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17.6.13

कहाँ हुई भाजपा से चूक?-ब्रज की दुनियाकहाँ हुई भाजपा से चूक?-ब्रज की दुनिया

 

मित्रों,अगर आपने भारत का इतिहास पढ़ा होगा तो आप जानते होंगे कि 1789 से 1792 तक मैसूर का तृतीय युद्ध चला था। इस लड़ाई में एक तरफ तो मैसूर के शेर टीपू सुल्तान थे तो दूसरी तरफ थे अंग्रेज,मराठे और निजाम। युद्ध में टीपू बुरी तरह पराजित हुआ था और अगर अंग्रेज गवर्नर जनरल लार्ड कार्नवालिस चाहता तो तभी उसे प्राणहीन और राज्यविहीन कर सकता था। लेकिन उसने ऐसा किया नहीं और श्रीरंगपट्टनम् की संधि करके टीपू को मैसूर का शासक बना रहने दिया। जब ब्रिटिश सरकार ने नाराज होकर उससे ऐसा करने का कारण पूछा तो उसने बताया कि मैं शत्रु को तो समाप्त करना चाहता था लेकिन साथ ही मित्रों को इतना मजबूत भी नहीं होने देना चाहता था कि वे भविष्य में हमारे लिए ही खतरा बन जाएँ। जहाँ तक टीपू को समाप्त करने का सवाल है तो अब तो ब्रिटिश सेना यह काम अकेले भी और जब चाहे तब कभी भी कर सकती है। कहने का आशय यह है कि अगर तब टीपू को समाप्त कर दिया जाता तो अंग्रेजों को उसका राज्य तीन बराबर हिस्सों में बाँटना पड़ता जिससे मराठे और निजाम खासे शक्तिशाली हो जाते।
                        मित्रों,लगता है कि भारतीय जनता पार्टी में कोई भी इतिहासकार या इतिहास का विशेषज्ञ नहीं है नहीं तो वो भी इसी तरह कार्नवालिस की नीति पर चलती। दुर्भाग्यवश भाजपा के साथ ऐसा दूसरी बार हुआ है। पहली बार कुछ ऐसा ही उसके साथ उड़ीसा में भी हो चुका है। भारतीय जनता पार्टी लालू विरोध की धुन में भूल गई कि अगर कभी नीतीश कुमार ने अकेले ही बहुमत पा लिया तो गठबंधन का क्या होगा। कोई भी पार्टी लगभग 100 सीटों पर चुनाव लड़कर 91 सीट ही जीत सकती है 122 तो कभी नहीं। हालाँकि पिछले विधानसभा चुनाव में प्रतिशत सफलता के मामले में नीतीश भाजपा से काफी पीछे थे फिर भी उनकी पार्टी ने चूँकि 140 से भी ज्यादा स्थानों पर चुनाव लड़ा था इसलिए उसको 116 सीटों पर सफलता हाथ लगी। राजग तो 24 नवंबर,2010 को ही नीतीश कुमार के लिए बेमानी हो गया था और वे तो तभी से इससे पिण्ड छुड़ाने का बहाना ढूँढ़ रहे थे। जदयू और नीतीश कुमार का यह तर्क भी पूरी तरह से हास्यास्पद है कि नरेंद्र मोदी सांप्रदायिक हैं तो क्या आडवाणी जो 2009 में राजग की तरफ से प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार थे और कभी नरेंद्र मोदी के तारणहार भी रह चुके हैं सांप्रदायिक नहीं थे और अगर नहीं थे या हैं तो कैसे? आज नीतीश के पास 116 विधायक हैं तो भाजपा बुरी हो गई और अगर यही गिनती 100 से कम होती तो कदापि बुरी नहीं होती। अगर गुजरात के दंगों में भाजपा की प्रदेश सरकार का हाथ था तो क्या कारण था कि नीतीश कुमार ने दंगों के समय या तत्काल बाद केंद्रीय रेल मंत्री के पद से इस्तीफा क्यों नहीं दिया? इतना ही नहीं ये वही नीतीश कुमार हैं जिन्होंने गुजरात दंगों के बाद भी कई बार नरेंद्र मोदी की बड़ाई की है। जाहिर है कि आज समीकरण बदल चुके हैं और नीतीश के पास पर्याप्त संख्या बल है। आज उनको सत्ता में बने रहने के लिए भाजपा को साथ में लेकर चलने की जरुरत नहीं है कल जरुरत पड़ेगी तो फिर देखा जाएगा। वे घोर अवसरवादी तो हैं ही फिर से हाथ-पाँव जोड़कर चिपक लेंगे।
                          मित्रों,स्पष्ट है कि नीतीश कुमार ने भाजपा के रणनीतिकारों को तगड़ा झटका दिया है। सबसे ज्यादा सबक ग्रहण किया होगा सुशील कुमार मोदी ने। उम्मीद है कि आगे से भाजपा क्षेत्रीय दलों से सीटों का समझौता करते समय इस बात का ख्याल रखेगी कि सहयोगी को बड़ा भाई न बनाया जाए और खुद वो ज्यादा सीटों पर चुनाव लड़े। नहीं तो उसको इसी तरह लगातार विश्वासघात के झटके लगते रहेंगे और बार-बार धोखे खाने पड़ेंगे। वैसे भी राजनीति में न तो कोई किसी का स्थायी मित्र होता है और न ही स्थायी शत्रु और प्यार और जंग में सबकुछ जायज तो होता ही है।

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