Bhadas ब्लाग में पुराना कहा-सुना-लिखा कुछ खोजें.......................

13.5.20

चुनार को अपनी चुप्पी तोड़ने का वक्त है

चुनार के हम सभी नागरिक, प्रबुद्धजन सहित तमाम सामाजिक संगठने अपने अति प्राचीन इतिहास की गौरव गाथा गाते हुए नहीं अघाते हैं। देश के किसी दुसरे हिस्से मे पहुचने पर लगता है कि अपना परिचय और अपने नगर का पहचान बताने के लिए इस दुर्ग और तमाम प्राचीन धरोहरो के अलावा कुछ है ही नहीं। बावजूद इन सबके सभी अपनी तमाम ऐतिहासिक धरोहरों की प्राचीनता को बराबर पहुंचाई जा रही क्षति को कैसे देख कर बर्दाश्त कर रहे हैं। इतना ही नहीं  यदि कोई नागरिक ऐसी कृत्यो को गंभीरता से  उठाता भी है तो  उसके साथ  खड़े होने की बजाय मूकदर्शक बनकर तमाशा देखना ही पसंद करते हैं । कही यह  स्थिति प्रचलित दोहरी चरित्र का नमुना तो नही है। पिछले कई वर्षों से लगातार यहां की पुरातात्विक महत्व की संरक्षित धरोहरों की  प्राचीनता से छेड़छाड़ की लगातार पुनरावृति तो यही साबित कर रही है। हर घटना के बाद किसी कोने से आवाज उठती है। मामले की जांच होती है,गाहे-बगाहे किसी प्रकार प्राथमिकी भी दर्ज हो जाती है किंतु नतीजा ढाक के तीन पात ही साबित  दिखता है। ऐसे मे चुनार के जन जन की प्रबल पहचान का दावेदार ये दुर्ग सहित अन्य बेजुबान धरोहर सभी से पूछ रहे है कि क्या हम तुम्हारे पहचान के बीच अपनी शुरक्षा  के हकदार भी नही है?       

बीते दिनो एक  अखबार  में "किले के दीवार के पास हो रही है अवैध खनन" शीर्षक से छपी खबर ने इस सिलसिले को फिर एक बार ताजा कर दिया है। कोरोना संक्रमण के बीच देशव्यापी लॉक डाउन में घटित इस घटना का संज्ञान क्षेत्रीय पुरातत्व अधिकारी ने  लिया और निषिद्ध क्षेत्र में खनन कार्यों की जांच करने स्मारक परिचर सहित पुलिस, राजस्व विभाग, पर्यटन विभाग के अधिकारी मौके पर पहुंचकर  अपने अपने तरीके से जांच का कोरम कर लिया। घटना में  एक सप्ताह बाद ही सही  पुलिस ने  विभाग की तहरीर पर अज्ञात के विरुद्ध  सुसंगत धाराओं में  एफ आई आर दर्ज करके ऐसे किसी प्रकरण में  पहली बार अपनी कर्तव्यों का अच्छा उदाहरण प्रस्तुत किया है । किंतु  अज्ञात के विरुद्ध मामला दर्ज  होने के साथ  कई गंभीर सवाल भी खड़े हो गये हैं । लॉक डाउन की आड़ मे निषिद्ध क्षेत्र में खनन एवं तोड़फोड़ का कार्य कई दिनों से चल रहा था तो स्मारक  परिचर कहां था,क्यों नहीं उसने इस घटना की जानकारी तत्काल अपने आला अधिकारियों को दिया? इतना तो समझ में आना ही चाहिए की लॉक डाउन के दौरान घटना में किसी बाहरी व्यक्ति के सम्मिलित होने की संभावना कम ही है । यह तो नगर अथवा आसपास का ही कोई व्यक्ति है।  बीते  10 दिनों से नगर के लोगों के बीच जिस प्रकार की चर्चाएं  सुनने और पढ़ने में आ रही है। उससे तो यही समझ में आता है कि इस अनियमित कृत्य में सम्मिलित लोगों की जानकारी  चुनार के अधिकांश लोगों को हैं। बावजूद इसके कोई भी सामने आकर बताने की हिम्मत नहीं दिखा पा रहा है। एफआईआर दर्ज होने के बाद अब तो नगर सहित आसपास के ग्रामीण अंचलों के प्रबुद्ध व्यक्तियों और सामाजिक संगठनों के जिम्मेदार लोगों की जिम्मेदारी है कि पुलिस की जांच में सहयोग करें ताकि सच सामने आ सके। यदि अपनी जिम्मेदारी के निर्वहन में कोताही की गयी तो  नतीजा वही होगा,  जो पहले से  कार्यवाही के नाम पर खानापूर्ति की एक परंपरा बन चुकी है ।

      हालांकि ऐसी घटनाओ मे पुरातत्व विभाग  के साथ स्थानीय पुलिस एवं प्रशासन की शिथिलता के बीच चुनार के चुप्पी का मुद्दा व्यक्तिगत रूप से हमारे और नगर के कुछ समाजसेवी सहित मीडिया से जुड़े लोगों के लिए नई बात नहीं है। ये वही चुनार है, जहां के नागरिकों ने अपनी पहचान से जुड़े गौरव गाथा की पृष्ठभूमि को कई बार खोदते ,तोड़ते एवं बदलते हुए देखा ही नहीं है बल्कि  ऐसे कृत्यों को अपनी मौन सहमति भी देते रहे हैं। ये वही चुनार है, जहां पहले भी प्रशासनिक एवं पुलिस के जिम्मेदार अधिकारियों की सहमति पर न सिर्फ ऐसे अनियमित कार्य हुए हैं बल्कि उनके द्वारा अपनी सहमति का कीमत भी वसूला है ।

        क्षेत्र के बेजुबान पत्थर के चट्टान,इमारते, शिलालेख ऐसे तमाम घटनाक्रम तथा आरोपों के जीते के जागते दस्तावेज हैं ।  वर्ष 2009 में जब प्राचीन दुर्गा मंदिर स्थित खोह के प्राचीन ऊंची ऊंची सीढ़ियों को प्रशासनिक इशारे पर जेपी सीमेंट के अधिकारियों ने तोड़वाकर फेकवा दिया था । पुरातत्व विभाग के संरक्षित क्षेत्र की यह घटना भी प्रशासन के मौन सहमति  का ही परिणाम था। किंतु संज्ञान में आने पर जब इस प्रकरण में हस्तक्षेप किया गया तो पुरातत्व विभाग जागा । पुरातत्व अधिकारी ने आनन-फानन में मौके की जांच करके जेपी  सीमेंट चुनार के अधिकारियों के विरुद्ध प्राथमिकी दर्ज कर आवश्यक कार्रवाई हेतू तत्कालीन प्रभारी निरीक्षक को अपनी तहरीर भेज दी । मुझे याद है उस समय भी कुछ ऐसा ही हड़कंप मचा था किंतु चुनार कोतवाली ने उस समय आरोपियों के विरुद्ध एफ आई आर  दर्ज करने में भरपूर आनाकानी की थी। इसी घटना का संज्ञान लेकर राष्ट्रीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना अंचल  के निर्देश पर तत्कालीन एसडीएम चुनार श्री दया शंकर पांडे  ने एक जांच भी की थी। उनकी गहन जांच में भी जेपी के अधिकारियों को ही दोषी बताया गया  है । प्रकरण में आरोप और आरोपी दोनों स्पष्ट होने के बाद भी पुलिस एफ आई आर दर्ज नही कर रही थी। पुलिस प्रशासन की शिथिलता को देखते हुए जब उस प्रकरण में आरटीआई के तहत आवेदन करके पुलिस अधीक्षक मिर्जापुर से जानकारी मांगी गई तो नियमानुसार सूचना देने की बारी आयी तो  दबाव में आए तो थाने में तहरीर ही नहीं मिली। तत्कालीन प्रभारी निरीक्षकके मौखिक अनुरोध पर  पुरातत्व विभाग द्वारा भेजी गई तहरीर की छायाप्रति उपलब्ध करवाई थी । इस क्रम मे आप सभी को जानकर हैरानी होगी कि उस प्रकरण में 2 वर्ष के बाद जे पी सीमेंट चुनार  के अधिकारियों के विरुद्ध चुनार कोतवाली में मुकदमा पंजीकृत हो सका था किंतु पुलिस  की छलकदमी बरकरार रही । पुलिस ने जानबूझकर वादी  चुनार के कि आरटीआई आवेदक और वरिष्ठ पत्रकार श्री राजेंद्र मिश्रा को बना दिया जबकि घटना के संबंध में तहरीर पुरातत्व विभाग  की है।  इसके बाद एक ओर पुलिस अपने कर्तव्यों एवं दायित्वों को ताक पर रख  प्रकरण में सौदेबाजी  करती नजर आई थी । दूसरी ओर प्रकरण की लीपापोती कर पुलिस ने अपनी फाइनल रिपोर्ट मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट मिर्जापुर को प्रेषित कर दी थी। आपको जानना जरूरी है कि पुलिस की रिपोर्ट को देखकर न्यायालय ने जांच के आधार पर ही सवाल खड़ा कर पुन: विवेचना के आदेश  के साथ पुलिस को वापस कर दिया था । जनपद के कुछ मीडिया के साथी और प्रबुद्ध जन इस बात को जानते भी होंगे कि अपनी धरोहरों को बचाने की दिशा में की गई इस कोशिश में निष्पक्ष एवं पारदर्शी जांच करने की बजाय  पुलिस ने सौदेबाजी करके चुनार कोतवाली में प्रभारी निरीक्षक और मिर्जापुर में पुलिस अधीक्षक का कार्यालय प्रदेश के अत्याधुनिक कार्यालयों में तब्दील    हुआ था। 

        इस पुलिसिया गोलमाल के संबंध में जब पुनः एक आरटीआई के तहत आवेदन देकर यह पूछा गया कि पुलिस अधिकारियों के कार्यालय की साज सज्जा के लिए बजट किसने दिया है तो मामला फिर दोबारा उलझ गया। पूरा पुलिस महकमा सकते में था, अपनी बचाव मे पुलिस ने सुनियोजित तरीके से मेरे ऊपर ही फर्जी दलित उत्पीड़न का मुकदमा दर्ज करके थोप दिया।  इतना ही नहीं पुलिस के एक उच्च अधिकारी तथा जिले के कुछ नामी-गिरामी पत्रकारों के द्वारा मेरे ऊपर दबाव भी बनाया गया कि अपनी आरटीआई को आप वापस ले लीजिए, जो मुझसे संभव नहीं हुआ। इस प्रकरण में आगे चलकर थक हारकार तत्कालीन पुलिस क्षेत्राधिकारी के द्वारा फाइनल रिपोर्ट लगा दी गई।

       चुनार की प्राचीन धरोहरों से खिलवाड़ करने का यह प्रकरण न हीं पहला था और वर्तमान में जो कुछ चल रहा है उसको देख कर इसे अंतिम ही कहा जा सकता है। चुनार किले के साथ-साथ आसपास के अन्य प्राचीन स्मारकों के मूल स्वरूप को बदलने की कई बार कोशिशें हुई हैं जिसमें कुछ सफल कुछ असफल है।  इसके पूर्व कई प्रकरणों में चुनार कोतवाली को विभाग के द्वारा सूचित किया गया है किंतु प्राथमिकी दर्ज नहीं की गई। कुछ में प्राथमिकी दर्ज भी की गई तो समुचित कार्यवाही नहीं हो पाई। इसका नतीजा यह हुआ कि आज जो किला अथवा आसपास के प्राचीन धरोहरों का स्वरूप है उसकी मौलिकता में काफी परिवर्तन हो चुका है। अब सवाल यह उठता है कि सरकार पर्यटन विकास की ओर कदम बदा चुकी है, संभावनाएं तलाश रही हैं ।इस बीच में चुनार को जिस प्रकार एक प्रमुख केंद्र के रूप में देखा जा रहा है, उसका आधार क्या है ?देसी विदेशी पर्यटक किस चुनार को देखने एवं समझने के लिए यहां आएंगे, आधुनिक चुनार को या प्राकृतिक एवं प्राचीन चुनार को। इन प्रश्नों का जवाब नगर और आसपास के लोगो को  ही देना पड़ेगा। यदि अब भी चुनार अपने इन धरोहरों के प्राचीनता को संभाल एवं सहेज कर रखने में नाकाम होता है तो पर्यटन उद्योग कहां तक  अपने विकास का  सफर कर पाएगा ऐसे कई सवालो का जबाब कभी न भूलने वाला कोरोना काल पुछ रहा है । आगे इतिहास याद दिलायेगा।

दिनांक 13मई 2020

प्रदीप कुमार शुक्ला
आरटीआई / पर्यावरण  कार्यकर्ता  मिर्जापुर,उत्तर प्रदेश      

No comments: