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21.6.13

किस्मत की हवा कभी नरम, कभी गरम - भगवान दादा

भगवान दादा 
किस्मत की हवा कभी नरम, कभी गरम 


भगवान दादा की गिनती हास्य कलाकारों में होती है, क्योंकि उन्होने सैकड़ों फिल्मों में ऐसे रोल किए, लेकिन वे उससे कहीं ज्यादा थे। 19940-50 के दशक में वे फिल्मों के नायक और निर्देशक हुआ करते थे और इतने नृत्य–निपुण थे कि अच्छे–अच्छे नचैयों की छुट्टी कर देते। उनके सधे हुए धीमे स्टेप्स इतने लुभावने थे कि उसकी नकल अमिताभ बच्चन, गोविंदा, मिथुन चक्रवर्ती, ऋषि कपूर आदि कई अभिनेताओं ने सहर्ष की। टीवी सीरियल ‘बाजे पायल’ में आशा पारिख ने उन्हें जानी-मानी नृत्यांगनाओं के समक्ष प्रस्तुत कर उनका उचित सम्मान किया। भगवान किशोरकुमार जैसे हरफनमौला कलाकार थे। बासठ साल के फिल्म करियर में उन्होने वह सब किया जो एक रचनाधर्मी कलाकार कर सकता है। 500 से ज्यादा फिल्मों में उन्होंने अदाकारी के जलवे दिखाए और 36 फिल्मों के निर्माता और निर्देशक रहे। अन्य कंपनियों की फिल्मों का निर्देशक भी किया। अपनी कमाई के बल पर वे बंगला, गाड़ी और स्टुडियों के मालिक बने और अंत में सब कुछ गँवाकर फक्कड़ जिंदगी गुजारी, लेकिन कभी कोई गिला शिकवा नहीं किया। अपनी मिसाल वे आप थे। 

भगवान दादा ने अपनी निर्माण संस्था जागृति-पिक्चर्स के बैनर तले कई सफल कॉमेड़ी फिल्में बनाईं। वे लो बजट फिल्में बनाते थे। 1938 से 49 तक वे स्टंट और एक्शन फिल्में बनाते रहे, जो श्रमिक वर्ग द्वारा पसंद की जाती। 1951 में उन्होंने नाच-गानों और हँसी मजाक से भरपूर ऐसी फिल्म बनाई, जिसका नाम इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज है। यह थी, ‘अलबेला’ जिसमें सी. रामचंद्र का संगीत था और जिसके गाने लता मंगेशकर और स्वयं सी. रामचंद्र ने चितलकर नाम से गाए थे, जो आज भी बड़े चाव से सुने और पसंद किए जाते हैं। मसलन ‘धीरे से आजा री अँखियन से निंदिया’, ‘शाम ढले खिड़की तले तुम सीटी बजाना छोड़ दो’, ‘बलमा बड़ा नादान रे’, ‘प्रीत की न जाने पहचान रे’, ‘भोली सूरत दिल के खोटे’, ‘शोला जो भड़के दिल मेरी धड़के’ आदि । 


अलबेला में भगवान दादा ने लता के गाने ‘बलमा बड़ा नादान रे’ पर एक मुजरा फिल्माया था। भगवान दादा ने बताया कि तवायफों के कोठों पर जाकर मुजरा देखने और वहाँ नाचने का उन्हें बहुत शौक था। कुछ कोठों की शोहरत सुनकर विभाजन से पहले वे लाहौर तक गए थे। तीन बार वे बनारस भी गए। मिर्जापुर हो या लखनऊ जहाँ भी शूटिंग के लिए जाते कोठों पर मुजरा सुनने जरूर जाते। इसी कारण उनके नाच और भाव-भंगिमाओं में उत्तरप्रदेश और राजस्थान के नचैयों जैसी नजाकत दिखाई देती है। भगवान की अलबेला और राजकपूर की आवारा साथ साथ रिलीज हुई थीं। पलड़ा अलबेला का भारी रहा। उसकी नायिका गीता बाली थीं, जो बाद में शम्मीकपूर की पत्नी बनीं। अलबेला ने अड़तीस वर्षीय भगवान को आपार दौलत और शोहरत दी। अधिकांश फिल्मों में पाँच फुट और बड़ी-बड़ी आँखों वाले भगवान ने भोले-भोले आदमी की छवि ही प्रस्तुत की। 

अलबेला में भगवान दादा ने स्वयं एक गाना गाया था, ‘किस्मत की हवा कभी नरम कभी गरम’। यह उक्ति उन पर ही चरितार्थ हो गई, जब उनकी ‘लाबेला’ और ‘झमेला’ फिल्में प्लॉप हो गई। ये फिल्में उन्होंने ‘अलबेला’ की सफलता से प्रेरित होकर बनाई थीं और इनमें उनके मित्र सी. रामचंद्र का ही संगीत था। इसके बाद उनकी फिल्म ‘सहमे हुए सपने’ को जनता ने पहले शो में ही खारिज कर दी जिससे उन्हें 25 लाख को घाटा झेलना पड़ा। किशोरकुमार के साथ उनकी ‘भागमभाग’ फिल्म अत्यंत सफल रही थी इसलिए उन्होंने यह टोटका भी आजमाया। किशोर को साथ लेकर ‘हँसते रहना’ फिल्म बनाना उनके लिए रोते रहना का पैगाम दे गई। इस फिल्म में उन्होंने दस लाख लगाए मगर यह अधूरी रह गई। उन्होंने जीवन की सारी कमाई गवाँ दी। उनके पास जुहू बीच पर पच्चीस कमरों का बंगला था, सात दिनों के लिए सात कारें थीं और पत्नी आशा के पास ढेर सारे जेवरात थे। सब बिक गए और परिवार को फिर से चाल के दो कमरों में सिमटना पड़ा। मगर वे अभिनय के मैदान में डटे रहे। 

भगवान आभाजी पालव का जन्म मुम्बई में एक अगस्त 1913 को हुआ था। उनका बचपन दादर-परेल की श्रमिक बस्तियों में गुजरा। वे अपने पिताजी से बहुत डरते थे, जो परेल की एक मिल में फिटर थे और पहलवानी भी करते थे। घर की कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण उनकी पढ़ाई चौथी कक्षा तक ही हुई। एक दिन उन्होंने पिता से कहा कि फिल्मों में काम करना चाहता हूँ तो वे बहुत नाराज हुए। बोले जाओ, पहले व्यायाम करो, शरीर बनाओ, बाद में काम के बारे में सोचना। भगवान पिता की आज्ञा के पालन में जुट गए। पहलवानी करते-करते मोहल्ले के दादा बन गए। उसी दौरान पड़ौस में रहने वाले कॉमेडियन नूर मोहम्मद चार्ली से उनका सम्पर्क बढ़ा और चार्ली की बातचीत के लहजे से प्रभावित होकर उनकी नकल करने लगे। 


बचपन में वे मास्टर विट्ठल तथा नंदराम पहलवान की मूक फिल्मों और अंग्रेजी फिल्मों के दीवाने थे। उन्हें चार्ली चैपलिन की फिल्में बहुत पसंद आती थीं। वे अंग्रेजी कलाकार डेनीके के भी फैन थे, जो बहुत अच्छे कॉमेडियन और डांसर थे। लारेल हार्डी, मार्क्स बंधु, ग्रेजो ब्रदर्स आदि सभी हँसोड़ लकाकार उन्हें अपनी बिरादरी के लगते थे। इन सबकी हुबहू नकल करने में उन्हें आनंद की अनुभूति होती। दादर के जिस लल्लूभाई-मेंशन में उनकी जिंदगी का अधिकांश समय गुजरा, उसे हॉलीवुड कहा करते थे, क्योंकि रामानंद सागर, चार्ली आदि फिल्मी हस्तियाँ यहीं निवास करती थीं। आसपास ही रंजीत, राजकमल, रूपतारा, फेमस आदि चार-पाँच स्टूडियो थे। चार्ली की वजह से भगवान का झुकाव कॉमेडी की तरफ हो गया, वर्ना वे स्टंट के दीवाने थे। बाबूराव पहलवान उनके जिगरी दोस्त थे। वे दोनों यार-दोस्तों के साथ दादर चौपाटी चले जाते और सुबह से शाम तक हीरो और विलेन का स्वांग बना कर धमाचौकड़ी करते। 

ये गतिविधियाँ वास्तव में नये-नये स्टंट सीखने की ललक का हिस्सा थीं। फेमस स्टूडियो में भगवान दादा का एक परिचित शंकरराव जाधव मेक-अप मैन था, जिसे मालूम था कि भगवान फिल्मों में काम करने के इच्छुक हैं। वह उन्हें फेमस के मालिक दादा गुंजाल से मिलाने ले गया, जो 1918 से मूक फिल्में बना रहे थे। 1930 में अठारह साल की उम्र में भगवान को मूक फिल्म ‘बेवफा आशिक’ में काम मिल गया। इसमें उन्होंने अंग्रेजी फिल्म ‘हंचबैक’ से प्रेरणा लेकर कुबड़े के रोल में स्टंट दिखाए। (अंग्रेजी में ‘हंचबैक’ तीन बार बन चुकी है)। भगवान ने यह फिल्म अपने पिता को फिल्म दिखाई। फिल्म समाप्ति पर लोगों ने उनके नाम की रट लगा दी तो पिता मे पूछा, यह सब क्या है। भगवान ने कहा- लोगों को मेरा काम पसंद आया। पिता को लगा कि भगवान की दीवानगी निश्चित मुकाम पर पहुँच गई है। 

पहली फिल्म के बाद छः महीने तक भगवान को कोई काम नहीं मिला, क्योंकि लोग समझते थे कि भगवान वास्तव में कुबड़ा है। इस बीच एक मित्र ने कहा कि जे.पी. पवांर (ललिता पवांर के पति) के पास जाओ, उनके पास काम है। भगवान पवार से मिलकर उनके साथ काम करने लगे। पवार उन्हें बच्चे के समान स्नेह देने लगे। 1934 में भगवान को चंद्रा आर्ट्स की सवाक् फिल्म ‘हिम्मत-ए-मर्दा’ में काम मिल गया। कुछ समय बाद पवार ने चंद्रा आर्ट्स कम्पनी छोड़ दी तो भगवान भी बाहर आ गये। बाहर दो फिल्मंे की। बाद में चंद्रा आर्ट्स के मालिक अभिनेता चंद्रराव कदम ने उन्हें वापस अपने यहाँ बुला लिया। भगवान बहुत महत्वाकाक्षी होने के साथ ही जिज्ञासु प्रवृत्ति के थे। वह लेखक, एडीटर, कैमरामेन, निर्माता, निर्देशक, वितरक, प्रदर्शक सभी बनना चाहते थे, इसलिए सभी कामों को समझने की कौशिश में जुट गये। 1936 में उन्होंने ‘बहादुर किसान’ नामक फिल्म का निर्देशन किया, 1942 में निर्माता बनकर ‘बदला’ बनाई और 1948 में वे स्टूडियो के मालिक बन गये। 

भगवान दादा को ‘ला’ शब्द से बड़ा प्यार था, इसीलिए उन्होंने अपनी फिल्मों के नाम ‘अलबेला’, ‘रंगीला’, ‘झमेला’, ‘लाबेला’, ‘हल्लागुल्ला’, ‘समुद्री लुटेरा’ आदि रखे। एक बार शूटिंग में उन्हें ललिता पवार को चांटा मारना था, लेकिन गलती से चांटा जोर से पड़ गया। उनकी आँख में चोट आ गई। फिर ललिता पवार ने कई सालों तक इलाज करवाया पर उनकी आँख कभी ठीक से खुल नहीं पाई।  


युवा भगवान ने 1938-40 के बीच तीन तमिल फिल्मों का निर्देशन भी किया- ‘जय कोड़ी’, ‘मनमोहिनी’ और ‘प्रेम-बंधन’। इनके संगीतकार उनके परम मित्र सी.रामचंद्र ही थे। 1940 में उन्हें एक हिन्दी फिल्म ‘सुखी जीवन’ के निर्देशन का प्रस्ताव मिला तो उन्होंने शर्त रखी कि संगीतकार और कैमरामैन वगैरह सब मेरी पसंद के होगे। इस तरह उन्होने सी. रामचंद्र को हिन्दी फिल्मों में प्रवेश दिलाया। भगवान और सी. रामचंद्र बड़े खिलंदड़ किस्म के मस्तमौला कलाकार थे। वह हारमोनियम और तबला लेकर बैठ जाते और विदेशी रिकार्ड्स का भारतीयकरण कर धुंने बनाते रहते। ‘शोला जो भड़के’ टाइप के ताल प्रधान गीत उन्होंने इसी तरह बनाए। 

गवान दादा ने ‘रंगीला’, ‘झमेला’, ‘लाबेला’, ‘हम दीवाने’, ‘हल्लागुल्ला’, ‘समुद्री लुटेरा’ आदि फिल्मों का निर्शेदन किया। ‘प्यारा दुश्मन’ में उनके साथ नादिरा और जयराज ने भी काम किया। नादिरा उनकी मुँहबोली बहन थी। ‘बड़े साहब’, ‘दामाद’, ‘गजब’, ‘रामभरोसे’, ‘भूले-भटके’ फिल्मों के वे नायक रहे। मराठी फिल्मों में काम करने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी, लेकिन दादा कोंडके के दबाव के कारण लगभग पन्द्रह मराठी फिल्में भी कर डालीं। असल में हिन्दी में बात करते मराठी भाषी पत्नी इस बात पर झल्लाती थी। उनकी ‘भागमभाग’ फिल्म देखने के बाद अभिनेता बलराज साहनी उतने प्रभावित हुए कि उन्होंने भगवान दादा के घर जाकर सैल्युट मारा। उनकी इस सादगी पर भगवान निसार हो गए। अपने प्रेरणा स्त्रोत मास्टर विट्ठल को ‘नगमा-ए-सेहरा’ (46) का नायक बनाकर निर्देशक करते हुए भगवान को अपार संतोष हुआ। भारत की पहली सस्पेंस फिल्मों ‘भेदी बंगला’ (48) बनाने का श्रेय भी भगवान दादा को है। इस फिल्म को वी. शांताराम ने भी दिलचस्पी से देखा था। 

भगवान दादा अपने भोलेपन के कारण व्यवसाय की बारीकियों को और जनता की नब्ज़ को ठीक तरह से समझ नहीं पाए। अफलातूनी खर्चों के भी ले अभ्यस्त हो गए थे। यार-दोस्तों ने भी उनका माल बेरहमी से उड़ाया। एक अग्निकांड में उनकी सभी फिल्में स्वाहा हो जाने की त्रासदी भी उन्होंने झेली, लेकिन गनीमत ये रही कि इस ‘अलबेला’ का प्रिंट स्वाहा होने से बच गया, क्योंकि वह एक वितरक के पास गिरवी पड़ा था। फिर भी भगवान दादा ने किसी विपत्ति में हिम्मत नहीं हारी। वे फिल्मों में छोटे-मोटे रोल कर के गुजारा करते रहे। जीवन के अंतिम वर्षों में वे फिल्मों से खुद हट गए थे, क्योकि नया माहौल उन्हों रास नहीं आ रहा था। 3 फरवरी 2002 को 89 की उम्र में अपने साउंड रिकार्डिस्ट बेटे के घर में इस वयोवृद्ध कलाकार का देहावसान हो गया। भगवान दादा सचमुच जोरदार सैल्यूट के हकदार थे।

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