हिन्दी सिनेमा में कुछ अभिनेता ऐसे भी हुए, जिन्होंने नैसर्गिक अभिनय (नैचरल एक्टिंग) के सहारे कामयाबी हासिल की। इस कोटि में मोतीलाल सर्वप्रमुख हैं। संजीवकुमार और बलराम साहनी भी नैचरल एक्टर माने जाते है। मोतीलाल जन्मजात शोमेन रहे कहे जाते है। वह लगातार तैंतीस साल तक नायक या चरित्र-नायक के रूप में फिल्मी परदे पर आते रहे और दर्शकों को भाते रहे। उन्होंने हिन्दी-सिनेमा की मेलोड्रामाई संवाद-अदायगी और अभिनय की सँकरी-लीक को छोड़कर स्वच्छंद-अभिनय की एक नई शैली से दर्शको को रू-ब-रू कराया। अभिनय के लिए मशक्कत करते उन्हें कभी नहीं देखा गया। फिल्म-जगत में मोतीलाल को दादामुनि अशोक कुमार के समान अग्रज माना जाता था। उनके खाते में अनेक अच्छी फिल्में दर्ज हैं।
मोतीलाल की विशिष्ट पहचान फेल्ट-हैट से थी, जिसे उन्होंने कभी मुड़ने नहीं दिया। शार्क-स्कीन के भड़कीले शर्ट-पैंट, चमचमाते जूते, मस्त चालढाल, राजसी अंदाज, हाव-भाव में नफासत, बातचीत का नटखट लहजा, कुल मिलाकर एक जिंदादिल आदमी की छवि पेश करते थे मोतीलाल राजवंश। वे जीते-जागते कैलिडोस्कोप थे। जब देखो, जितनी बार देखो, हमेशा निराले नजर आते। मोतीलाल संगीत-मर्मज्ञ भी थे। वे बाँसुरी, वायलिन, हार्मोनियम और तबला बजाना जानते थे। अपने टेरेस-अर्पाटमेंट में वे हमेशा संगीत-महफिलें जमाते, जिनमें सहगल भी आते थे। उन्होंने अस्सी से अधिक फिल्मों में महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाई, जिनमें राजकपूर अभिनीत ‘अनाड़ी’ और दिलीपकुमार की ‘पैगाम’ तथा ‘लीडर’ भी शामिल है।
मोतीलाल का जन्म 4 दिसंबर 1910 को शिमला में हुआ था वे दिल्ली के एक सुसंस्कृत परिवार से थे। उनके पिता शिक्षा विभाग में इंस्पेक्टर थे। मोतीलाल एक साल के ही थे कि पिता चल बसे। उनके परिवार को चाचा के घर रहना पड़ा, जो उत्तरप्रदेश में सिविल सर्जन थे। इन चाचा ने मोतीलाल एवं उनके पाँच भाई-बहनों की परवरिश की। चाचा ने ही मोतीलाल को जीवन के प्रति उदारवादी नजरिया दिया। शिमला के अंग्रेजी स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा लेने के बाद मोतीलाल ने पहले उत्तरप्रदेश, फिर दिल्ली में पढ़ाई की। स्नातक की उपाधि उन्होंने दिल्ली से ली। कॉलेज के दिनों में वे ऑल-राउंडर थे।
युवावस्था में नैवी ज्वॉइन करने के इरादे से मुंबई पँहुचे तो ऐन-परीक्षा के दिन बीमार हो गए और प्रवेश परीक्षा नहीं दे पाए। इस बात का उन्हें रंज तो था, लेकिन एक दिन शानदार कपड़े पहनकर शूटिंग देखने के इरादे से सागर स्टूडियों जा पहुँचें। वहाँ डायरेक्टर कालीप्रसाद घोष किसी सामाजिक फिल्म की शूटिंग कर रहे थे। घोष बाबू तेज-तर्रार युवा मोतीलाल को देखकर दंग रह गए, क्योंकि अपनी फिल्म के लिए उन्हें ऐसे ही हीरो की तलाश थी। जिसकी तलाशी थी, वह खुद सामने प्रकट हो गया – फिल्मी दुनिया में ऐसे इत्तफाक बहुत सुनने को मिलते हैं।
घोष बाबू ने अपनी फिल्म ‘शहर का जादू’ (1934) के नायक के रूप में उन्हें चुन लिया और नायिका सवितादेवी के समक्ष प्रस्तुत कर दिया। सवितादेवी इस फिल्म की नायिका थीं। तब फिल्मों में पाश्र्वगायन आम प्रचलन में नहीं था, उसलिए मोतीलाल को अपने गाने खुद गाने पड़े। गायक मन्ना डे के दृष्टिहीन चाचा कृष्णचंद्र डे फिल्म के संगीतकार थे। उन्होंने मोतीलाल से एक गीत गवाया, जिसके बोल थे – ‘हमसे सुदंर कोई नहीं, कोई नहीं हो सकता’। तब यह गीत लोकप्रिय हो गया था। सागर मूवीटोन को उन दिनों कलाकरों की नर्सरी कहा जाता था। सिंगिंग एक्टर सुरेन्द्र, बिब्बो, याकूब, माया बेनर्जी, कुमार और चिमनलाल लोहार जैसे धाकड़ भी वहाँ मोजूद थे। संगीतकारों में हीरेन बोस और अनिल बिस्वास अपनी मधुर धुनों से ‘सिल्वर-किंग’, ‘जागीरदार ’ और ‘फारबिडन-ब्राइड’ जैसी फिल्मों को सजा रहे थे। ऐसे माहौल में मोतीलाल ने अपनी शालीन कॉमेडी, मैनरिज्म और स्वाभाविक संवाद अदायगी से तमाम नायकों को पीछे छोड़ दिया।
सन् 1937 में मोतीलाल ने सागर मूवीटोन छोड़ दिया और चंदूलाल शाह के रणजीत स्टूडियों में काम करने चले गए। रणजीत की फिल्मों में उन्होंने दिवाली से होली तक, ब्राह्मण से अछूत तक और ग्रामीण गँवई से शहरी छैला-बाबू तक के किरदार निभाए। अभिनेत्री खुर्शीद के साथ उनकी फिल्म ‘शादी’ (41) सुपरहिट रही। रणजीत के बैनर वाले उन्होंने ‘परदेशी’, ‘अरमान’, ‘ससुराल’, और ‘मूर्ति’ जैसी दमदार फिल्मों में काम किया। बॉम्बे-टॉकीज ने अगर गाँधीजी की प्रेरणा से ‘अछूत-कन्या’ बनाई थी तो रणजीत ने भी ‘अछूत’ (40) नामक फिल्म बनाई, जिसमें मोतीलाल के साथ गौहर नायिका थीं। फिल्म का नायक बचपन की अछूत सखी का हाथ थामता है और अछूतों के लिए मंदिर के द्वार तक खुलवाता है। फिल्म को महात्मा गाँधी और सरदार पटेल का आर्शीवाद प्राप्त था। यह फिल्म राष्ट्रीय फिल्म संग्रहालय पुणे के पास सुरक्षित है।
मजहर खान द्वारा निर्देशित फिल्म ‘पहली नजर’ (45) में मोतीलाल के लिए गायक मुकेश ने पाश्र्वगायन किया, जो उनके चचेरे भाई थे। गाना था, ‘दिल जलता है जलने दे’, जिसके संगीतकार थे अनिल बिस्वास। उस समय में देश में सहगल की आवाज का जादू सिर चढ़कर बोल रहा था। लोगों ने समझा कि यह गीत भी सहगल का गाया हुआ होगा। लेकिन ऐसा नहीं था। यह गीत आवाज की दुनिया में मुकेश की पहली जोरदार दस्तक थी। रूप के. शौरी की फिल्म ‘एक थी लड़की’ (49) में ‘लारालप्पा गर्ल’ मीना शौरी और मोतीलाल की चुलबली जोड़ी ने दर्शकों का भरपूर मनोरंजन किया। यह जोड़ी ‘एक-दो-तीन’ में भी दोहराई गई और उतनी ही कामयाब रही। मोतीलाल के अभिनय के अनेक पहलू थे। कॉमेडी रोल में अगर उन्होंने दर्शकों को गुदगुदाया तो फिल्म ‘दोस्त’ और ‘गजरे’ में गंभीर अभिनय करके उन्हें अभिभूत कर दिया। उनके करियर की मास्टरपीस फिल्म थी ‘मिस्टर सम्पत’ (52), जिसे जेमिनी के एस. एस. बासन ने आर. के. नारायण के उपन्यास के आधार पर बनाया था। यह एक शहरी चालबाज व्यक्ति की कार गुजारियां, धोखाधड़ी इत्यादि की दिलचस्प फिल्म थी। चालीं चैपलिन की फिल्म ‘द किड’ से प्रेरित एच.एस. रवैल की फिल्म ‘मस्ताना’ (54) में मोतीलाल ने एक फक्कड़ की भूमिका को जीवंत किया। इस फिल्म का गाना – ‘झूम-झूम’ कर दो दीवाने गाते जाएँ गली-गली’ अपनी धुन में मस्ती का पैगाम सुनाए गली-गली सचमुच में गली-गली गूँजा था।
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1950 के बाद मोतीलाल ने चरित्र नायक का रूप धारण कर अपने अद्भुत अभिनय की और भी मिसालें पेश कीं। बिमल राय की फिल्म ‘देवदास’ (1950) में उन्होंने नायक दिलीपकुमार के शराबी दोस्त चुन्नी बाबू की भूमिका में जान डाल दी। इस फिल्म के दर्शकों को वह दृश्य अवश्य याद होगा, जब नशे में चूर चुन्नी बाबू घर लौटते हैं और अपनी छड़ी को दीवार पर पड़ रही खूँटी के साए पर टाँगने की नाकाम कोशिशें करते हैं। यह अत्यंत मार्मिक हास्य दृश्य था। इस फिल्म के लिए फिल्म फेयर ने उन्हें वर्ष के सर्वोत्तम सहअभिनेता का पुरस्कार घोषित किया था, जिसे लेने से उऩ्होंने इनकार कर दिया। बिमल राय की फिल्म ‘परख’ (60) की चरित्र भूमिका के लिए उन्हें फिल्म फेअर अवॉर्ड मिला। राजकपूर की फिल्म ‘जागते रहो’ (1956) में उन्होने शराबी के रोल को चार चाँद लगा दिए। यह शम्भू मित्र और अमित मोइत्रा द्वारा निर्देशत फिल्म थी। उसमें मोतीलाल शराबी के रोल में थे। वे रात में सूनसान सड़क पर झूमते लडखड़ाते गाते हैं – ‘जिन्दगी ख्वाब है’ यह एक दार्शनिक गीत था।
भिनेत्री नूतन और तनूजा की माता और जानी-मानी अभिनेत्री शोभना समर्थ के साथ मोतीलाल ने पहली बार 1936 में ‘दो दीवाने’ फिल्म में काम किया था, जो कालांतर में विशेष रिश्ते में बदल गया। नजदिकियों के चलने मोतीलाल ने उनके होम-प्रॉडक्शन की फिल्म ‘हमारी बेटी’ नूतन के साथ काम किया और इस फिल्म की पटकथा-संवाद और निर्माण की जिम्मेदारियाँ भी निभाई। असल जिन्दगी में भी वे नूतन के गॉडफादर थे। करियर के उत्तरार्ध में उन्होंने ‘राजवंश प्रॉडक्शन्स’ की स्थापना कर महत्वाकांक्षी फिल्म ‘छोटी-छोटी बातें’ (65) शुरू की। वे स्वयं इस फिल्म के लेखक, नायक, निर्माता-निर्देशक सब कुछ थे। फिल्म को राष्ट्रपिता का ‘सर्टिफिकेट ऑफ मेरिट’ जरूर मिला, मगर गर्व का यह पल देखने के लिए वह इस दुनिया में मौजूद नहीं थे। फिल्म बनाते-बनाते वे न सिर्फ दिवालिया हुए, बल्कि परेशानियों से जूझते जीवन से भी किनारा कर गए। जैसे गीतकार शौलेन्द्र के लिए ‘तीसरी कसम’ का निर्माण जानलेवा साबित हुआ, वैसा ही हाल मोतीलाल का हुआ। 17 जून 1965 को बीच कैंडी अस्पताल में उनका निधन हो गया। उनकी अधूरी फिल्म को पूरा करने का वित्तीय भार गायक मुकेश ने उठाया, जो उनसे बहुत स्नेह रखते थे। उन्होंने फिल्म का संगीत पूरा करने के लिए संगीतकार अनिल बिस्वास को दिल्ली से मुम्बई बुलाया, जो फिल्में छोड़कर दिल्ली में रहने लगे थे।
मोतीलाल को बचपन से शिकार का शौक था। वे कई बार घोड़े सहित दुर्घटना के शिकार हुए। वे दस साल की उम्र में बन्दूक चलाना सीख गए थे। उन्हें पेटिंग का चस्का भी था और वे क्रिकेट भी खेलते थे। स्टार इलेवन में उन्हें हमेशा शामिल किया जाता था। एक बार वह विजय मर्चेंट की गेंद चोटिल भी हुए। उन्होंने भी हुए। उनके आँख में लगी थी, जिसके कारण कई दिनों तक बिस्तर पर रहना पड़ा। दूसरी तरफ विजय मर्चेंट ने प्रायश्चित स्वरूप वर्षो तक मोतीलाल की हर फिल्म ‘फर्स्ट-डे-फर्स्ट शो’ देखने का व्रत लिया और इसे निभाया भी। मोतीलाल पूरे रईसी अंदाज में दोस्तों के लिए शराब पार्टियाँ आयोजित करते थे और घुडदौड़ में उनके घोड़े भी दौड़ते थे। वे अच्छे पायलट भी थे और अपने विमान से हिन्दुस्तान की सैर किया करते थे। मालाबर हिल्स पर उनका खूबसूरत बंगला था, जिसमें ऊपरी मंजिल पर मोतीलाल और नीचे उनकी पत्नी रहती थी, जो पेशे से डॉक्टर थी। ब्याहता पत्नी को अनकी जीवन-शैली पसंद नहीं थी। बाद में उन्हें छोड़कर दिल्ली चली गई । बिल्लोरी आँखों वाले अभिनेता (समुद्र-मंथन फेम) चन्द्रमोहन मोतीलाल के अंतरंग मित्र थे। मोतीलाल ने अपने समय के सभी प्रसिद्ध कलाकरों के साथ काम किया, जिनमें दिलीपकुमार, राजकपूर, नरगिस, मधुबाला, नसीम बानो, सुरैया, नूरजहाँ, मीनाकुमारी, माधुरी (पुरानी) और वनमाला के नाम उल्लेखनीय हैं। विडम्बना देखिए कि उऩकी अंतिम यात्रा में बॉलीबुड का कोई सितारा नहीं था। उनके आखिरी वर्षों की दोस्त अभिनेत्री नादिरा ने उनकी चिता को अग्नि दी थी।
मोती लाल के गाये गीत
‘मुझसे सुन्दर कोई नहीं – ‘शहर का जादू’ /1938
‘रूठी लड़की कौन मनाए’ – ‘आपकी मरजी’ /1939
‘माशूक हर जगह है, आशिक कहीं-कहीं’ – ‘शादी’ /1941
‘प्यारा-प्यारा है समां’ – ‘कमल’ /1949
मोती लाल के गाये गीत
‘मुझसे सुन्दर कोई नहीं – ‘शहर का जादू’ /1938
‘रूठी लड़की कौन मनाए’ – ‘आपकी मरजी’ /1939
‘माशूक हर जगह है, आशिक कहीं-कहीं’ – ‘शादी’ /1941
‘प्यारा-प्यारा है समां’ – ‘कमल’ /1949
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Very Nice Article
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