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21.5.20

इंकलाब करने से ही मिलेगा जनता को उसका हक

चरण सिंह राजपूत

शोषकों से राहत की उम्मीद न करें किसान-मजदूर... जब आचार्य चाणक्य के अथक प्रयास से उनका शिष्य चंद्रगुप्त मगध की गद्दी पर बैठ गया तब

भी चाणक्य अपनी झोपड़ी में ही रहे। किसी ने उनसे पूछा कि आचार्य अब आपका शिष्य यहां का राजा है तो फिर अब ये कष्ट क्यों ? आप राजमहल में क्यों नहीं रहते ? पता है कि चाणक्य ने क्या जवाब दिया था ? उन्होंने कहा कि यदि मैं राजमहल में रहने लगा तो एशोआराम की जिदंगी बिताने का आदी हो जाऊंगा। संसाधनों और सुविधाओं में खोकर लोगों का दुख दर्द भूल जाऊंगा। उनका कहना था कि जनता का दुख-दर्द समझने के लिए खुद को दुखऔर दर्द का एहसास होना जरूरी है। यही कारण था कि आजादी की लड़ाई में महात्मा गांधी ने जनता का दुख दर्द जानने के लिए अपने को कष्ट दिये।

सम्पन्न परिवार में जन्मे गांधी जी ने एक आम आदमी की जिदंगी जीकर आजादी की लड़ाई लड़ी। चाहे लोक नारायण जयप्रकाश हों, डॉ. राम मनोहर लोहिया हों, चौधरी चरण सिंह हों या फिर राज नारायण सिंह इन सभी समाजवादियों ने सुख सुविधाओं को त्याग कर संघर्ष का रास्ता अपनाया। भाजपा में भी अटल बिहारी वाजपेयी ने अभाव में संघर्ष करके अपने का साबित किया। यही वजह थी कि ये लोग जनता की लड़ाई लड़े। क्रांतिकारियों में चाहे भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद हों, सुभाष चंद्र बोस हों, राम प्रसाद बिस्मिल हों, आशफाक उल्ला खां हों या फिर दूसरे क्रांतिकारी इन सबने जनता के बीच में रहकर जनता के दुख-दर्द को समझा और आजादी की लड़ाई लड़ी। जिस नेता ने अपने को तपाया और जनता के बीच रहा उसी ने जनता के दुख दर्द को समझा और जनता के लिए काम किया। इस देश में समाजवादियों पर जनता गर्व करती थी।

आज की तारीख में वे लोग समाजवाद का मजाक बना रहे हैं जो अंग्रेजों के चाटुकार रहे हैं। आजादी की लड़ाई लडऩे वालों का मजाक आजादी का विरोध करने वाला बना रहे हैं। तिरंगे को जलाने वाले आज तिरंगे के सबसे बड़ा संरक्षक होने का दंभ भर रहे हैं। क्यों ? इसलिए क्योंकि समाजवाद का ठेका लिये घूम रहे नेता अब समाजवादी रहे ही नहीं। समाजवाद का मतलब गैर बराबरी का विरोध। आज की तारीख में यदि असली समाजवाद की बात कही जाए तो ये जितने भी दल समाजवाद के नाम पर चल रहे हैं सबसे पहले इनके मुखिया का ही विरोध होगा। इन सबने अकूत संपत्ति अर्जित कर ली है।

वे कार्यकर्ताओं को कार्यकर्ता नहीं बील्क अपना गुलाम समझते हैं। जातिवाद और परिवार ही इनका समाजवाद रह गया है। यही वजह है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमित शाह ने इन्हें भिज्गी बिल्ली बना रखा है। आज यदि कोरोना की लड़ाई में आम आदमी सडक़ों पर आ गया है। प्रवासी मजदूर दम तोड़ रहा है तो इसका बड़ा कारण इस देश के नेताओां का पूंजीपति हो जाना है। देश में पूंजीपति, नौकरशाह और राजनेताओं का गठबंधन है। ये लोग किसी भी तरह से सत्ता को हथियाकर जनता को कठपुतली बनाकर रखना चाहते हैं। प्रधानमंत्री ने यदि खुद संपत्ति अर्जित नहीं की है तो ये पूंजीपतियों को देश लुटवाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। देश के राजनेता, नौकरशाह और पूंजीपति दोनों हाथों से देश को लूट रहे हैं और जनता को धर्म और जाति के नाम का झुनझुना थमा दिया है। लोग कहते हैं कि अंग्रेजी हुकूमत में हम गुलाम थे। मैं कहता हूं कि आज की तारीख में इन लोकतंत्र के ठेकेदारों ने राजतंत्र और अंग्रेजी हुकूमत से ज्यादा गुलामी देश को दी है।

राहत कमजोर को दी जाती है न कि मजबूत को। मतलब कोरेाना की लड़ाई में मदद की जरूरत गरीब को है न कि अमीर को। जब देश का मजदूर अपने परिजनों के साथ कई सौ किलोमीटर पैदल चलने को मजबूर है। सडक़ पर दम तोड़ रहे हैं। कर्जा लेकर ट्रकों व दूसरे वाहनों में भूसे की तरह ढूंसा जाकर चलने को मजबूर है। जब कोरोना वारियर्स और उनका परिवार कोरोना से संक्रमित हो रहे हैं। जब फैक्टरी मालिक और मजदूर में वेतन को लेकर विवाद खड़ा हो गया है। जब किसान अपनी फसल को फेंकने को मजबूर है तो फिर इस पीएम केयर फंड, 20 लाख करोड़ के राहत पैकेज का क्या मतलब ?

दरअसल पूंजीपतियों के पैसे से राजनीति कर उनके दम पर ही सत्ता को हथियाने का प्रचलन हमारे देश मे काफी समय से चल रहा है। नेता जनता के बीच जाकर संघर्ष करने को तैयार नहीं। जनता को भी ये तामझाम के नेता ही पसंद हैं। यदि कोई ईमानदार व्यक्ति जनता के लिए संघर्ष करता भी है तो यही जनता उसे घर बैठने के लिए मजबूर कर देती है। 

आज की तारीख में जय श्रीराम का नारा अचानक गायब हो गया है क्यों ? यही लोग तो जय श्रीराम का नारा लगाते घूम रहे थे जो आज सडक़ों पर दम तोड़ रहे हैं।  पतन राजनीति का ही नहीं हुआ है। पतना जनता का भी हुआ है। कर्ज की जिंदगी जी रहा आदमी अपने को पूंजीपति समझने लगा है।  नौकरी पेशा व्यक्ति भले ही एक मजदूर से कम वेतन पाता हो पर उसे मजदूर बोझा ढोने वाला व्यक्ति ही लगता है। हर सम्पन्न व्यक्ति में सब ऐब गरीब आदमी में ही नजर आते हैं। गरीब आदमी ही है कि इन बेईमानों के चक्कर में लगातार आ जा रहा है।

मैंने देखा है कि आंदोलन किसान मजदूर के नाम पर होते हैं और जब चुनाव होता है तो लोग जाति और धर्म के; नाम पर बंट जाते हैं। कोई बताएगा कि ये जो मजदूर सडक़ पर दम तोड़ रहे हैं किस जाति से हैं ? क्या कोई मंदिर-मस्जिद, क्या कोई धर्म का ठेकेदार क्या कोई नेता इनके काम आ रहा है ? क्या किसी मंदिर में पूजा कर या फिर मस्जिद में नमाज पढक़र इनकी भूख और प्यास मिट जा रही है ? क्या कोई मंदिर या मस्जिद इस संकट के समय इनके काम आ रहा है ? जिस मोदी के पीछे देश पागल हो रहा था वह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर वाहवाही लूटने में लगे हैं। कहां है सीएए, एनपीआर,एनआरसी ? कहां है राम मंदिर ? कहां है बाबरी मस्जिद ? कहां हिन्दू धर्म के ठेकेदार? कहां है मुस्लिम धर्म के ठेकेदार?  किसी मजदूर को किसी किसान को, किसी गरीब आदमी को किसी मजबूर आदमी को किसी धर्म के ठेकेदार, किसी नेता, किसी ब्यूरोक्रेट ने कोई मदद पहुंचाई। अब भी आम आदमी ही आम आदमी के काम आ रहा है।

यदि कोरोना की इस लड़ाई में भी देश का किसान और मजदूर नहीं जागा तो समझो वे अपने बच्चों को बंधुआ बनाने के लिए छोड़ रहे हैं।  आत्महत्या करने, सडक़ पर भूखे प्यासे दम तोडऩे से अच्छा है कि कुछ करके मरो। जो लोग गरीब का हक मारकर उन पर राज कर रहे हैं उनके खिलाफ मोर्चा खोलना ही अब किसान और मजदूर का नैतिक धर्म है। 

विदेशी निवेश के लिए किसान की जमीन और मजदूर की मजदूरी हथियाने की तैयारी मोदी सरकार ने कर ली है। निश्चित रूप से लड़ाई बड़ी कठिन और बड़ी है पर मुश्किल नहीं। निश्चित रूप से किसान और मजदूर की हक की लड़ाई में विपक्ष भी कोई खास भूमिका नहीं निभाने जा रहा है। ये सब सत्ता के दलाल हैं। अब तो किसान और मजदूर को एकजुट होकर अपने हक के लिए संघर्ष करना पड़ेगा। देश में काफी लोग अभाव में भी उनके लिए संघर्ष कर रहे हैं उनको आगे बढ़ाना होगा। अब निर्णय देश के गरीबों को करना है कि मु_ीभर अमीरों का बंधुआ बनकर जीना है या फिर स्वाभिमान के लिए हक की लड़ाई लडऩी है।


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