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8.5.20

डॉ. अम्बेडकर का श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी का सन्देश

- एस. आर. दारापुरी आई. पी. एस. (से0 नि0), अध्यक्ष मजदूर किसान मंच 
 
बाबा साहब डॉ. भीम राव अम्बेडकर न केवल महान कानूनविद, प्रख्यात समाज शास्त्री एवं अर्थशास्त्री ही थे वरन वे दलित वर्ग के साथ-साथ श्रमिक वर्ग के भी उद्धारक थे। बाबा साहब स्वयं एक मजदूर नेता भी थे। अनेक सालों तक वे मजदूरों की बस्ती में रहे थे। इसलिये उन्हें श्रमिकों की समस्याओं की पूर्ण जानकारी थी। साथ ही वे स्वयं एक माने हुए अर्थशास्त्री होने के कारण उन स्थितियों के सुलझाने के तरीके भी जानते थे। इसी लिये उनके द्वारा सन 1942 से 1946 तक वायसराय की कार्यकारिणी में श्रम मंत्री के समय में श्रमिकों के लिये जो कानून बने और जो सुधार किये गये वे बहुत ही महत्वपूर्ण एवं मूलभूत स्वरुप के है। सन 1942 में जब बाबा साहेब वायसराय की कार्यकारिणी समिति के सदस्य बने थे तो उन के पास श्रम विभाग था जिस में श्रम, श्रम कानून, कोयले की खदानें, प्रकाशन एवं लोक निर्माण विभाग थे.

डॉ. भीम राव अम्बेडकर की श्रमिक वर्ग के अधिकारों एवं कल्याण के प्रति चिन्ता उन शब्दों से परिलक्षित होती है जो उन्होंने 9 सितम्बर, 1943 को प्लेनरी, लेबर परिषद के सामने उद्योगीकरण पर भाषण देते हुए कहे थे, "पूंजीवादी संसदीय प्रजातंत्र व्यवस्था में दो बातें अवश्य होती हैं। जो काम करते हैं उन्हें गरीबी से रहना पड़ता है और जो काम नही करते उनके पास अथाह दौलत जमा हो जाती है। एक ओर राजनीतिक समता और दूसरी ओर आर्थिक विषमता । जब तक मजदूरों को रोटी कपड़ा और मकान, निरोगी जीवन नहीं मिलता एवं विशेष रुप से जब तक वे सम्मान के साथ अपना जीवन यापन नहीं कर सकते, तब तक स्वाधीनता कोई मायने नहीं रखती। हर मजदूर को सुरक्षा और राष्ट्रीय सम्पत्ति में सहभागी होने का आश्वासन मिलना आवश्यक है।"

 उनका ध्यान इस बात पर था कि श्रम का मूल्य बढ़े। इसके अतिरिक्त बाबा साहब ने दिसम्बर 1945 के प्रथम सप्ताह में श्रम अधिकारियों की एक विभागीय बैठक जो बम्बई सचिवालय में सम्पन्न हुई थी, का उदघाटन करते हुए कहा, "कि औद्योगिक झगड़े टालने के लिये तीन बातें आवश्यक है:- (1) समुचित संगठन, (2) कानून में आवश्यक सुधार और (3) श्रमिकों के न्यूनतम वेतन का निर्धारण। औद्योगिक शांति सत्ता के बल पर नहीं वरन न्याय नीति के तत्वों पर आधारित होनी चाहिये। श्रमिकों को अपने कर्तव्यों की पहचान होनी चाहिए. मालिकों को भी मजदूरों को उचित वेतन देना चाहिये। साथ ही, सरकार और श्रमिक समाज को भी अपने आपसी संबंध सौहार्दपूर्ण बनाए रखने की लगन से कोशिश करनी चाहिए.“
बाबा साहेब लम्बे अरसे तक मजदूरों की बस्ती में रहे थे. अतः वे मजदूरों की समस्यायों से पूरी तरह परिचित थे. अतः श्रम मंत्री के रूप में उन्होंने मजदूरों के कल्याण के लिए बहुत से कानून बनाये जिन में प्रमुख इंडियन ट्रेड यूनियन एक्ट, ई एस आई एक्ट, औद्योगिक विवाद अधिनियम, मुयावज़ा, काम के 8 घंटे तथा प्रसूतिलाभ आदि प्रमुख हैं. अंग्रेजों के विरोध के बावजूद भी उन्होंने महिलायों के गहरी खदानों में काम करने पर प्रतिबंध लगाया. वे अन्तराष्ट्रीय श्रम संगठन की सिफारशों पर दृढ़ता से अमल करने की कोशिश कर रहे थे. जो अधिकार एवं सुविधावाएं अन्य देशों में बहुत मुशिकल से मजदूरों ने प्राप्त कीं डा. आंबेडकर ने अपने श्रम मंत्री काल में कानून बना कर मजदूरों को प्रदान कर दीं.  वास्तव में वर्तमान में जितने भी श्रम कानून हैं उनमें से अधिकतर बाबा साहेब के ही बनाये हुए हैं जिस के लिए भारत का मजदूर वर्ग उनका सदैव ऋणी रहेगा.

बाबा साहेब सफाई मजदूरों का कल्याण और उन्हें संगठित करने के लिए भी बहुत प्रयासरत थे जबकि गाँधी जी उन्हें भंगी बने रहने की शिक्षा देते थे तथा उन की हड़ताल को अनैतिक कार्य मानते थे. मोदीजी तो कहते हैं इसमें उन्हें अध्यात्मक सुख की प्राप्ति होती है. बाबा साहेब ने सर्वप्रथम बम्बई नगर महापालिका के सफाई मजदूरों को संगठित करके उनकी ट्रेड यूनियन बनवाई. वे इसी प्रकार के संगठन की स्थापना देश के अन्य भागों में भी करना चाहते थे और उसे अखिल भारतीय स्वरूप देना चाहते थे. उन्होंने इसी उद्देश्य से दो सदस्यी समिति भी बनायी तथा उसे विभिन्न प्रान्तों में जाकर सफाई मजदूरों की स्थिति एवं लागू कानूनों का अध्ययन कर रिपोर्ट देने को कहा. इस से स्पष्ट है कि बाबा साहेब सफाई मजदूरों को न्याय दिलाने तथा उन्हें अन्य ट्रेड यूनियनों की तर्ज़ पर संगठित करने में कितना  प्रयासरत थे.

बाबासाहेब स्वयं एक लबर लीडर रह चुके थे. अधिकतर अछूत ही खेत, कारखानों मिलों आदि में छोटे दर्जे के मजदूर थे. बाबासाहेब ने अपने संघर्ष के दौरान इन्हीं मजदूर बस्तियों में जीवन गुज़ारा था. वह उनकी समस्यायों तथा पीड़ा को भी भलीभांति समझते थे. वे  श्रमिकों/ मजदूरों आदि से कहते थे, “ इतना ही काफी नहीं कि तुम अच्छे वेतन और नौकरी के लिए, अच्छी सुविधाओं तथा बोनस प्राप्त करने तक ही अपने संघर्ष को सीमित रखो. तुम्हें सत्ता छीन लेने के लिए भी संघर्ष करना चाहिए.” इसी ध्येय से उन्होंने 1936 में इन्डीपेंडेंट लेबर (स्वतंत्र मजदूर पार्टी) बनाई थी और 1937 के पहले चुनाव में 17 सीटें भी जीती थीं. उन्होंने इसके माध्यम से श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने हेतु प्रेरित किया था.

वर्तमान में नई आर्थिक नीति के अंतर्गत भूमंडलीकरण और कारपोरेटीकरण के दौर में पूरी दुनियां में श्रम कानूनों को शिथिल किया जा रहा है. हमारे देश में भी मोदी सरकार ने  विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए बहुत सारे श्रम कानूनों को शिथिल/रद्द  कर दिया है. श्रम के घंटे बढाये जा रहे हैं. वेतन को उत्पादन से जोड़ा जा रहा है. मजदूरों की नियमित नियुक्तियों के स्थान पर ठेका व्यवस्था लागू की जा रही है जो काफी हद तक पहले ही लागू हो चुकी है. मोदी सरकार ने 44 अलग अलग कानूनों को ख़त्म करके इसे केवल 4 में ही संहिताबद्ध कर दिया गया है. इससे मजदूरों को श्रम कानूनों से मिलने वाले अधिकार एवं संरक्षण बहुत हद तक सीमित हो जायेंगे.

वर्तमान कोरोना संकट के दौरान मनमाने ढंग से तथा बिना किसी विचार विमर्श एवं योजना के आकस्मिक लागू किये गए लाक डाउन ने मजदूरों की गरीबी एवं नाज़ुक स्थिति को पूरी तरह से नंगा कर दिया है. इसके दौरान कितने मजदूर भुखमरी का शिकार हुए हैं और कितने जो पैदल ही अपने घरों के लिए निकल पड़े थे रास्ते में मर गए, भूखे पेट रहना पड़ा और उस पर पुलिस की बर्बरता सहनी पड़ी. इस दौरान सरकार ने न तो खाने पीने का उचित प्रबंध किया और न ही उन्हें उचित आर्थिक सहायता ही दी. तथाकथित क्वारनटीन कैम्प वास्तव में यात्नागृह साबित हुए हैं. अभी इन बदतर हालत वाले मजदूरों को घर भेजने की बात चली है तो केन्द्रीय सरकार उन्हें लाने के लिए स्पेशल ट्रेन चलाने की व्यवस्था करने को तैयार नहीं है और सारी व्यवस्था करने की ज़िम्मेदारी राज्य सरकारों के गले में डाल दी है. इससे और भी बड़ा संकट और अवय्स्था कड़ी हो जाने की सम्भावना है.

यह भी विचारणीय है कि जो प्रवासी मजदूर अपने गांव वापस लौटेगें और जो मजदूर अभी वहां पर हैं उनके रोजगार का क्या होगा? उनकी आजीविका कैसे चलेगी, इसकी कोई योजना सरकार के पास नहीं है। आप जानते ही हैं कि मजदूरों के ऊपर तो पहले से ही हमले हो रहे थे जिन्हें कोरोना महामारी के इस संकटकाल ने और भी बढ़ा दिया है। कुल मिलाकर कहा जाए तो मौजूदा आर्थिक संकट बेहद गहरा है जो लगातार जारी आर्थिक-औद्योगिक नीतियों की देन है। गौरतलब हो कि इन मजदूर विरोधी, जनविरोधी नीतियों को समूचे राजनीतिक तंत्र ने आगे बढ़ाया है। इसका मुकाबला पूंजीवादी दल करेंगे नहीं क्योंकि इन नीतियों पर उनकी आम सहमति है और वामपंथी दल जो इसका विरोध करते भी हैं उनकी ताकत बेहद सीमित है। ऐसे में एक नयी लोकतान्त्रिक समाजवादी राजनीति खड़ा करने की ज़रुरत है.

अभी भी आप देख लें कि प्रवासी मजदूर बदतर हालातों में है.  इसलिए इस मई दिवस का यहीं संदेश हो सकता है कि मजदूर वर्ग को ही जनपक्षधर राजनीतिक तंत्र के निर्माण के लिए जन राजनीति को आगे बढ़ाना होगा। यह महज ट्रेड यूनियन के दायरे में सम्भव नहीं है. मजदूर वर्ग को अपने अधिकारों पर लड़ते हुए सरकार को बाध्य करना होगा कि वह जन कल्याण पर खर्च बढ़ाये. अर्थव्यवस्था का पुनर्गठन करके सार्वजनिक चिकित्सा, शिक्षा को मजबूत करे और लोगों की आजीविका को सुनिश्चित करे. तभी वास्तव में कोरोना महामारी जैसी संकटकालीन परिस्थितियों का मुकाबला किया जा सकता है. उसे किसानों समेत समाज के उन सभी उत्पीड़ित तबकों को अपनी इस जन राजनीति के पक्ष में गोलबंद करना होगा.  अतः डा. आंबेडकर का श्रमिक वर्ग को राजनीतिक सत्ता में हिस्सेदारी प्राप्त करने का सन्देश और भी प्रासंगिक हो जाता है.

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