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14.5.20

भारत-चीन सैनिक झड़प : अतीत के आईने और भविष्य के मायने

अमूमन भारत-पाकिस्तान के बीच होते रहने वाली झड़पों में तो हमलोग पाकिस्तान को सबक सिखाने की बात करते आये हैं, लेकिन यदा-कदा जब भारत-चीन के बीच सीधी झड़प की नौबत आती है तो हमलोगों का प्रायः वह उत्साह नहीं दिखता, जो ऐसे मौके पर दिखना चाहिए! तब हमलोग शायद यह भी नहीं सोच पाते कि जब पाकिस्तान, बंगलादेश, श्रीलंका, मालदीव, नेपाल, वर्मा आदि जैसे हमारे लघु पड़ोसी देश हमारी उदारतावश कभी कभार हमसे आंख में आंख मिलाकर बातचीत करने की हिमाकत करते आए हैं, तो फिर भारत जैसा मजबूत देश और हम भारतवासी चीन के साथ ऐसा क्यों नहीं कर सकते! यही वह बात है जिसे समझने, समझाने और तदनुरूप नीतियां बनाने की जरूरत है, जिससे हमारा सियासी व प्रशासनिक जमात भी कमोबेश बचने की कोशिश करता आया है। फिर भी मोदी युगीन भारत में समर्थ चिंतन की जो अजस्र धारा सिस्टम के हरेक रग को अनुप्राणित कर रही है, उसे व्यापक जनसमर्थन कैसे मिले, इस ओर भारतीय प्रबुद्ध लोगों को सतत सचेष्ट रहना होगा।

दरअसल, सन 1962 के अप्रत्याशित भारत-चीन युद्ध में वीरों की भूमि कहे जाने वाले भारत की नहीं, बल्कि एक सदाशयी और साहित्यिक मिजाजी प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के अव्यवहारिक चिंतन की हार हुई थी, गुटनिरपेक्षता और पंचशील सिद्धांत जैसी उनकी तत्कालीन अदूरदर्शितापूर्ण नीतियों की पराजय हुई थी। क्योंकि हिंदी-चीनी भाई-भाई के खटराग के समानांतर उन तैयारियों को उन्होंने कभी अहमियत नहीं दी, जो कि निज भाई के ही जानी दुश्मन बन जाने की आशंकाओं के मद्देनजर हर जगह पर की जाती है। बाद के वर्षों में हमने महसूस किया है कि भूतपूर्व प्रधानमंत्रियों यथा- लालबहादुर शास्त्री, इंदिरा गांधी, राजीव गांधी से लेकर मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दृढ़ निश्चय से आसेतु हिमालय वासियों को यह समझा दिया कि चीन-पाकिस्तान जैसे खुटरमचाली देश यदि तनें तो आंख झुकाने या पीठ दिखाने की नहीं बल्कि आंख में आंख मिलाकर बात करने और सीने पर मुक्का तानने वाली मुद्रा दिखाने को उद्यत रहने वाला निर्भीक भाव प्रदर्शित करने की सख्त जरूरत है। अपने इस फौलादी और चट्टानी इरादे में हमलोग एक हद तक सफल भी होते आये हैं और होते रहेंगे, क्योंकि देशज कहावत भी है कि हिम्मते मर्दे, मर्दे खुदा। यहां पर यह स्पष्ट कर दें कि हमलोग शब्द में ही हमारे वीर बांकुड़े सैनिक भी शामिल हैं।

निःसन्देह, बदलते वक्त का तकाजा है कि हमारा प्रशासन पाकिस्तान-चीन के हर परोक्ष या प्रत्यक्ष गठजोड़ से मुकाबले की स्पष्ट और व्यापक रणनीति अमल में लाये, जिसमें स्पष्ट जनभागीदारी भी दिखे। भारतीय हितों की रक्षा करने और अंतर्राष्ट्रीय क्षितिज पर उसे सामर्थ्यशाली बनाये रखने हेतु यह बहुत जरूरी है। यहां यह बतलाना जरूरी है कि भारत-चीन के सैनिकों के परस्पर आमने सामने होते ही हमलोगों में भी वही जज्बा दिखना चाहिए, जो कि भारत-पाकिस्तान के सैन्य झड़प के मौके पर दिखाई देता है। यह बात मैं इसलिये बता रहा हूँ कि यह भारत सबका है, लेकिन ऐसे अहम मौकों पर समाज के एक वर्ग में जिस राष्ट्रवादी उत्साह का सर्वथा अभाव महसूस किया जाता है, वैसे लोग आखिर यह क्यों नहीं सोचते कि उनके भी खातिर सीमा पर चीनी सैनिकों से दो-दो हाथ करके लड़ने का माद्दा दिखाने वाले हमारे वीर बांकुड़े जवानों पर तब क्या बीतती होगी, जब उन्हें यह एहसास होता होगा कि उन्हें सम्पूर्ण भारत के लोगों का अपेक्षित समर्थन हासिल नहीं है!

इस बात में कोई दो राय नहीं कि अविलम्ब प्रशासनिक सहयोग और पर्याप्त जनसमर्थन के संकेत मिलते रहने से ही हमारे कमांडरों व उनके सहयोगियों का मनोबल ऊंचा रहता है। इसके लिए हमें अपने आंतरिक जनतांत्रिक शत्रुओं यथा- जातिवाद, सांप्रदायिकता, क्षेत्रवाद, वर्गवाद, भाषावाद और सम्पर्कवाद जैसी व्यवस्थागत कमियों, उनमें निहित खामियों से आगे निकलकर समवेत स्वर में बात करने की हमें अथक कोशिश करनी होगी।

# आप मानें या न मानें, मई के पहले पखवाड़े में भारत-चीन के सैनिकों के बीच सिक्किम में हुई ताजा झड़प के कुछ खास निहितार्थ हैं, जिन्हें समझने, समझाने और उसके मुताबिक ही भावी रणनीति अख्तियार करने की जरूरत है।

पहला, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत और उसके प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बढ़ते सियासी कद से चीन-पाकिस्तान के पेट में रह रह करके जो दर्द उठ जाता है, इससे उनको जो दिली परेशानी होती है, उसका बस एक ही उपाय है कि हमलोग सैन्य, कूटनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सियासी मोर्चे पर सतत संचेतनशील रहते हुए अपेक्षित सावधानी बरतें। क्योंकि जिस तरह से हमारी विविधता में एकता की परिपाटी को खंडित कर भारत को 30 हिस्सों में बांटने का दिवास्वप्न चीन देखता और पाकिस्तान उसे दिखाता आया है, उसका अब एक ही जवाब है, वह है मुंहतोड़ जवाब! खुद से भी और दुनियादारी के मोर्चे पर भी, जैसा कि पीएम मोदी ने कर दिखाया है।

दूसरा, भारत-चीन के रणनीतिक सम्बन्धों में उतार-चढ़ाव की जो दो मुख्य वजहें  हैं, उसमें से एक भारत व उसके मित्र देशों के साथ, अमेरिका व उसके मित्र देशों के आर्थिक व सैन्य हितों से पारस्परिक सामंजस्य बिठाने की अंदरूनी कोशिशें हैं, तो दूसरा भारत व उसके प्रति सहानुभूति रखने वाले हमदर्द देशों के साथ वैश्विक कूटनीतिक मंच पर हमारे सबसे भरोसेमंद मित्र देश रूस (पहले सोवियत संघ) व उसके समर्थक देशों के कूटनीतिक, सैन्य व व्यापारिक हितों से पारस्परिक सामंजस्य बिठाने की अंदरूनी कोशिशें हैं, जो हमारे सिस्टम से अपना गहरा नाता रखती हैं। वहीं, चीन की भी चाहत है कि भारत के दिल में उसके और उसके शागिर्द देशों के प्रति भी अमेरिका और रूस परस्त जैसा ही कूटनीतिक, आर्थिक व सैन्य रणनीतिक प्यार उमड़े, ताकि अमेरिका-रूस को वह अपने हिसाब से संतुलित रख सके। लेकिन चीन से जुड़े कड़वे अतीत के मद्देनजर और हाल के दशकों में उसके द्वारा बार बार प्रदर्शित  दांव-प्रतिदांव के नजरिये से भारत उस पर पक्का भरोसा कर ही नहीं सकता है। क्योंकि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से चीनी नेतृत्व ने जो छल किया और 1962 के घाव दिए, उसका भरना इतना आसान नहीं है। वो भी तब जबकि वैश्विक दुनियादारी में पाकिस्तान व वहां के आतंकियों की वह खुली हिमायत करता है। यदि भारत अपने कड़वे इतिहास और तल्ख अनुभवों की उपेक्षा करके चीन की सहानुभूति हासिल करने वाला कोई भी पैंतरा बदलता है तो वह भविष्य में उस पर ही भारी पड़ सकता है। इसलिए भारतीय प्रशासन व उसका नेतृत्व हमेशा सतर्क व चौकस रहता है।

तीसरा, सिक्किम के नाथूला सीमा पर दोनों देशों के फौजियों के बीच जिस प्रकार जमकर हाथापाई और पत्थरबाजी हुई, उससे दोनों देशों के वीर जवानों की मनोदशा का परिचय तो मिलता ही है। वो भी तब, जब यह टकराव 19000 फुट की ऊंचाई पर हुआ हो। तब भले ही दोनों देशों के स्थानीय नेतृत्व की बातचीत से हालात को बिगड़ने से बचाया गया हो, लेकिन सवाल फिर वही कि ऐसा ही एक अन्य विवाद तो पूर्वी लद्दाख के पैंगोंग लेक के उत्तरी की ओर भी हुआ है। स्पष्ट है कि डोकलाम विवाद के लगभग तीन वर्ष बाद हुई इस भिड़ंत की अवधि और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थिति, दोनों गौर करने वाली है, वो भी तब जबकि भारत, पाकिस्तान की तरफ से हो रही अपेक्षाकृत इससे भी बड़ी और खूनी झड़पों का करारा जवाब दे रहा हो।

चौथा, सामरिक रूप से नाथूला का अपना महत्व है। इसलिए इस अहम टकराव के तीन प्रमुख कारण गिनाए जा सकते हैं। एक, यह कि यह पूरा इलाका बर्फीला है, जहां गर्मियों में बर्फ पिघलने के बाद ही दोनों देशों की सेनाओं द्वारा इलाके के अपने अपने क्षेत्रों में पेट्रोलिंग की जाती है, और इसी क्रम में कभी कभार उनका आमना-सामना भी हो जाता है, जिसे प्रोटोकॉल के तहत निबटाया जाता है। दो, दोनों देशों के बीच सीमा के निशान तक नहीं हैं, जिससे सैनिक अक्सर आमने सामने आते जाते रहते हैं। तीन, चीनी सेना वहां सड़क बनाने की कोशिश कर रही है, जिसका भारतीय प्रतिरोध स्वाभाविक है। बताया जाता है कि चीन अपनी चुंबी घाटी में सड़क बना चुका है, जिसे अब और विस्तार देना चाहता है।

पांचवां, ताजा झड़प अचानक नहीं बल्कि चीन की सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है। वाकई जितने लंबे समय के बाद भारत-चीन के सैनिकों के बीच यह झड़प हुई है, इसके मुख्य कारण गिलगित-बाल्टिस्तान पर भारत की हालिया आक्रामक नीति और कोरोना के मोर्चे पर चीन का अपने ही घर में बुरी तरह से घिर जाना भी है। क्योंकि चीन जब भी घरेलू मोर्चे पर घिरता है तब वह अपने देश में राष्ट्रवाद की भावना पैदा कर अपने नागरिकों का ध्यान मूल मुद्दे से हटाने की अथक कोशिश करता आया है। सीधे शब्दों में कहें तो ऐसी घटनाएं एकाएक नहीं हुई बल्कि चीन ने एक सुनियोजित रणनीति के तहत तनाव पैदा करने की कोशिश की है ताकि भारतीय नेतृत्व उसके दबाव में रहे और पाक के खिलाफ आक्रामक रुख से बाज आये।

छठा, आपको याद होगा कि वर्ष 2017 में भारत-चीन सीमा पर अवस्थित डोकलाम में 72 दिनों तक ऐसे ही तनाव का वातावरण बना था, क्योंकि तब भी सीमाई क्षेत्र में चीन द्वारा सड़क बनाने पर दोनों सेनाओं के बीच लंबा तनाव चला था। तब 16 जून 2017 को शुरू हुई झड़प आखिरकार दोनों सरकारों की कोशिश के बाद 28 अगस्त 2017 को खत्म हुआ था। क्योंकि तब भारत ने चीन को सड़क बनाने से रोक दिया था। हालांकि, चीन का दावा था कि वह अपने इलाके में सड़क बना रहा था। वहीं, अगस्त 2017 में भी दोनों देशों के सैनिकों में लद्दाख में झील के पास झड़प हुई थी। उसके बाद मामला सुलझा था।

सातवां, पूर्वी लद्दाख सेक्टर में भी गत 5-6 मई की रात भारत-चीन सैनिकों में झड़प हुई थी। दोनों तरफ से सैनिक गुत्थमगुत्था हुए थे, लेकिन वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तय प्रोटोकॉल के तहत इसे स्थानीय स्तर पर सुलझा लिया गया। दरअसल, भारत चीन के बीच 3488 किलोमीटर लंबी सीमा है जिसका 220 किलोमीटर हिस्सा सिक्किम में आता है। इसलिए, सीमा विवाद को लेकर भारत और चीन के सैनिकों के बीच अस्थाई और छिटपुट झड़पें होती रहती हैं। लेकिन इस बार की झड़प काफी अरसे बाद हुई है। भले ही दोनों सेनाओं के बीच ऐसी तनातनी में सख्त प्रोटोकॉल के तहत मामला सुलझा लिया जाता है। दोनों देशों के लिए खास बात यह है कि तनाव के चरम पर पहुंचने तक दोनों सेनाएं गोली नहीं चलाती। यही वजह है कि भारत चीन सीमा पर दोनों सेनाओं में हाथापाई या पत्थरबाजी जैसी घटना की ही खबर आती है।

आठवां, भारतीय सेना की इन बातों में दम है कि सीमाएं स्पष्ट नहीं होने के कारण ऐसी छोटी-मोटी झड़पें होती रहती हैं। इस बार दोनों पक्षों के ज्यादा उग्र हो जाने से सैनिकों को चोट आई हैं। हालांकि, बातचीत के बाद दोनों पक्ष शांत हो गए हैं, क्योंकि सेनाएं तय प्रोटोकॉल के हिसाब से ऐसे मामले आपसी बातचीत से सुलझा लेती हैं। दूसरी ओर, कतिपय रक्षा विशेषज्ञ चीन के इस आक्रामक व्यवहार को कोविड-19 की वजह से उस पर बढ़ते अंतरराष्ट्रीय दबाव से भी जोड़कर देखते हैं, जो गलत नहीं है। इन दिनों चीन जिस तरह से अपने पड़ोसियों को धमकाने की कोशिश कर रहा है, उसके पीछे की राज की बात यह है कि ऐसे सभी देश वैश्विक मंच पर उसके खिलाफ जांच करने की  पश्चिमी देशों की मांग का समर्थन ना करें। चाहे नेपाल से जुड़े माउंट एवरेस्ट पर नवकब्जा स्थापित करने की चाल हो, या फिर जापान नियंत्रित सेनकाकू द्वीप में पिछले कुछ दिनों से चीन के जहाजों द्वारा अतिक्रमण करने की बात, सबके पीछे उकसाने या भयभीत करने की उसकी फितरत शामिल है।

नवम, कहना न होगा कि यह सब कुछ तब हो रहा है जब अप्रैल 2018 में चीन के वुहान में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की पहली अनौपचारिक बैठक में दोनों नेताओं ने भरोसा और समझ बढ़ाने की बातचीत को मजबूत करने के उद्देश्य से अपनी अपनी सेनाओं के लिए स्ट्रैटेजिक गाइडेंस जारी करने का फैसला किया था। उसके बाद, पिछले साल भी तमिलनाडु में नरेंद्र मोदी और शी जिनपिंग के बीच द्विपक्षीय संबंधों को मजबूत करने पर चर्चा हुई थी। इसलिए भारतीय नेतृत्व को और अधिक चौकन्ना रहने की जरूरत है। क्योंकि विश्व विरादरी में मुंह में राम, बगल में छुरी रखने का उस्ताद यदि कोई है तो वह चीन ही है।

दशम, आपके लिए यह जानना जरूरी है कि सिक्किम के उत्तरी हिस्से में नाथूला तकरीबन 5259 मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक दर्रा है जिस पर चीन बहुत पहले से अपना दावा करता आ रहा है। 1962 के युद्ध के बाद भी उसने कई बार इस क्षेत्र को लेकर दावा किया है। लिहाजा, इस तरह की झड़पें यहां पहले भी हुई हैं और भविष्य में भी संभावित हैं। ऐसा इसलिए कि स्पष्ट अंतरराष्ट्रीय सीमांकन नहीं होने की वजह से गर्मी के महीनों में अक्सर चीन के सैनिक अतिक्रमण की कोशिश करते हैं जिससे टकराव की स्थिति बन जाती है। फिलहाल दोनों पक्षों में बातचीत के बाद हालात सामान्य हो गए हैं। लेकिन ये कब तक ऐसे बने रहेंगे, इस बारे में किसी ठोस निष्कर्ष पर पहुंचना बेहद मुश्किल व जोखिम भरा काम है। इसलिए अपेक्षित सावधानी जरूरी है।

कमलेश पांडे, वरिष्ठ पत्रकार व स्तम्भकार
वैशाली, गाजियाबाद, यूपी-201010.
kamleshforindia@gmail.com

1 comment:

राजनैतिक दुनिया said...

संपादक महोदय का हार्दिक आभार