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14.5.20

भारत के मजदूर क्या अभी भी रोम के गुलामों जैसे गुलाम हैं ?

किसी भी राष्ट्रराज्य की सफलता का आकलन इस बात से लगाया जाता है कि उसके राज्य की प्रत्येक प्रजा (जनता )सुखी हो,उसे जीवन जीने की न्यूनतम आवश्यकता कम से कम 'भोजन ' समय से मिल जाय। आज लॉकडाउन को देश में लगे हुए ठीक 48 दिन हो गए। इस देश के धनाढ्य वर्ग,मध्यमवर्ग विशेष रूप से राज्य व केन्द्र सरकार में नौकरी करने वाले लोगों को इस लम्बे लॉकडाउन से कोई विशेष फर्क नहीं पड़ा है,लेकिन इस देश के अतिनिर्धन लगभग 22 करोड़ जनसंख्या वाले लोग जैसे भूमिहीन किसान,दिहाड़ी मजदूर, छोटे रेहड़ीपटरी वाले दुकानदार, रिक्शे,ऑटो,टैक्सी वाले आदिआदि लोगों को जो अपना पेट पालने के लिए अपने गृहराज्य से हजारों किलोमीटर दूर किसी दूसरे राज्य में कोई छोटीसी नौकरी के लिए गए हुए थे,वे अचानक किए गए इस लॉकडाउन के अन्तर्गत सामान्य लोगों के यातायात की साधन रेलों को एकदम ठप्प हो जाने,नौकरी छूटने,मकान किराए का भार आदि से उनको इस 48 दिनों में भूखों मरने की नौबत आ गई है !

      सरकार के कर्णधारों ने लॉकडाउन लगाने से पूर्व इस गंभीर स्थिति का आकलन करने में बहुत बड़ी गलती कर दिए हैं तमाम सोशल मिडिया से आ रही खबरों के अनुसार इस प्रकार के दिहाड़ी या ठेके पर काम करनेवाले गरीब लोग जब सरकारों की उदासीनता और निष्क्रियता से भूख से तड़पने लगे तब अपने बीवी-बच्चों सहित अपने हजारों किलोमीटर दूर अपने गाँवों को चल दिए। सरकार के कर्णधारों ने विदेशों से उन धनाढ्यों को लाने में तो बहुत फुर्ती और मुस्तैदी दिखाए,जिन पर विदेशों से कोरोना वायरस लाने का शक है,परन्तु देश के ही उन गरीब मजदूरों को,जो देश में ही भूख से तड़प रहे थे और अपने गाँव अपने परिवार के पास जाना चाहते थे, बिल्कुल उपेक्षित छोड़ दिए। यही नहीं बिभिन्न राज्यों की पुलिस इन गरीब मजदूरों को घर जाने के रास्ते में अकारण लाठियों से जबर्दस्त मार-पीट रही है। अब जब लॉकडाउन को लगे आज अड़तालिसवाँ दिन हो रहा है,जब इस देश की चरमराती अर्थव्यवस्था को ठीक करने के लिए सरकारों और पूंजीपतियों को अपने उद्योगों को पुनः खोलने की जरूरत महसूस हो रही है,तब इन सभी को अब मजदूरों की सुध आई है। जब तक सैकड़ों मजदूर इस सरकारी घनघोर उपेक्षा से मौत के आगोश में जा चुके हैं,कुछ ट्रेन से,कुछ मोटर गाड़ियों से कुचलकर,कट कर मर चुके हैं,कुछ भूख से,कुछ हजारों किलोमीटर की लम्बी यात्रा की थकान आदि से अपनी इहलीला समाप्त कर चुके हैं।

        एक यक्ष प्रश्न यह है कि सत्ता के इन असंवेदनशील व क्रूर कर्णधारों की सोच इतनी घटिया हो गई है,जो यह समझ ही नहीं पा रहे हैं कि 'मजदूर 'भी सांसों के स्पंदन से युक्त हाड़-मांस से युक्त एक जीवित मनुष्य हैं। अब वे मिश्री व रोमन सभ्यता या ब्रिटिश उपनिशवादियों  के समय के गुलाम या दास नहीं हैं,जिन्हें कोड़े मारकर तब तक काम लिया जाता रहे,जब तक उनके प्राण पखेरू न उड़ जाए।

       श्री मोदीजी और इनके मातहत मंत्रीपरिषद इस देश की सभी व्यवस्था को बदहाली की चरम स्थिति तक पहुँचा दिए हैं,इस पर तुर्रा यह कि इनके गृहमंत्री द्वारा यह बयान दिया जाता रहा है कि 'हम 50 साल तक शासन करेंगे। ' क्या देश पर शासन करने का यही बेस्ट गुजराती मॉडल है ? इन बातों से क्षुब्ध सुप्रीमकोर्ट के एक जज का बयान कल के कई समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ है कि 'अगर मोदीजी और उनके राजनैतिक दल से देश की समस्याएँ नहीं सुलझ पा रहीं हैं,तो उन्हें इंग्लैंड के प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से सबक लेनी चाहिए,जो द्वितीय विश्वयुद्ध से ठीक पूर्व ब्रिटेन के विपक्षी लेबर पार्टी के सुयोग्य लोगों को अपनी सरकार में शामिल करके,सफलतापूर्वक नाजी जर्मनी से मुकाबला किया। ' उन्होंने आगे कहा कि देश की 80 से 90 प्रतिशत श्रमशक्ति, जिसमें दिहाड़ी और प्रवासी मजदूर आदि लोग हैं,जिनकी संख्या 40से 45 करोड़ है,अपनी नौकरी खोकर,भूखों मरने के कग़ार पर हैं। इतनी भारी संख्या में भूख से बेहाल जनसंख्या कभी भी भारी विद्रोह कर सकती है,इसलिए भारत के वर्तमान सत्ता के कर्णधार श्री मोदीजी को विपक्षी दलों के सुयोग्य नेताओं, वैज्ञानिकों, ईमानदार प्रशासनिक अधिकारियों तथा समाज के प्रबुद्ध लोगों को अपने मंत्रीमंडल में स्थान देकर,उनसे देश को 'वर्तमान संकट ' से उबारने में मदद लेनी चाहिए।

       हमारे विचार से सुप्रीम कोर्ट के इस रिटायर्ड जज साहब की सलाह समयोचित और न्यायोचित्त भी है,इस सलाह पर वर्तमान सरकार के कर्णधारों को बगैर किसी दुराग्रह और अहं के इस पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।यह सभी के हित में है,जनता के भी,समाज के भी, देश के लिए भी और सत्ता के वर्तमान कर्णधारों के लिए भी।

-निर्मल कुमार शर्मा, गाजियाबाद,11-5-2020

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