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8.5.20

नारद जयंती पर विशेष : व्यापक लोकहित ही पत्रकारिता का नारदीय सूत्र

जयराम शुक्ल
मनुष्य चाहे दुर्जन हो या सज्जन, सत्य हमेशा उसकी आँखों में भटकटैया की भाँति गड़ता है। स्तुति देवताओं को भी पसंद थी और दानवों को भी। यहां नेता भी स्तुति जीवी है और  खलनेता भी। इसलिए वहां देवर्षि नारद देव-दानवों को खटकते थे और यहां पत्रकार किसी को नहीं सुहाता। वैसे भी पत्रकार देवर्षि नारद के ही वंशज समझे जाते हैं।

पंडित जुगुलकिशोर शुक्ल ने कोलकाता(तब कलकत्ता) से हिंदी का पहला अखबार 'उदन्त मार्तण्ड' समाचार पत्र निकलने की सोची तब उन्हें देवर्षि नारद ही ध्यान आए। वह 30मई 1826 का दिन था और तिथि थी वैशाख कृष्ण पक्ष द्वितीया, यही तिथि नारद जयंती की है। देवर्षि नारद सृष्टि के प्रथम लोक संचारक हैं। वेद-पुराण, श्रुति-स्मृति ग्रंथ की कहानियांं, दृष्टांत और उसके संदर्भ बिना नारदजी के संवादों,कथोपकथनों के बिना अधूरा है। नारद त्रैलोक्य जयी हैं, कहीं किसी की कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि इनका रास्ता रोक लें।

नारदजी सर्वगुण संपन्न थे। भक्तियोग, वेदांत सूत्र के संपादक तो थे ही भाषा, विज्ञान, ज्योतिष, संगीत, व्याकरण और सबसे बड़ा संचार कौशल का गुण था। यह उनके संचार कौशल का ही परिणाम था कि कंस को अपने भांजे-भांजियोंं का वध करने के लिए समझा आए। हिरण्यकशिपु के अहंकार को जगाकर उसे विष्णु भक्त पुत्र प्रहलाद का ही दुश्मन बना दिया। लोक ने नारद के इस कृत्य को अच्छे से नहीं लिया। वस्तुतः उनका यह प्रयोजन व्यापक लोककल्याण के लिए ही था। उनका लक्ष्य था ऐसी आसुरी शक्तियों का विनाश।

नारदजी को लोक में उल्टा-पुल्टा रचने के लिए जाना जाता है। इसे हम आज की पत्रकारिता का नवाचार भी कह सकते हैं। वे त्रिकालदर्शी दे किसी के भीतर की झांक लेते थे। दस्युवृत्ति कर रहे वाल्मीकि के भीतर उन्होंने आदि कवि का रूप देखा। उनके ऋषित्व को बाहर ला दिया। वाल्मीकि को नारद ने ही प्रथमतः रामकथा सुनाई और इसे छंदबद्ध करने की सलाह दी। महर्षि वाल्मीकि रामकथा की वजह से अमर हो गए। उनमें ईश्वरीय अंश देखा जाने लगा। इसी तरह वेदव्यास को श्रीमद्भागवत कथा लिखने के लिए प्रेरित किया।

महर्षि वेदव्यास ने जब महाभारत लिखकर निवृत्त हुए तो उसको लेकर जो प्रतिक्रियाएं आईं उससे वे बहुत आहत हुए। महाभारत ने कृष्ण के ईश्वरत्व का राजनीतीकरण कर दिया इसलिए लोकमानस में छवि मलिन होने लगी। व्यास जी के इस अंतरद्वंद से देवर्षि नारद ने ही निकाला। उन्होंने भक्ति के सूत्र देते हुए व्यास जी को प्रेरित किया कि वे अब श्रीमद्भागवत पुराण लिखें। जहां महाभारत  को पूजाघर,क्या घर के पुस्तकालय में ही जगह मिलनी मुश्किल हो गई वहीं श्रीमद्भागवत को ही दैवीय दृष्टि से पूजा जाने लगा। इस तरह रामायण और श्रीमद्भागवत जैसे मोक्षदायी ग्रंथों के पीछे देवर्षि की ही प्रेरणा है। महाभारत को आज भी लोकमानस में एक कलहकारी ग्रंथ माना जाता है और वह पूजा-पाठ का हिस्सा नहीं बन पाया। जबकि श्रीमद्भगवद्गीता, विष्णुसहस्रनाम, भीष्म राजनय शिक्षा और बहुत से पवित्र प्रसंग महाभारत के ही हिस्से है।

लोकसंचार का विशेषज्ञ यह जानता है कि क्या पठनीय है और क्या श्रवणीय। नारदजी की इसी विशेषज्ञता के चलते न जाने कितने ऋषि मुनियों का कल्याण हुआ। नारदजी बिना लाग लपेट सीधे मुद्दे पर विमर्श करते थे। पत्रकारिता के गुणधर्म क्या हैं ? शिक्षित, सूचित करना, लोकरंजन और ज्ञानरंजन करना। समाज और व्यवस्था को बिना डरे, बिना रुके, बिना झुके यथार्थ का दर्पण दिखाना। व्यापक लोकहित में कटु से कटु बात भी शासक के समक्ष कौशल के साथ प्रस्तुत करना।  देवर्षि नारद ने संवादों में समावेशी सत्य और विश्वसनीयता की प्राणप्रतिष्ठा की। सत्य और उसकी विश्वसनीयता ही पत्रकार और पत्रकारिता की प्रथम और अंतिम निधि है। जिस दिन यह हाथ से गई समझिए मुट्ठी से सिर्फ राख ही झड़ेगी।

देवर्षि नारद ब्रह्मा के पुत्र थे और भगवान विष्णु के परमभक्त। खड़ताल की धुन पर उनकी वीणा से सदैव ..श्रीमन्नारायण. श्रीमन्नारायण हरि..हरि की ध्वनि निकलती थी। यही शब्दरसायन हनुमानजी के पास था। हनुमानजी भी नारद की ही परंपरा के लोक संचारक थे।

सत्य का साथ और विश्वास का कवच हो तो प्रलय में भी बालबांका नहीं हो सकता। सत्यनिष्ठा का प्रतिफल ही था कि नारदजी पर कभी हमले नहीं हुए न देवों की ओर से न दानवों की ओर से। आज भी जो पत्रकारिता में जो सत्यनिष्ठ विश्वसनीयता के साथ अपना काम करता है तो उसका बालबांका नहीं होता। यह ठीक है कि उसे सत्ता के साकेत में जगह नहीं मिलती पर उस साकेत का दरबार हमेशा सत्यनिष्ठों से भयाक्रांत रहता है।

एक बात और.. भक्तशिरोमणि, परमग्यानी, संवाद कुशल, संगीत साधक, और प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र होने के बावजूद भी लोक ने नारदजी को पूज्यनीय स्थान नहीं दिया। पूजापाठ.. यग्य याग में नारदजी कहीं नहीं मिलते। न मंदिर में इनकी मूर्ति न इनकी स्तुति। जबकि ये देवताओं से भी एक बितत्ता ऊपर देवर्षि हैं। और तो और कोई अपने पुत्र का नाम भी नारद रखने के बारे में नहीं सोचता। ऐसा क्यों..! ऐसा इसलिए कि सत्य सभी की आँखों में भटकटैया की तरह गड़ता है।

ये विषयांतर नहीं..दृष्टांतर है। मध्यप्रदेश में मुद्दतों बाद कांग्रेस की सरकार आई। उसके एजेंडा में नारदजी ही सबसे ऊपर रहे। पत्रकारिता में नारद की स्थापना क्षम्य नहीं। सो कांग्रेस सरकार आई तो सबसे पहले एक यही पुण्यकर्म किया कि माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय से नारदजी को निर्वासित करने का आदेश जारी किया। पुस्तकालयों में जहां जहां भी नारदजी से संदर्भित पुस्तकें, तस्वीरें थी उनको हटवा दिया। सरकार बदलते ही सूत्र बदल जाते हैं। विश्वविद्यालय के नए उत्साही कुलपति का नजला पहले दिन ही नारदजी व माता सरस्वती पर गिरा। पहले विवि. के प्रवेशद्वार पर लिखे नारदजी के संचार सूत्रों को पुतवाया फिर प्रवेश किया। प्रवेश करते ही माता सरस्वती से सामना हो गया। उत्साही कुलपति ने उनकी नित्यपूजा आराधना, पुष्पांजलि बंद करने के आदेश दे दिए। 

कुलपति जी बेचारे क्या करते ..उन्हें यही करने की शर्त पर तो चाकरी मिली थी। सत्ता व्यवस्था के सेकुलर होना ही नहीं सेकुलर दिखना भी चाहिए सो सेकुलर दिखने के चक्कर में नारद नाम की भटकटैया को विश्वविद्यालय की आँखों से ओझल कर दिया। कुलपति जी भी मूलतः पत्रकार हैं। इसकी विधिवत पढ़ाई की और डिग्री ली। पत्रकारिता की पढ़ाई में जनसंचार के उद्भव व विकास की थ्योरी में नारदजी का उल्लेख आता है। भरतमुनि समेत और भी कई ऋषि हैं जिन्होंने पौराणिक साहित्य रचा है उनका उल्लेख आता है। जीवविग्यान में जीव के उद्भव व विकास में भारतीय वैदिक अवधारणा के बारे पश्चिम के वैज्ञानिकों ने अपनी पुस्तकों में लिखा है। मुझे याद है एमएससी में दशावतार की थ्योरी पढ़ाई गई थी। अंडज, योनिज, भूमिज, जलज स्वेदज यह जीव के विकास की वैदिक अवधारणा रही है। यह थ्योरी कैंब्रिज,हार्वर्ड में पढ़ाई जाती है और मैचेसुएट के इंस्टीट्यूट में भी। जर्मनी में वेदविग्यान एक संकाय ही है। वेदों पर मैक्समूलर ने जितना शोध किया, नए शोधार्थी उसे आगे बढ़ा रहे हैं। यहां हमारे कुलगुरू ने विश्वविद्यालय से ही देवर्षि नारद और ज्ञान की देवी माता शारदा को निर्वासित कर दिया। पुस्तकालयों और दीवारों पर लिखे वेदवाक्यों को हटाने मिटाने से..ये देवी देवता नहीं हटे मिटेंगे। बस हमारी वैचारिक दरिद्रता को सामने आना था सो वह भी आ गई।

बहरहाल आज पत्रकारिता दिवस पर जब हम देवर्षि नारद का स्मरण करते हैं तो हमें यह भी स्मरण करना चाहिए कि जनसंचार का उपयोग व्यापक लोकहित में ही होना चाहिए। यश, सम्मान, प्रतिष्ठा, पुरस्कारों से हमारा वैसे ही छत्तीस का आँकड़ा होना चाहिए जैसे कि देवर्षि नारद का था।


-जयराम शुक्ल
संपर्कः 8225812813

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