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23.5.20

मोदी सरकार देश में शासन चलाने का नैतिक अधिकार खो चुकी है


मजदूर वर्ग जिसने आधुनिक युग में कई देशों में क्रांतियों को संपन्न किया, उसने भारत में भी आजादी के आंदोलन से लेकर आज तक उत्पादन विकास में अपनी अमूल्य भूमिका दर्ज कराई है। वही मजदूर यहां कोरोना महामारी के इस दौर में जिस त्रासद और अमानवीय दौर से गुजर रहा है वह आजाद भारत को शर्मशार करता है। फिर भी मजदूर वर्ग की इतिहास में बनी भूमिका खारिज नहीं होती। घर वापसी के क्रम में भी मजदूर वर्ग ने मोदी सरकार की वर्ग क्रूरता को बेनकाब कर दिया है। फासीवादी राजनीति के विरूद्ध मजदूरों की यह स्थिति नए राजनीतिक समीकरण को जन्म देगी। यह मजदूर बाहर केवल अपने लिए दो जून की रोटी कमाने ही नहीं गया था, उसके भी उन्नत जीवन और आधुनिक मूल्य के सपने थे। वह बेचारा नहीं है. जिन लोगों ने उन्हें न घर भेजने की व्यवस्था की और न ही रहने के लिए आर्थिक मदद दी, मजदूर उनसे वाकिफ है और समय आने पर उन्हें राजनीतिक सजा जरूर देना चाहेगा। क्योंकि बुरी परिस्थितियों में भी वह किसी की दया का मोहताज नहीं है, आज भी वह अदम्य साहस और सामर्थ्य का परिचय दे रहा है। मजदूरों के अंदर आज भी राजनीतिक प्रतिवाद दर्ज करने की असीम योग्यता है और पूरे देश को नई राजनीतिक लोकतांत्रिक व्यवस्था देने में वह सक्षम है। जरूरत है उसे शिक्षित और संगठित करने की। 

        लाकडाउन के समय घर जाना मजदूरों का स्वभाव नहीं मजबूरी थी। परिस्थितियों से बाध्य होकर वे परिवार बच्चों सहित पैदल ही लम्बी यात्रा के लिए चल पड़े। इसके लिए उन्हें दोषी ठहराना और रास्ते में पुलिस द्वारा उनका उत्पीड़न करना सरकार की बर्बरता है। अभी भी वक्त है सरकार इन्हें सकुशल घरों को भेजने का इंतजाम करे, सरकार के पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है। यह भी सच है कि मोदी सरकार ने लाकडाउन की घोषणा करने के पहले यदि प्रवासी मजदूरों और बाहर बसे हुए नागरिकों को घर भेजने की व्यवस्था कर दी होती तो आज जिस तरह कोराना की बीमारी बढ़ रही है वह भी इतनी तेजी से न बढ़ती।

       अब यह निर्विवाद है कि न केवल महामारी बल्कि चौपट हो गई देश की अर्थव्यवस्था से निपटने में भी कथित महामानव की सरकार पूरी तौर पर नाकाम साबित हुई है। अभी अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए मोदी सरकार की 20 लाख करोड़ रूपए और सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 10 प्रतिशत खर्च करने की बात पूरी तौर पर बेईमानी साबित हो रही है। देश के अधिकांश अर्थशास्त्रियों का मत है कि अर्थव्यवस्था में जान फूंकने, बेरोजगारी से निपटने के लिए लोन मेला लगाने की जगह सरकार को लोगों की जेब में सीधे नगदी देने की जरूरत है ताकि अर्थव्यवस्था में मांग बढ़ सके। 20 लाख करोड़ रूपए की सरकारी घोषणा में सरकार ने अपने खाते से अर्थशास्त्रियों का मत है कि लगभग दो लाख करोड़ ही दिए हैं जो जीडीपी के एक प्रतिशत से भी कम है।

      यह बताने की जरूरत नहीं है कि कई देश अपनी जनता की जेब में सरकारी कोष से अच्छा खासा पैसा डाल रहे हैं। मोदी सरकार का नारा है ‘लोकल से ग्लोबल’ बनने का और व्यवहार में जनता की सभी सार्वजनिक संपत्ति को यह सरकार विदेशी ताकतों के हवाले कर रही है। लोग मजाक में कहते हैं कि मोदी सरकार के self-reliance का मतलब अपनी रक्षा करना और रिलायंस की सेवा करना।

      मोदी सरकार को भले महामानव की सरकार उनके प्रचारक बता रहे हो लेकिन यह सच्चाई है कि यह सरकार अंदर से डरी हुई है और बेहद कमजोर है। जनता के सवालों को उठाने वाले और लोकतांत्रिक आंदोलन को आगे बढ़ाने वाले लोगों को भले यह सरकार जेल में डाल रही हो। लेकिन अपनी कारपोरेट मित्र मंडली के सामने यह पूरी तौर पर लाचार है। कारपोरेट घरानों के ऊपर उत्तराधिकार और संपत्ति कर लगाने की बात तो दूर रही, कारपोरेट घरानों के डर से यह आज के दौर के लिए बेहद जरूरी वित्तीय घाटे को भी बढ़ाने से डरती है। क्योंकि इसको लगता है कि इससे भारत की दुनिया में आर्थिक रेटिंग कमजोर हो जाएगी और विदेशी पूंजी यहां से भागने लगेगी। विदेशी पूंजी कैसे भागेगी यदि मोदी सरकार यह दम दिखाए कि कोई भी पूंजी भारत से 5 साल के लिए बाहर नहीं जा सकती। इसे यह भी डर लगता है यदि घाटा बढ़ता है तो कारपोरेट घराने इस सरकार से नाराज हो जाएंगे क्योंकि उन्होंने दुनिया के बाजार से ऋण ले रखा है और उन्हें अधिक भुगतान करना पड़ेगा। अर्थशास्त्री बताते हैं कि रुपए के अवमूल्यन से घबराने की जरूरत नहीं है क्योंकि इससे हमारा निर्यात बढ़ेगा। कारपोरेट घरानों को अधिक भुगतान न करना पड़े चाहे देश की अर्थव्यवस्था चैपट हो जाए यही नीति मोदी सरकार की है। भारत की मौजूदा दुर्दशा इसी अर्थनीति की देन है जिसे आज पलटने की सख्त जरूरत है।

       मांग के संकट से निपटने और अर्थव्यवस्था को आत्मनिर्भर बनाने के लिए यह जरूरी है कि कृषि में निवेश बढ़ाया जाए, किसानों की फसलों का लागत से डेढ़ गुना अधिक मूल्य दिया जाए, छोटी जोतों के सहकारी खेती के लिए निवेश किया जाए, रोजगार सृजन के लिए कृषि आधारित उद्योग को बढ़ावा दिया जाए, कुटीर-लघु-मध्यम उद्योग के लिए सीधे सरकार खर्च करें जो ऋण उन्हें दिए जा रहे हैं उस पर उन्हें रियायत मिले, बाजार पर उनका नियंत्रण हो और विदेश से उन चीजों को कतई आयात न किया जाए जो इस क्षेत्र में उत्पादित हो रहे हो। मजदूर और उद्यमियों का कॉपरेटिव बने और उद्योग चलाने में मजदूरों की भी सहभागिता हो। कोराना महामारी के इस दौर में मजदूरों को नगदी दिया जाए उन्हें रोजगार दिया जाए, शहरों में भी मनरेगा का विस्तार हो। किसानों और गरीबों के सभी कर्जे माफ हो। कुक्कुट, मत्स्य, दुग्ध उत्पादन आदि जैसे क्षेत्रों में सीधे निवेश करके लोगों को उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया जाए और उनके लिए बाजार को सुरक्षित किया जाए और विदेश से इस क्षेत्र में भी आयात रोका जाए, बेरोजगारों को बेरोजगारी भत्ता दिया जाए। स्वास्थ्य व शिक्षा पर खर्च बढ़ाया जाए, गांव से लेकर शहरों तक सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया जाए। कोरोना से बीमार लोगों के इलाज का पूरा खर्च सरकार उठाए, स्वास्थ्य कर्मियों व कोरोना योद्धाओं को जीवन सुरक्षा उपकरण दिए जाए और इस महामारी के कारण दुर्घटना का शिकार होकर मृत व घायल हुए लोगों को समुचित मुआवजा दिया जाए। बीस हजार करोड़ रुपए खर्च करके विस्टा प्रोजेक्ट के तहत जो नई संसद बन रही है उस पर तत्काल प्रभाव से रोक लगायी जाए।

      यह सब संभव है यदि कथित ‘महामानव’ की मोदी सरकार इस आपदा की घड़ी में खर्च करने के लिए वित्तीय घाटे के लिए तैयार हो। अर्थशास्त्रियों का मत है 7- 8 लाख करोड़ रूपए यदि सरकार सीधे खर्च करे और लोगों को नगद मुहैया कराए तो महामारी और आर्थिक मंदी से निपटा जा सकता है और अर्थव्यवस्था में मांग को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

     आज जरूरत है देश में एक बड़े जनांदोलन की एक नए राजनीतिक विमर्श की इसके लिए मजदूर, किसान, छोटे-मझोले उद्यमी, व्यापारी जो आज संकट झेल रहे हैं उन्हें राजनीतिक प्रतिवाद के लिए खड़ा किया जाए। दरअसल यह युग राजनीतिक प्रतिवाद का है। समाज के सभी शोषित और उत्पीड़ित वर्गो, तबको और समुदायों को राजनीतिक प्रतिवाद में उतारने और उनके बीच से नेतृत्व विकसित करने की जरूरत है। जिन समाजवादी देशों ने जनता को राजनीति में प्रत्यक्ष हिस्सेदारी से रोका यहां तक कि मजदूरों को भी राजनीतिक गतिविधियों से वंचित कर दिया गया और उन्हें ट्रेड यूनियन बनाने का अधिकार भी नहीं दिया गया, इसकी कीमत उन्हें चुकानी पड़ी है और आज भी जो समाजवादी देश राजनीतिक प्रक्रिया से जनता को अलग-थलग किए हैं उन्हें भी देर-सबेर इसका खामियाजा उठाना पड़ेगा। इसलिए जो लोग मजदूरों को महज ट्रेड यूनियन गतिविधियों तक सीमित रखना चाहते हैं और मजदूरों को सीधे तौर पर राजनीतिक प्रतिवाद में नहीं उतारना चाहते उन्हें भी समाजवादी देशों की गलतियों से सीखना चाहिए और आज के दौर में सड़को पर उतरे करोड़ों-करोड़ मजदूरों को मोदी सरकार के खिलाफ राजनीतिक प्रतिवाद में उतारना चाहिए। कोरोना महामारी से निपटने में सरकार की नाकामी की वजह से मजदूरों में जो अविश्वास पैदा हुआ है और सरकार से जो उसने असहमति व्यक्त की है, उसे राजनीतिक स्वर देने की जरूरत है क्योंकि मोदी सरकार शासन करने का नैतिक प्राधिकार खोती जा रही है। विपक्ष का आज के दौर में यहीं राजनीतिक धर्म है।

       एक बात और इधर लोगों को विभाजित करने और अपनी विभाजनकारी राजनीति, संस्कृति और एजेंडे को थोपने की कोशिशे की जा रही है उससे भी निपटने की जरूरत है। यह विभाजनकारी ताकतों का संगठित और संस्थाबद्ध प्रयास है जिसे सरकार का पूरा समर्थन है। इसलिए इसका सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रतिवाद करना भी बेहद जरूरी है। संविधान हमारी नागरिकता और आधुनिकता का आधार है। नागरिकता और आधुनिकता के मूल्यों को नीचे तक ले जाने की जरूरत है। लोगों को एक नागरिक की भूमिका में खड़ा करना और एक नागरिक के बतौर अपनी मानवीय भूमिका को दर्ज करना आज के दौर का कार्यभार है। हमें याद रखना होगा कि सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक आंदोलन एक अविभाज्य इकाई के अंश हैं और एक दूसरे के पूरक हैं इसलिए इन्हें संपूर्णता में चलाने की आज जरूरत है।

अखिलेंद्र प्रताप सिंह
स्वराज अभियान



मेहनतकशों को करना होगा राजनीतिक प्रतिवाद

मोदी सरकार का मेहनतकश विरोधी क्रूर और अमानवीय चेहरा आप सबके सामने है। इस पर बताने की जरूरत नहीं है रोज ब रोज एक से एक दर्दभरी दास्तानें आप देख और सुन ही रहे हैं। मजदूरों का दुर्धटनाओं में मरना, घायल होना, गर्भवती महिलाओं का सड़क पर बच्चा पैदा करना, रहने और खाने तक की व्यवस्था करने में सरकार की विफलता सब कुछ आम बात है। वास्तव में सरकार ने मजदूरों को बेसहारा छोड़ दिया है और अपनी जिम्मेदारी से भाग खड़ी हुई है। बहरहाल ताजा मामला यह है कि केन्द्र सरकार ने चौथे चरण के लाकडाउन में मजदूरों व कर्मचारियों के काम न करने की दशा में वेतन भुगतान पर रोक लगा दी है।

मामले को समझने के लिए हम आपको बताना चाहेंगे कि दरअसल सुप्रीम कोर्ट में फिक्कस पैक्स प्राइवेट लिमिटेड़ की तरफ से लाकडाउन अवधि का वेतन न देने के लिए एक याचिका डाली गयी थी। जिस पर 15 मई को सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई की। इस सुनवाई के बाद तमाम समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों द्वारा यह समाचार प्रकाशित किया गया कि माननीय उच्चतम न्यायालय ने लाकडाउन अवधि में मजदूरों के वेतन भुगतान पर रोक लगा दी है। जबकि सच्चाई यह है कि 15 मई को हुई सुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने मात्र नोटिस जारी किया है और वेतन पर रोक लगाने का कोई आदेश नहीं दिया है। 29 मार्च,  2020 की भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना जिसे सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी है में स्पष्ट कहा गया था कि कारखाना, दुकान अथवा वाणिज्यिक प्रतिष्ठान के प्रबंधक या स्वामी द्वारा लाकडाउन अवधि में श्रमिकों का वेतन भुगतान नहीं किया जाता तो महामारी अधिनियम की घारा 3 में प्रदत्त शक्तियों का उपयोग करके भारतीय दण्ड़ संहिता की धारा 188 के तहत एफआईआर दर्ज की जाए। इसी आधार पर उत्तर प्रदेश समेत अन्य राज्यों ने भी आदेश दिए थे। हालांकि यह भी सच है कि इसका अनुपालन बेहद कम ही हुआ और अपने स्वभाव के अनुरूप आरएसएस-भाजपा की सरकारों ने इस आदेश का अनुपालन नहीं करने का संदेश श्रम विभाग को दिया था।

अब 17 मई को भारत सरकार के गृह मंत्रालय द्वारा जारी अधिसूचना में इस आदेश को खत्म कर दिया गया है। सरकार अभी कह रही है कि लाकडाउन के दौरान विशेषकर बैंक, बीमा, केन्द्रीय व राज्य कर्मचारियों की मात्र 33 प्रतिशत ही उपस्थिति कार्यालयों में करायी जाए, उद्योगों में दो तिहाई मजदूरों को ही बुलाया जाए और सोशल दूरी का कड़ाई से अनुपालन हो। आदेश में यह भी कहा गया है कि जो प्रतिष्ठान इसका अनुपालन नहीं करेंगे उनके मालिक व अधिकारी के विरूद्ध आपदा अधिनियम 1897 की घारा 3 के तहत कड़ी कार्यवाही की जायेगी। सवाल उठता है कि सरकार के इन आदेशों के कारण जो कर्मचारी या मजदूर काम पर किसी दिन नियोजित नहीं होगा उसके वेतन का क्या होगा। सरकार के आदेश पर विधिवेताओं का कहना है कि ऐसे कर्मचारियों व मजदूरों को वेतन का भुगतान नहीं होगा। वर्कर्स फ्रंट ने इसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में हस्तक्षेप करने का फैसला किया है। हमने सरकार से यह भी कहा है कि छोटे-मझोले उद्योगों के सामने आए संकट के मद्देनजर सरकार कर्मचारी भविष्य निधि (ईएसआई) से मजदूरों के वेतन का भुगतान कर दें। मजदूरों के वेतन भुगतान का काम दुनिया के कई देशों की सरकारों ने किया भी है।

दूसरा मामला कल उत्तर प्रदेश सरकार के अपर मुख्य सचिव वित्त विभाग संजीव मित्तल द्वारा दिया आदेश है। कोविड़-19 के कारण प्रदेश में लाकडाउन घोषित होने के फलरूवरूप उत्पन्न विशेष परिस्थिति में व्यय प्रबंधन एवं मितव्ययिता के लिए दिशा-निर्देश विषयक इस शासनादेश में कहा गया है कि राज्य सरकार के राजस्व में अप्रत्याशित कमी आयी है इसलिए वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए निर्णय लिया गया है। आदेश के पहले बिंदु में कहा गया है कि केन्द्र की वित्तीय मदद से चलने वाली योजनाओं में केन्द्र से धन प्राप्त होने पर ही धनराशि आवश्यकतानुसार चरणों में उपलब्ध करायी जायेगी। इसका सबसे बुरा असर मनरेगा पर पड़ेगा क्योंकि यह योजना पूर्णतया केन्द्र सरकार द्वारा संचालित है। अभी आपने देखा कि कथित 20 लाख करोड़ के पैकेज में वित्त मंत्री ने मनरेगा में महज 40 हजार करोड़ रूपए का आवंटन किया है। याद दिला दें कि अपने बजट में इन्हीं वित्त मंत्री द्वारा मनरेगा में पिछले वर्ष खर्च के 72 हजार करोड़ में 11 हजार करोड़ की कटौती करके महज 61 हजार करोड़ रूपए ही आवंटित किया गया था। खुद सरकार की वेबसाइट के अनुसार इस बजट में मात्र 9 दिन ही औसत काम एक मजदूर को मनरेगा में मिल सका था। अब जब मजदूरी 202 रूपए कर दी गयी है तो स्वभाविक है कि मनरेगा में काम का आवंटन और भी कम हो जायेगा। सोनभद्र, मिर्जापुर व चंदौली जहां हमारा सघन काम है वहां के प्रधानों, जनप्रतिनिधियों व ग्रामीणों द्वारा लगातार बताया जा रहा है कि सरकार के आदेश के बाद हमने काम तो शुरू करा दिया है लेकिन एक माह बीत जाने के बावजूद अभी तक मजदूरी का भुगतान नहीं हुआ है। इसलिए 2 करोड़ से ज्यादा रोजगार देने की वित्त मंत्री और 22 लाख रोजगार देने की उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की घोषणा महज लफ्फाजी है और जनता की आंख में धूल झोंकना है।

वित्त विभाग द्वारा जारी इस आदेश के बिंदु संख्या दो और तीन में कहा गया है कि सभी विभागों द्वारा उन्हीं योजनाओं को क्रियान्वित किया जाए जो अपरिहार्य हों। साथ ही बिंदु संख्या तीन में तो किसी नई निर्माण परियोजना के शुरू करने पर रोक लगाते हुए कहा गया है कि जो कार्य प्रारम्भ किए जा चुके हैं वही कार्य कराए जाएं। आदेश का बिंदु संख्या चार कहता है कि कार्य प्रणाली में परिवर्तन, सूचना प्रौद्योगिकी के अनुप्रयोग आदि के कारणों से अनेक पद सरकारी विभागों में अप्रासंगिक हो गए है इसलिए इन पदों को चिन्हित कर इन्हें समाप्त किया जाये और जो कर्मचारी इन पर कार्यरत हो उन्हें अन्य विभागों में रिक्त पदों पर समायोजित किया जाए। बिंदु संख्या पांच में नई नियुक्तियों पर पूर्णतया रोक लगाते हुए कहा गया है कि आवश्यक कार्यो को आऊटसोर्सिंग से कराया जाए। यहीं नहीं कल निदेशक बाल विकास एवं पुष्टाहार विभाग द्वारा प्रदेश में कार्यरत तीन लाख से ज्यादा आँगनवाडियों व सहायिकाओं की सूची मांगी है जिनकी उम्र 62 साल से ज्यादा है यानी सरकार ने इनकी छटंनी की तैयारी कर ली है। प्रदेश सरकार ने काम के घंटे बारह करके 33 प्रतिशत श्रमिकों व कर्मचारियों की छटंनी का फैसला किया था जिस पर हमारे हाईकोर्ट में हस्तक्षेप के बाद सरकार को बैकफुट पर आकर आदेश वापस लेना पड़ा। अभी भी सरकार 38 में से 35 श्रम कानूनों को तीन साल तक स्थगित करने की कोशिश में लगी है लेकिन आज तक वह इस सम्बंध में अध्यादेश नहीं ला पायी है। बहरहाल इन हालातों में आप खुद ही सोचें कि प्रदेश में आ रहे लाखों-लाख प्रवासी मजदूरों की आजीविका व रोजगार की व्यवस्था करने और प्रदेश में सबको रोजगार देने की योगी जी की लगातार जारी बड़ी-बड़ी घोषणाओं की हकीकत क्या है।

बहरहाल कथित महामानव के नाटकीय सम्बोधन और बीस लाख करोड़ के पैकेज की घोषणा के लिए मैदान में उतरी वित्त मंत्री महोदया ने अपनी पांच दिन चली थकाऊ और उबाऊ प्रेस वार्ताओं के बाद अंतिम दिन जो कहा वह गौर करने लायक है। उनके ही शब्दों में यह कोरोना महामारी का राहत पैकेज नहीं आर्थिक सुधार का रास्ता है। यही सच है. औद्योगिक पूंजीवाद से वित्तीय पूंजीवाद को ओर बढ़ चली दुनिया में मोदी सरकार मनमोहन सिंह द्धारा शुरू की गयी नई आर्थिक-औद्योगिक नीतियों को अंतिम स्वरूप प्रदान कर रही है। जिसका सीधा मलतब है बड़ा जन विनाश, छोटे-मझोले उद्योगों, खेती किसानी की बर्बादी, सार्वजनिक सम्पत्ति को बेचना, नौकरियों से छटंनी, रोजगार का खात्मा और बड़ी आबादी को बेमौत मरने के लिए छोड़ देना। सीधे शब्दों में कहें तो रूसी क्रांति के बाद घबराए पूंजीवाद ने जिस कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को स्वीकार किया था उसका खात्मा। इन परिस्थितियों में विपक्ष के पास भी कोई वैकल्पिक रास्ता नहीं है बल्कि सच तो यह है कि इस वित्तीय पूंजी के रास्ते पर सबकी सहमति है। इसलिए एनजीओ मार्का सहायता और कुछ इवेंट के अलावा आज तक देश का मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस कोरोना महामारी निपटने में पूर्णतया विफल रही इस सरकार से नैतिक रूप से सत्ता छोड़ने की बात तक नहीं कह पा रहा है। हद तो यह है कि बहुजन राजनीति करने वाली मायावती तो सीबीआई से खुद व अपने परिवार को बचाने के लिए योगी सरकार को बचाने में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा रही है। 

    ऐसे में मेहनतकश वर्ग का यह ऐतिहासिक दायित्व है कि वह इस विनाशकारी वित्तीय पूंजीवाद के खिलाफ एक बड़ी राजनीतिक भूमिका में आए और राजनीतिक प्रतिवाद दर्ज करे। जनपक्षधर वैकल्पिक नीतियों पर आधारित जनराजनीति को खड़ा करने की अगुवाई करे। वर्कर्स फ्रंट इसी दिशा में महनतकशों के राजनीतिक प्रतिवाद को संगठित करने का राष्ट्रीय मंच है। 

दिनकर कपूर
वर्कर्स फ्रंट

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