स्वार्थ बुद्धि -श्रीमद भगवत गीता
यह सँसार दौ मुख्य कारणों के इर्द गिर्द चल रहा है पहला मोह और दूसरा स्वार्थ।पशु में इन
दोनों चीजो का अभाव होता है मगर मनुष्य में ये होती ही हैं ,इनके अभाव हो जाने से शायद
सृष्टि का विकास भी खत्म हो सकता है।प्रश्न यह उठता है कि फिर श्री कृष्ण ने मोह और
स्वार्थ दोनों से दूर रहने को ही सही क्यों माना और अपने उपदेश में दूर रहने को ही सही
क्यों बताया ?
इस प्रश्न से पहले हमें इन दोनों शब्दों के अर्थ समझ लेने चाहिए ताकि हम इस प्रश्न के हल
की ओर बढ़ सके।
मोह -किसी वस्तु ,पदार्थ या जीव में आसक्ति और मेरापन
स्वार्थ -स्वयं की प्रसन्नता के लिए किये जाने वाले कामना युक्त कर्म ,ऐसे कर्मो के अन्दर
अन्य लोगों का अहित छुपा रहता है
इन दोनों से बिलकुल अलग है प्रेम और परमार्थ।प्रेम में मेरापन नहीं होता ह्मारापन होता
है और परमार्थ में शुभ कर्म ही निहित होते हैं।प्रेम में देने का भाव होता है प्रतिफल की इच्छा
नहीं होती।प्रेम में त्याग की भावना होती है प्रेमी से सुख पाने की लालसा नहीं होती।परमार्थ
में काम करने से पहले यह सोचना होता है की उस कर्म के करने से किसी का अहित तो नहीं
होगा।परमार्थ में कर्म के प्रभाव को पहले ध्यान में लिया जाता है और उसके बाद खुद के हित
को देखा जाता है।
अब हम मूल विषय पर आते हैं कि शुभ कर्म क्या है और स्वार्थ क्या है।शुभ कर्म
में अच्छे साहित्य का अध्ययन,शुभ कर्म से अर्जित सम्पति से दान,इंद्रियों में संयम यानि
तप,शरीर से लोकोपयोगी काम करना।स्वार्थ बुद्धि में भी कर्म करना पड़ता है परन्तु अन्य
के हित का ध्यान नहीं रखा जाता, शुभ -अशुभ सभी कर्मो से सम्पति का अर्जन करना और
स्वयं के सुख के लिए भी कंजूसी से खर्च करना दान तो बहुत दूर की बात है, इन्द्रियों का
दुरूपयोग करना हरेक इंद्री में असंयम,और शरीर से स्व हित के कर्म करना।
भगवान् गीता में मोह से परे हटकर विवेक का उपयोग करते हुए कर्म को पूरा
करने का उपदेश देते हैं।एक पिता को अपना पुत्र बहुत प्यार होता है,पुत्र पर स्नेह होने के
कारण पिता अपने पुत्र के ना करने योग्य काम पर टोकता नहीं है ,पुत्र को उचित दंड नहीं
देता है तो क्या वह अपने पुत्र का भला कर रहा होता है ?पुत्र चोरी करता है ,झूठ बोलता है
शराब पीता है ,जुआ खेलता है और पिता मोह के वशीभूत पुत्र के कुकर्मो पर आँख पर पट्टी
बाँध लेता है तो क्या वह अपने पुत्र का प्रेमी या हितेषी कहलाता है ?पैसे कमाने के लोभ में
संतान अपराध करता है,अराजकता के काम करता है,दुराचार करता है और माँ -बाप मोह
के कारण सब कुछ सह लेते हैं मगर क्या इसमें संतान का भला होता है ?अगर बाप जज हो
और बेटे ने किसी अबला के साथ दुराचार किया हो और उसका फैसला उसी बाप की कलम
से होना हो और वह बाप अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके पुत्र के पक्ष में फैसला दे देता
है तो क्या वह पुत्र का भला कर रहा होता है।मोह से विवेक मंद पड़ जाता है विवेक के नष्ट
होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और कुबुद्धि से लिया गया निर्णय पतन का हेतु बन जाता है।
स्वार्थ का त्याग का मतलब यह नहीं कि हम जो भी अर्जित करे उसे दुसरो पर लुटा
दे या खुद कष्ट सह कर भी दूसरों का हित साधते रहे।श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में खड़े हो
जाने की बात कही है यह नहीं कहा कि इस नर संहार से अच्छा है साधू बन जाना।हम जो
भी कर्म करे उनको करने से पहले इतना विचार जरुर कर लेना चाहिए कि मेरे द्वारा किये
जा रहे काम से किसी कमजोर का अहित तो नहीं होगा ना।मेरे काम से मुझे तो शुभ फल
प्राप्त हो मगर उसका प्रभाव दुसरो पर हितकारी रहे ,अन्यों को भी लाभ हो।भगवान् राम
यदि राज्य के लोभ में पड़कर पिता दशरथ को बंदी बना लेते और शासन खुद संभाल लेते
तो क्या वह आज हमारे पूजनीय होते ?जब भरत उनके पास जाकर राज्य संभालने की
जिद करते हैं और श्री राम उनकी बात को मानकर वनवास त्याग राज्य की धुरा खुद के
हाथ में ले लेते तो क्या आज हम उनको पूजते ?
जब भी हम कर्म करते हैं तब दुसरो के सुख को भी ध्यान में रख लेते है तो वह
काम लक्ष्य तक पहुँच जाता है और उस काम को पूरा करने में सहयोग भी सभी से स्वत:
ही मिल जाता है।जिस कर्म को करने में दुसरो के हित का ध्यान रखा गया तो निश्चित
जानिये उस काम के परिणाम में उस काम को करने वाले का भला होता ही है क्योंकि सूत्र
यह कहता है कि अच्छे काम का परिणाम कभी भी खुद के लिए बुरा हो नहीं सकता।कर
भला तो हो भला
यह सँसार दौ मुख्य कारणों के इर्द गिर्द चल रहा है पहला मोह और दूसरा स्वार्थ।पशु में इन
दोनों चीजो का अभाव होता है मगर मनुष्य में ये होती ही हैं ,इनके अभाव हो जाने से शायद
सृष्टि का विकास भी खत्म हो सकता है।प्रश्न यह उठता है कि फिर श्री कृष्ण ने मोह और
स्वार्थ दोनों से दूर रहने को ही सही क्यों माना और अपने उपदेश में दूर रहने को ही सही
क्यों बताया ?
इस प्रश्न से पहले हमें इन दोनों शब्दों के अर्थ समझ लेने चाहिए ताकि हम इस प्रश्न के हल
की ओर बढ़ सके।
मोह -किसी वस्तु ,पदार्थ या जीव में आसक्ति और मेरापन
स्वार्थ -स्वयं की प्रसन्नता के लिए किये जाने वाले कामना युक्त कर्म ,ऐसे कर्मो के अन्दर
अन्य लोगों का अहित छुपा रहता है
इन दोनों से बिलकुल अलग है प्रेम और परमार्थ।प्रेम में मेरापन नहीं होता ह्मारापन होता
है और परमार्थ में शुभ कर्म ही निहित होते हैं।प्रेम में देने का भाव होता है प्रतिफल की इच्छा
नहीं होती।प्रेम में त्याग की भावना होती है प्रेमी से सुख पाने की लालसा नहीं होती।परमार्थ
में काम करने से पहले यह सोचना होता है की उस कर्म के करने से किसी का अहित तो नहीं
होगा।परमार्थ में कर्म के प्रभाव को पहले ध्यान में लिया जाता है और उसके बाद खुद के हित
को देखा जाता है।
अब हम मूल विषय पर आते हैं कि शुभ कर्म क्या है और स्वार्थ क्या है।शुभ कर्म
में अच्छे साहित्य का अध्ययन,शुभ कर्म से अर्जित सम्पति से दान,इंद्रियों में संयम यानि
तप,शरीर से लोकोपयोगी काम करना।स्वार्थ बुद्धि में भी कर्म करना पड़ता है परन्तु अन्य
के हित का ध्यान नहीं रखा जाता, शुभ -अशुभ सभी कर्मो से सम्पति का अर्जन करना और
स्वयं के सुख के लिए भी कंजूसी से खर्च करना दान तो बहुत दूर की बात है, इन्द्रियों का
दुरूपयोग करना हरेक इंद्री में असंयम,और शरीर से स्व हित के कर्म करना।
भगवान् गीता में मोह से परे हटकर विवेक का उपयोग करते हुए कर्म को पूरा
करने का उपदेश देते हैं।एक पिता को अपना पुत्र बहुत प्यार होता है,पुत्र पर स्नेह होने के
कारण पिता अपने पुत्र के ना करने योग्य काम पर टोकता नहीं है ,पुत्र को उचित दंड नहीं
देता है तो क्या वह अपने पुत्र का भला कर रहा होता है ?पुत्र चोरी करता है ,झूठ बोलता है
शराब पीता है ,जुआ खेलता है और पिता मोह के वशीभूत पुत्र के कुकर्मो पर आँख पर पट्टी
बाँध लेता है तो क्या वह अपने पुत्र का प्रेमी या हितेषी कहलाता है ?पैसे कमाने के लोभ में
संतान अपराध करता है,अराजकता के काम करता है,दुराचार करता है और माँ -बाप मोह
के कारण सब कुछ सह लेते हैं मगर क्या इसमें संतान का भला होता है ?अगर बाप जज हो
और बेटे ने किसी अबला के साथ दुराचार किया हो और उसका फैसला उसी बाप की कलम
से होना हो और वह बाप अपने अधिकारों का दुरूपयोग करके पुत्र के पक्ष में फैसला दे देता
है तो क्या वह पुत्र का भला कर रहा होता है।मोह से विवेक मंद पड़ जाता है विवेक के नष्ट
होने से बुद्धि नष्ट हो जाती है और कुबुद्धि से लिया गया निर्णय पतन का हेतु बन जाता है।
स्वार्थ का त्याग का मतलब यह नहीं कि हम जो भी अर्जित करे उसे दुसरो पर लुटा
दे या खुद कष्ट सह कर भी दूसरों का हित साधते रहे।श्री कृष्ण ने अर्जुन को युद्ध में खड़े हो
जाने की बात कही है यह नहीं कहा कि इस नर संहार से अच्छा है साधू बन जाना।हम जो
भी कर्म करे उनको करने से पहले इतना विचार जरुर कर लेना चाहिए कि मेरे द्वारा किये
जा रहे काम से किसी कमजोर का अहित तो नहीं होगा ना।मेरे काम से मुझे तो शुभ फल
प्राप्त हो मगर उसका प्रभाव दुसरो पर हितकारी रहे ,अन्यों को भी लाभ हो।भगवान् राम
यदि राज्य के लोभ में पड़कर पिता दशरथ को बंदी बना लेते और शासन खुद संभाल लेते
तो क्या वह आज हमारे पूजनीय होते ?जब भरत उनके पास जाकर राज्य संभालने की
जिद करते हैं और श्री राम उनकी बात को मानकर वनवास त्याग राज्य की धुरा खुद के
हाथ में ले लेते तो क्या आज हम उनको पूजते ?
जब भी हम कर्म करते हैं तब दुसरो के सुख को भी ध्यान में रख लेते है तो वह
काम लक्ष्य तक पहुँच जाता है और उस काम को पूरा करने में सहयोग भी सभी से स्वत:
ही मिल जाता है।जिस कर्म को करने में दुसरो के हित का ध्यान रखा गया तो निश्चित
जानिये उस काम के परिणाम में उस काम को करने वाले का भला होता ही है क्योंकि सूत्र
यह कहता है कि अच्छे काम का परिणाम कभी भी खुद के लिए बुरा हो नहीं सकता।कर
भला तो हो भला
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