खुदरा की वजह से खराब होगी तो गुस्सा ग्राहक पर ही उतरता है।
“5 किलो आलु बेचने पर 2 रुपया बचता है, बाजार रोज ऊपर नीचे होता रहता है, कंपीटिशन अलग से है, इसलिए 2-3000 रुपया का खुदरा रोज लेकर बाजार में बैठना पड़ता है” पटना के राजाबाजार के एक सब्जी विक्रेता अनिल ने बताया। रोज सब्जी लाने और बेचने के अलावा खुदरा का जुगाड़ करना भी इनकी रुटीन में शामिल हो गया है। पहले तो आइसक्रीम वाले से जुगाड़ हो जाता था, जब से आइसक्रीम 5-10 रुपये के डिब्बे में आने लगी वह रास्ता भी बंद हो गया। पंडित जी एक दुसरे श्रोत थे लेकिन अब उन लोगों ने भी बाजार में आरती घुमाने का काम बटाइदारी पर देकर खुद बड़े कर्मकांडों को पकड़ लिया।
यह पुछने पर कि बैंक से खुदरा मिलता है क्या, उसने बताया कि बैंक रोज इतना खुदरा नहीं देते इसलिए कुछ तो बैंक से जुगाड़ करना होता है और कुछ बाजार से (बैंकिंग की समांतर व्यवस्था) से खुदरा उठाना पड़ता है।
शहरों मे खुदरा की कमी का विकल्प बन कर उभरा है 50 पैसे और एक रुपये का चॉकलेट, लेकिन एक रुपये की कीमत समझने वाले कुछ लोग इसका विरोध करते है और दुकानदार के पास खुदरा आने का इंतजार करते दीख जाते हैं। झुंझलाते-बुदबुदाते ये लोग यह नहीं समझ पाते कि पैसे से खात्मे से शुरु हुआ रुपये की हत्या की राष्ट्रीय योजना रुपी नदी, महंगाई और खुदरा की कमी तो दो किनारों के बीच ही बहती है।
पेश हैं कुछ तथ्य:
• 10,000 रुपये प्रतिदिन कारोबार करने वाले औसत सब्जी दुकानदार को जरुरत होती है प्रतिदिन 200-300 रुपये के सिक्के और 2000 रुपये के खुदरा नोटों की।
• बैंक इतना खुदरा रोजाना देने से कतराते हैं, जिससे दुकानदारों को 5-10% के बट्टे पर ब्लैक मार्केट से खुदरा लेना पड़ता है।
• शहरी क्षेत्रों में चाकलेट बने खुदरा के विकल्प, दुकानदार देते तो हैं लेकिन लेते नहीं, चाकलेट कंपनियों की बल्ले-बल्ले।
• एक निश्चित सीमा से ज्यादा खुदरा लेन देन पर बैंक विशेष अधिभार लगाते हैं।
• बड़े शहरों की कुछ ही बैंक शाखाओं में खुदरा देनेवाली ए0टी0एम0 उपलब्ध हैं, उनपर पर भी एक बार में खुदरा प्राप्ति की सीमा निश्चित है।
• खुदरा न रहे तो ग्रामीण क्षेत्रों मे रहना पड़ सकता है आपको भूखा, चाय भी नहीं मिलेगी।
• ग्रामीण क्षेत्रों के व्यवसायियों का बुरा हाल, लेन-देन की रकम छोटी होती है लेकिन खुदरा उपलब्ध नहीं।
• खुदरा की कमी से ग्रामीण व्यवसायी जान-पहचान के ग्राहकों को उधार देकर चलाते है धंधा।
• सिर्फ बड़े नोट उगलने वाले ए0टी0एम0 भी हैं जिम्मेवार।
• लिक्विडीटी पर तुरत कदम उठानेवाला भारतीय वित्तीय तंत्र खुदरा के मुद्दे पर रहता है खामोश।
• परिणाम भुगतते हैं छोटे सब्जी उत्पादक, छोटे किसान, छोटे व्यवसायी और निम्न तबका।
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