सफलता के सूत्र -श्रीमद भगवत गीता से
कर्म का आशय वह कार्य जिसके करने के निमित में प्रतिफल की लालसा हो और कर्मयोग
का मतलब समतापूर्वक समभाव रखते हुए कर्म का निर्वाह करना,यहाँ फल की लालसा नहीं
है जो भी परिणाम मिलेगा उसे स्वीकार कर लेना है।समता पूर्वक कर्तव्य का आचरण करना
ही कर्मयोग है
समतापूर्वक कर्म कैसे किया जाये ? यह प्रश्न स्वाभाविक है क्योंकि हर परिस्थिति में सम
रहना बहुत मुश्किल लगता है।हम जो भी कर्म करते हैं तब दौ चीजों से जुड़ कर करते हैं
राग और द्वेष,लाभ या हानि ,हार या जीत ,सफलता या असफलता।जब इन भावनाओं के
वशीभूत होकर हम काम करते हैं तो हम अपने अनुकूल या प्रतिकूल किसी एक बंधन में
बंध जाते हैं जो हमे सुख या दू:ख का अनुभव करवाता है।भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
श्रेयान स्वधर्मो विगुण: परधर्मात स्वनुष्ठितात
स्वधर्म क्या है -अपना कर्तव्य खुद तय करके उस पर आचरण करना।कर्तव्य हर परिस्थिति,
समय,स्थान,व्यक्ति के अनुसार अलग -अलग होता है। किसी व्यक्ति के लिए कोई कर्म
आवश्यक होता है तो दुसरे के लिये वही काम अनावश्यक भी हो सकता है।एक डॉक्टर के
पास दौ रोगी एक साथ पहुंचे।डॉक्टर ने एक से कहा -तू दही का सेवन छोड़ दे और दुसरे से
कहा-तुझे दिन में दही जरुर सेवन करना है।दही एक ही है मगर एक को नुकसान कर सकता
है और एक को फायदा।अर्जुन जब कर्तव्य को समझने में भ्रमित हो जाता है तो श्री कृष्ण
कहते हैं कि तेरे लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है।युद्ध जैसा कर्म जिसमे नर संहार होना निश्चित
है जिसमे गुण नहीं है फिर भी वह समय ,परिस्थिति स्थान और व्यक्ति के कारण कर्तव्य
बन जाता है जबकि किसी वीतरागी व्यक्ति ने श्री कृष्ण से पूछा होता तो उत्तर यह हो सकता
था -अहिंसा परम धर्म है।
स्वकर्म क्या हो?कैसा हो ?किस रीति से तय किया जाये?- स्वकर्म आत्मवलोकन
है खुद का मूल्यांकन करना।हम किसी पर कोई कार्य थोप दे उसे पूरा करने को स्वमूल्यांकन
नहीं कह सकते।हम किस विषय में निपुण हैं और किस में कमजोर यह सबसे अच्छे तरीके से
खुद ही जानते हैं इसलिए खुद के प्रति तठस्थ रहकर अपने गुण और विगुण को परखे ,अपनी
कमजोरियों को सही रूप से पहचाने और अपने गुणों को भी यथारूप में पहचाने।यदि यह काम
हम सफलता से कर सकते हैं तो हम आसानी से लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकते हैं।
कोई छात्र गणित में निपुण हो और उसके अभिभावक कहे कि वह इतिहास के विषय
का चयन करके उसे ही पढ़े तो क्या वह छात्र अपनी सम्पूर्ण योग्यता का प्रदर्शन कर पायेगा ?
किसी व्यक्ति की रूचि कार बनाने में हो और उसे कहा जाये कि आपको खेती करनी है तो
क्या परिणाम आयेगा ?किसी पडोसी के जेवरात की दूकान अच्छी चलती हो और खुद के धंधे
में मंदी चल रही हो तो क्या तुरंत अपने धंधे का त्याग कर जेवर बेचने की दूकान शुरू कर देना
बुद्धिमत्ता है ?
श्री कृष्ण कहते हैं कि दुसरे का कर्म कितना ही लुभाने वाला क्यों ना हो पर अपनी समझ से
परे हो तो तुच्छ है ना करने के योग्य है क्योंकि उस कर्म को हम लोभ के वशीभूत होकर कर
रहे हैं ,हम जिस विषय में पारंगत ना हो तो सिर्फ देखादेखी करने से फायदे की जगह नुकसान
ही करेंगे।हम क्या कर सकते है और कितना कर सकते हैं हमारे लिये इसी बात का महत्व है।
लोग क्या कर रहे हैं इस बात का महत्व अपने खुद के लिए नहीं होता है।जैसे पतिव्रता के लिये
उसका पति ही सेव्य है चाहे वह अवगुण भी रखता हो ,यदि दुसरे का पति गुणवान हो तो क्या
वह सेवनीय है? पर पति पतिव्रता के लिए कदापि सेवनीय नहीं होता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वकर्म का आचरण करो चाहे उसमे कितनी ही बाधाएं क्यों ना हो।जो
कार्य खुद को रुचिकर लगे जिस काम को करने की हम योग्यता रखते हैं उस काम को ही
करने की योजना बनाओ और उस पर अमल करो।हर काम में विघ्न बाधाएँ होती ही है।वास्तव
में बाधाएं तो यह परीक्षा करने के लिए आती है कि हमने जो संकल्प किया है उसके प्रति कितने
निष्ठावान हैं।काम को करने पर हमारे आत्म विशवास की परीक्षा करने के लिए विधि बाधाओं
को भेजती है यदि हम उस काम को समस्याओं के कारण बीच में ही अधूरा छोड़ देंगे तो हारेंगे
भी और लोक में हँसी भी होगी।बाधों के आने पर भी यदि हम लक्ष्य की ओर बढ़ते रहेंगे तो
बाधाएँ स्वत ही दूर हो जायेगी यदि किसी कारण से दूर ना भी हुयी और हम लक्ष्य से दूर रह भी गए
तो भी मन में पछतावा नहीं होगा,कष्ट नहीं होगा।क्योंकि हमने जो काम किया उसको जी जान
से पूरा किया ,पुरे मन से किया।
कर्म का आशय वह कार्य जिसके करने के निमित में प्रतिफल की लालसा हो और कर्मयोग
का मतलब समतापूर्वक समभाव रखते हुए कर्म का निर्वाह करना,यहाँ फल की लालसा नहीं
है जो भी परिणाम मिलेगा उसे स्वीकार कर लेना है।समता पूर्वक कर्तव्य का आचरण करना
ही कर्मयोग है
समतापूर्वक कर्म कैसे किया जाये ? यह प्रश्न स्वाभाविक है क्योंकि हर परिस्थिति में सम
रहना बहुत मुश्किल लगता है।हम जो भी कर्म करते हैं तब दौ चीजों से जुड़ कर करते हैं
राग और द्वेष,लाभ या हानि ,हार या जीत ,सफलता या असफलता।जब इन भावनाओं के
वशीभूत होकर हम काम करते हैं तो हम अपने अनुकूल या प्रतिकूल किसी एक बंधन में
बंध जाते हैं जो हमे सुख या दू:ख का अनुभव करवाता है।भगवान श्री कृष्ण कहते हैं -
श्रेयान स्वधर्मो विगुण: परधर्मात स्वनुष्ठितात
स्वधर्म क्या है -अपना कर्तव्य खुद तय करके उस पर आचरण करना।कर्तव्य हर परिस्थिति,
समय,स्थान,व्यक्ति के अनुसार अलग -अलग होता है। किसी व्यक्ति के लिए कोई कर्म
आवश्यक होता है तो दुसरे के लिये वही काम अनावश्यक भी हो सकता है।एक डॉक्टर के
पास दौ रोगी एक साथ पहुंचे।डॉक्टर ने एक से कहा -तू दही का सेवन छोड़ दे और दुसरे से
कहा-तुझे दिन में दही जरुर सेवन करना है।दही एक ही है मगर एक को नुकसान कर सकता
है और एक को फायदा।अर्जुन जब कर्तव्य को समझने में भ्रमित हो जाता है तो श्री कृष्ण
कहते हैं कि तेरे लिए युद्ध करना ही कर्तव्य है।युद्ध जैसा कर्म जिसमे नर संहार होना निश्चित
है जिसमे गुण नहीं है फिर भी वह समय ,परिस्थिति स्थान और व्यक्ति के कारण कर्तव्य
बन जाता है जबकि किसी वीतरागी व्यक्ति ने श्री कृष्ण से पूछा होता तो उत्तर यह हो सकता
था -अहिंसा परम धर्म है।
स्वकर्म क्या हो?कैसा हो ?किस रीति से तय किया जाये?- स्वकर्म आत्मवलोकन
है खुद का मूल्यांकन करना।हम किसी पर कोई कार्य थोप दे उसे पूरा करने को स्वमूल्यांकन
नहीं कह सकते।हम किस विषय में निपुण हैं और किस में कमजोर यह सबसे अच्छे तरीके से
खुद ही जानते हैं इसलिए खुद के प्रति तठस्थ रहकर अपने गुण और विगुण को परखे ,अपनी
कमजोरियों को सही रूप से पहचाने और अपने गुणों को भी यथारूप में पहचाने।यदि यह काम
हम सफलता से कर सकते हैं तो हम आसानी से लक्ष्य की ओर आगे बढ़ सकते हैं।
कोई छात्र गणित में निपुण हो और उसके अभिभावक कहे कि वह इतिहास के विषय
का चयन करके उसे ही पढ़े तो क्या वह छात्र अपनी सम्पूर्ण योग्यता का प्रदर्शन कर पायेगा ?
किसी व्यक्ति की रूचि कार बनाने में हो और उसे कहा जाये कि आपको खेती करनी है तो
क्या परिणाम आयेगा ?किसी पडोसी के जेवरात की दूकान अच्छी चलती हो और खुद के धंधे
में मंदी चल रही हो तो क्या तुरंत अपने धंधे का त्याग कर जेवर बेचने की दूकान शुरू कर देना
बुद्धिमत्ता है ?
श्री कृष्ण कहते हैं कि दुसरे का कर्म कितना ही लुभाने वाला क्यों ना हो पर अपनी समझ से
परे हो तो तुच्छ है ना करने के योग्य है क्योंकि उस कर्म को हम लोभ के वशीभूत होकर कर
रहे हैं ,हम जिस विषय में पारंगत ना हो तो सिर्फ देखादेखी करने से फायदे की जगह नुकसान
ही करेंगे।हम क्या कर सकते है और कितना कर सकते हैं हमारे लिये इसी बात का महत्व है।
लोग क्या कर रहे हैं इस बात का महत्व अपने खुद के लिए नहीं होता है।जैसे पतिव्रता के लिये
उसका पति ही सेव्य है चाहे वह अवगुण भी रखता हो ,यदि दुसरे का पति गुणवान हो तो क्या
वह सेवनीय है? पर पति पतिव्रता के लिए कदापि सेवनीय नहीं होता है।
श्री कृष्ण कहते हैं कि स्वकर्म का आचरण करो चाहे उसमे कितनी ही बाधाएं क्यों ना हो।जो
कार्य खुद को रुचिकर लगे जिस काम को करने की हम योग्यता रखते हैं उस काम को ही
करने की योजना बनाओ और उस पर अमल करो।हर काम में विघ्न बाधाएँ होती ही है।वास्तव
में बाधाएं तो यह परीक्षा करने के लिए आती है कि हमने जो संकल्प किया है उसके प्रति कितने
निष्ठावान हैं।काम को करने पर हमारे आत्म विशवास की परीक्षा करने के लिए विधि बाधाओं
को भेजती है यदि हम उस काम को समस्याओं के कारण बीच में ही अधूरा छोड़ देंगे तो हारेंगे
भी और लोक में हँसी भी होगी।बाधों के आने पर भी यदि हम लक्ष्य की ओर बढ़ते रहेंगे तो
बाधाएँ स्वत ही दूर हो जायेगी यदि किसी कारण से दूर ना भी हुयी और हम लक्ष्य से दूर रह भी गए
तो भी मन में पछतावा नहीं होगा,कष्ट नहीं होगा।क्योंकि हमने जो काम किया उसको जी जान
से पूरा किया ,पुरे मन से किया।
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