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21.5.20

कोरोनाकालीन संकट के दौर में शिक्षा के यूनिवर्सलाइजेशन के समक्ष उभरती चुनौतियां


“कोविड महामारी ने साफ कर दिया है कि सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत किए बगैर शिक्षा का लोकव्यापीकरण (यूनिवर्सलाइजेशन) असंभव है”

आरटीई फोरम, नई दिल्ली, 21 मई, 2020। कोविड -19 की वैश्विक महामारी ने भारत के एक बड़े हिस्से को बुरी तरह प्रभावित किया है और पहले से चली आ रही भूख, अशिक्षा,  बेरोजगारी एवं असमानता की समस्याओं को और गहरा किया है। खासकर, भारत में पहले से ही बिखरी हुई शिक्षा व्यवस्था को इसने और भी उलझा दिया है। शिक्षा अधिकार कानून, 2009 आने के बाद भी विद्यालयों में न तो गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बहाली के पर्याप्त प्रयास किए गए और न ही विद्यालयों का लोकतांत्रीकरण किया गया था। वंचित समाज के बच्चों को पहले भी सम्मानपूर्वक पढ़ने का अवसर नही दिया गया था और अब ऑनलाइन शिक्षा के जमाने में तो वे और भी पिछड़ जायेंगे क्योंकि इसे व्यापार का जरिया बनाया जा रहा है। विभिन्न कम्पनियों की नजरें इस ओर है। ऑनलाइन शिक्षा, शिक्षा की  मूल भावना को प्रभावित कर रहा है। शिक्षा का काम व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करना होता है। लेकिन “डिजिटल शिक्षा” यह काम करने में असफल है। जब तक हाशिये पर जिंदगी जीने वालों को समान शिक्षा नहीं दी जायेगी तब तक समाज में आर्थिक औऱ सामाजिक समानता नहीं आ सकती है। ये बातें वक्ताओं ने राइट टू एजुकेशन फोरम द्वारा आयोजित शिक्षा – विमर्श शृंखला की चौथी कड़ी में “कोरोनाकालीन संकट के दौर में शिक्षा का लोकव्यापीकरण” विषय पर एक वेबिनार में कहीं।

वेबिनार को संबोधित करते हुए राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग की पूर्व अध्यक्ष प्रो॰ शांता सिन्हा ने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून आने के बाद भी अभी तक विद्यालय में गुणवत्तापूर्ण शिक्षा की बहाली नहीं हुई, विद्यालय का लोकतांत्रिकरण नही किया गया।वंचित समाज के बच्चों को सम्मानपूर्वक पढ़ने का अवसर नहीं दिया गया।

प्रो॰ सिन्हा ने कहा, “इस कोविड -19 ने भूख, अशिक्षा,  बेरोजगारी, असमानता की खाई को और गहरा किया है। लड़कियों की समस्याओं को औऱ बढ़ाया है। बच्चों को खाद्य सुरक्षा नहीं है और न ही सामाजिक सुरक्षा है। ऐसे में बाल-विवाह, बाल-व्यापार, लैंगिक असमानता पर आधारित भेदभाव समेत बाल-श्रम के तेजी से बढ़ने के खतरे दीख रहे हैं। ऑनलाईन शिक्षा सभी बच्चों को नहीं मिल रही है। ऑनलाईन शिक्षा को व्यपार का जरिया बनाया जा रहा है। विभिन्न कम्पनियों की नजरें इस ओर है।“

अपने संबोधन में संयुक्त राष्ट्र में शिक्षा के अधिकार के लिए नियुक्त पूर्व विशेष दूत डॉ किशोर सिंह ने कहा कि शिक्षा अधिकार कानून आने के पीछे तमाम बातें थीं। तीन स्तरों पर इसे समझा जा सकता है। पहला,  अंतरराष्ट्रीय  स्तर पर भारत ने सबको समान शिक्षा देने और 18 साल तक के बच्चों के लिए शिक्षा के लोकव्यापीकरण के प्रस्ताव पर सहमति जताई थी। दूसरा, भारतीय संविधान में भी इसका जिक्र किया गया है। तीसरा, भारतीय संस्कृति भी इसकी ओर इशारा करता है। बहुत बच्चों को शिक्षा तो दी जा रही है लेकिन समानता के अनुसार शिक्षा नहीं मिलती है जो कि गलत है। संविधान के अनुच्छेद 14 समता के अधिकार की बात की गयी है। संविधान के अनुच्छेद46  में लिखा हुआ है कि राज्य समाज के वंचित व कमजोर वर्गों की आर्थिक जरूरतों, शिक्षा एवं अन्य मूलभूत आवश्यकताओं को तरजीह देगा ताकि उनके साथ सामाजिक अन्याय न हो। 

उन्होंने कहा, “जब तक हाशिये पर जिंदगी जीने वालों को समान शिक्षा नहीं दी जायेगी तब तक समाज मे आर्थिक औऱ सामाजिक समानता के लक्ष्य हासिल नहीं किए जा सकते हैं। ये अजीब बात है कि शिक्षा अधिकार कानून के आने के बाद भी शिक्षा का निजीकरण बढ़ रहा है, जिसका अर्थ है कि सरकारें अभी तक “हर बच्चे” को मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराने की अपनी प्राथमिक जवाबदेही के लिए प्रतिबद्ध नहीं हो पायी हैं। ऑन लाइन शिक्षा, शिक्षा की मूल भावना को प्रभावित करता है। शिक्षा का काम व्यक्ति के व्यक्तित्व का निर्माण करना होता है। लेकिन डिजिटल शिक्षा इसमें स्वाभाविक रूप से असफल है।“

अपनी बात रखते हुए जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय  के प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो0 प्रवीण झा ने कहा कि  बीजेपी जब 2014 में सत्ता में आई थी तो उसने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में शिक्षा का जिक्र करते हुए कहा था कि शिक्षा किसी भी देश की बेहतरी और प्रगति के लिए सबसे शक्तिशाली औज़ार है और इसलिए शिक्षा पर हम प्रमुखता से ध्यान देंगे। लेकिन, अगर हम बीते वर्षों को देखें तो न केवल शिक्षा के ऊपर बजट में लगातार कटौती हुई, बल्कि शिक्षा के अधिकार को नजरंदाज करने की पूरी कोशिश की गई। अगर हम शिक्षा के अधिकार में प्रदत्त प्रावधानों को पूरा नहीं करते और हाशिये पर मौजूद बच्चों समेत सबको शिक्षा उपलब्ध कराने के समान अवसर मुहैया नहीं करा पाते तो फिर हम शिक्षा को कैसी अहमियत दे रहे हैं?

प्रो.  झा ने कहा, “पिछले दशक में आरटीई फोरम और तमाम दूसरी रिपोर्ट हैं जो बताती हैं कि शिक्षा के क्षेत्र में बजट आवंटन बिलकुल अपर्याप्त है। दसियों लाख शिक्षकों की भर्ती नहीं की जा सकी है और कम गुणवत्ता व खर्चे वाले निजी स्कूलों की बाढ़ आ गई है। पहले से ही चरमराये हुए शिक्षा के सार्वजनिक ढांचे को लगातार कमजोर किया जा रहा है जबकि आज कोविड महामारी के दौर ने साफ कर दिया है कि सार्वजनिक शिक्षा को मजबूत किए बगैर हम शिक्षा के लोकव्यापीकरण की तरफ एक कदम भी नहीं बढ़ा सकते।“

प्रो॰ झा ने आगे कहा, “आज हर बच्चे को शिक्षा देने और उन्हें स्कूलों मे लाने के उद्देश्य के बजाय शिक्षा एक व्यापार में तब्दील हो गया है जिसमें दुर्भाग्यवश हमारे जनप्रतिनिधियों की अच्छी-ख़ासी संख्या शामिल है। प्रति बच्चे शिक्षा पर खर्च और शिक्षकों के प्रशिक्षण जैसे कई अहम संकेतकों  में हम बिलकुल निचले पायदान पर हैं यहाँ तक कि सहारा-अफ्रीका के देशों से भी कम। शायद भारत विश्व का पहला ऐसा देश है जो सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य पर इतना कम खर्च कर के भी विश्व की महाशक्तियों में अपनी गिनती कराना चाहता है। पूरी समस्या को “शिक्षा के राजनीतिक अर्थशास्त्र” से जोड़ कर देखने की जरूरत है। समग्र शिक्षा अभियान जैसी ‘स्कीम’ के साथ शिक्षा के अधिकार को पहले ही कमजोर करने की कवायद शुरू हो चुकी है। अपने वक्तव्य में उन्होंने स्पष्ट किया कि सार्वजनिक शिक्षा और स्वास्थ्य दोनों की हालत हमारे देश में लगातार खराब रही है और ये सिर्फ कोविड-19 से उत्पन्न संकट का मामला नहीं है। इस महामारी ने तो बस देश में गहरे जड़ जमा कर बैठी उन व्यापक विषमताओं को फिर से उजागर कर दिया है जिनसे अस्सी फीसद जनता जूझ रही है। जिनके पास कोई बचत नहीं, दो जून खाना जुटाने के साधन नहीं, उनके लिए शिक्षा के अधिकार को बचाए रखना तो बहुत दूर का सपना होगा। कोविड संकट से जूझते हुए हमें इस दृष्टिकोण से संजीदगी से विचार करने  की जरूरत है।“ 

इससे पहले, वेबिनार में सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए राइट टू एजुकेशन फोरम के राष्ट्रीय संयोजक  अम्बरीष राय ने कहा कि यह वेबिनार उन बच्चों को समर्पित हैं जो अपने मां-बाप के साथ तपती सड़कों पर नन्हें पांवों से मीलों सड़कों को नापते हुए घर पहुँच रहे हैं, जिन्होंने रास्ते में अपने माँ-बाप को खो दिये, जो माँ की कोख़ में चले और रास्ते में गोद में आ गये। आज जब ऑनलाईन शिक्षा पर बहस चल रही है तब उन करोड़ों बच्चों की तरफ देखने की जरूरत है जो इससे वंचित हैं। वे बच्चियाँ जो पितृसत्ता को पीछे धकेल कर विद्यालय से जुड़ी थीं, पुनः शिक्षा से वंचित हो गईं, वे विकलांग बच्चे जो किसी तरह घर पहुंचे, वे मजदूर जो गाँव पहुँचने की आस में निकले लेकिन पटरियों ने भी उन्हें सुस्ताने नहीं दिया, वे मजदूर जो गाँव की दहलीज पर पहुंच कर भी कभी घर नहीं पहुंच पाए। ऐसे अंतहीन दुःखों में उनको नमन है।

मित्ररंजन
मीडिया समन्वयक
आरटीई फोरम
संपर्क:  9717965840

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