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15.12.10

तुने शब्दों की मर्यादा भंग किया है

माना है दुष्प्राप्य लक्ष्य पर नहीं असंभव|

परमपिता की इस धरती पर सब कुछ संभव|

मूर्ख है जो कहता अस्तित्व तुम्हारा कम है|

अखिल विश्व संस्कृति तरु के जड़ में ही हम है|

हम हिंदू हैं जड़ चेतन को अपना माना|

माया ममता भस्म पहन केसरिया बाना |

हमीं सनातन सत्य सदा उद्घाटित करते |

हमीं विश्व में नयी चेतना का स्वर भरते |

हम आलोक पुत्र, अमर संस्कृति संवाहक

और सनातन धारा के हम ही तो वाहक |

हम तम के मस्तक पर चढ ब्रम्हास्त्र चलाते |

असुरों की छाती पर भगवा ध्वज फहराते |

हम आसेतु हिमालय भारत माँ के बेटे |

विधि के लिखे लेख अटल भी हमने मेटे |

खेल खेल में केहरी के दांतों को तोड़ा |

कालीदह को भी विषहीन बना कर छोड़ा |

देवतुल्य थे जो उन आर्यों के ही वंशज |

सबसे पहले हम आयें वसुधा के अग्रज |

और ब्र्म्ह्वादी तू क्या उल्टा कहता है |

महासती माता को ही कुल्टा कहता है |

हाय सनातन संस्कृति को शतखंड किया है |

तूने शब्दों की मर्यादा भंग किया है |

हम दिति और अदिति के सुत वसुधा के मुख हैं |

हमको पाकर इस दुनिया में सुख ही सुख है |

हमने कब मक्का को शोणित से नहलाया ?

अथवा जेरूसलम में भगवा ध्वज फहराया ?

हमने हृदयों को जीता जब भूमि जीतते थे वे |

महाबुद्ध को अपनाया जब अस्थि सींचते थे वे |

महावीर जिन कहलाये भावों को जीता |

युद्धभूमि में श्रीहरी के मुख निकली गीता |

वाही अमरवाणी गुरुओं के मुख से गूँजी |
वेदवाणी सारंग ग्रन्थ साहिब में कूकी |

सुनो वही हिंदू है जो प्रणवाक्षर जपता |

एक उसी सतनाम में हरपल रमता रहता |

अरिहंताणं णमों भाव में रत रहता है |

महाबुद्ध के श्रीचरणों में नत रहता है |
जो गीता, गंगा, गायत्री का साधक है |
कण कण शंकर, भारत माँ का आराधक है |

अग्निपंथ का अनुयायी जो सार भस्म करता है |

महानिशा में महाचिता पर महारास रचता है |

जो किन्नर के स्वर में गाता, तांडव भी करता है |

और अधर्मी के तन से तत्काल प्राण हरता है |

और धर्म भी कहाँ व्यक्तिगत, वही पद्यति अब भी |

हाँथ जोड़ पूजा करने की सतत संस्कृति अब भी |

क्या तुम गुदा द्वार से खाते, जब हम मुख से खाते ?

फिर बोलो इस दुनिया को तुम उल्टा क्यों बतलाते ?

कहाँ मुखौटा है हिंदू , किस मुख ने यह पहना है ?

यह मेरी भारत माता का सर्वोत्तम गहना है |

परमपिता ही पति जिसके, सिंदूर स्वर्ण हिंदू है |

भारत माता के मस्तक पर शोभित शुभ बिंदु है |
चलो मुखौटा ही अच्छा तुम सनातनी हम हिंदू |

तुममे हिंदू नहीं बिंदु पर हम तो शाश्वत सिंधु |

तुमने छोड़ा हम अपनाएं, हम छोड़े तुम गाओ |

आओ हम भी जूठा खाएं तुम भी जूठा खाओ |

मुझको जूठन भी मंगल पर तेरा तो नाजिस है |

समझ गया मैं भी असमझ अब, यह किसकी साजिश है |

किन्तु चक्र, दुष्चक्र, कुचक्रों की भी गति होती है |

भले कहें हम जड़ पत्थर को उनमे मति होती है |

इसीलिए तो अनगढ़ में भी प्रभु मूरत बन जाती |

तुम सूरा कहते ही रहते वह सूरत बन जाती |
अंतरग्रही प्राणियों ने जो ब्रम्ह वमन अपनाया |

वह सब कुछ भी तो मंगल है, धन्य देव की माया |

अभी शैशवावस्था में पर कलियुग तो कलियुग है |

पर असत्य के साथ विभव है, इसी बात का दुःख है |

करुणा, मैत्री और उपेक्षा, मुदिता मंगलकारी |

चलो बुद्ध की सहज मान्यता भी मैंने स्वीकारी |

वज्रपाणि श्रीमहाबुद्ध ने गीता ही तो गाया |
वेद लवेद बना कर छोड़ा, वेदों को अपनाया |

निर्ग्रंथों ने उसी मनीषा को स्वीकार किया है |

जिस पर दश के दश गुरुओं ने अपना प्राण दिया है |
भारत की यह चिंतन धारा अविछिन्न हिंदू है |

राजनीती के समरांगण में छिन्न भिन्न हिंदू है |

शून्यवाद, दशमलव दिया इस हेतु चलो गरियायें |

हमको गणित नहीं आता तो रोमन ही अपनाएं |

किन्तु जहाँ भी दीप जलेगा, ज्योतित तो हिंदू है |
यही नींव में और शिखर पर शोभित तो हिंदू है |

कोख लजाते धिक् धिक् भारत तुझको लाज नहीं आती ?

माँ को माँ कहने से हटते नहीं फट रही क्यों छाती ?

हिंदू ही सारा भारत, यह भारत ही हिंदू है |

मानवता का शीर्ष मुकुट मणि, इंदु शिखर इंदु है |

और व्युत्पति हिंदू की, शुभ हनद पारसी भाषा |

नष्ट हो गया, शेष किन्तु हम, खोज रहा है नासा |

हमने सेतु बनाकर बाँधा, देशों को जोड़ा है |

तू तो उनका अनुगामी, केवल जिसने तोड़ा है |

राणा, शिवा, दधिची, इंद्र और रामकृष्ण से ज्ञानी |

बाली, बलि, महाबली, बालक अभिमन्यु का पानी -

आज नीलाम हुआ देखो, कितने मुख बने मुखौटे ?

पिता हमारे पूर्वज अब भी हिंदू ही कहलाते |

उदधि दुह्नेवालों ने जो रत्न चतुर्दश पाया |

जिसको वेदों, उपनिषदों ने मुक्त कंठ से गाया |
राग, रागिनी, ताल, छंद, स्वर, अक्षर सब हिंदू है |
हम पर निर्भर है जग सारा, कब निर्भर हिंदू है ?

हम उदात शिव भाव से जगती से जो कुछ लेते हैं |

यग्य याग अपना सहस्त्र गुण कर इसको देते हैं |

अंधाधुंध विदोहन करने में रत दुनिया सारी |

प्रलयंकर से खेल रही बस प्रलय की है तैयारी|

प्रकृति प्रदूषित कर डाला है सारा मनुपुत्रों ने |

यही सिखाया है क्या हमको ब्रम्ह, धर्मसूत्रों ने ?

नहीं नहीं विघटन की बेला पर अब पुनः विचारें |

विकृति त्याग माँ को अपनाएं संस्कृति को स्वीकारें |

किन्तु विकृति को संस्कृति कहना कहाँ न्यायसंगत है ?

यहाँ वहाँ हर जगह भयावह दहशत ही दहशत है |

दहशतगर्दी के विरुद्ध अब शस्त्र उठाना होगा |
स्वयं विष्णु बनकर असुरों पर चक्र चलाना होगा |

और हमें यह उर्जा भी तो हिंदू शब्द ही देगा |

विधि आधारित इस जगती से न्यायोचित हक लेगा |
बौद्ध, जैन, सिख, शैव, शाक्त और सनातनी सब हिंदू |

एक एक जन हिंदू ही हैं बोलो कितने गिन दूँ ?

जहाँ कहीं भी न्याय हेतु प्रतिरोध दिखाई पडता |

मानवता के हेतु कहीं भी रोष दिखाई पडता |
और विवेक की अग्नि में जल कर क्षार व्यर्थ परिभाषा |

विश्व प्रेम की राह चले जन कहीं न तिरछी भाषा |

वहाँ वहाँ हिंदू स्थापित, हिंदू मानवता है |

इसे मिटा देने को तत्पर, आतुर दानवता है |

द्वैत मानता है जग तो अद्वैत मानते है हम |

तुमको भी तो कहाँ पृथक विद्वेष मानते हैं हम ?

हम तो बस उनके विरुद्ध जो द्वेष कर रहे हमसे |

ग्रन्थ ही जो उल्टा सिखलाता, व्यर्थ जल रहे हमसे |

और सुनो यह धर्म ही है जो एकसूत्र करता है |

कारण और निवारण कर्ता, भर्ता, संहर्ता है |

तुम भी इसे मानते हो पर स्वयं भ्रमित, भ्रम रचते |

मैं क्या तुम्हे फसाउंगा तुम खुद ही जाते फंसते |

ब्रम्ह निवारण है भ्रम का तुम भ्रम को देव बताते |

और समर्थन में जाने कितने यायावर आते |

जो बल को कमियां कहते, कमियों को बल बतलाते|

धूप-छाँव का खेल परस्पर, इंद्रजाल दिखलाते |

हा हा यह माया का दर्शन, जृम्भणअस्त्र स्वागत है |

इससे ऊपर भी कुछ है जो आगत और विगत है |

उसी तत्व की शपथ मुखौटा नहीं वदन है हिंदू |

स्थापित ब्रम्हांड जहाँ वह दिव्य सदन है हिंदू |

इससे रौरव भी रोता हर नरक त्रस्त रहता है |

इसका शरणागत हो करके स्वर्ग स्वस्थ रहता है |

हिंदू भाव धरी विरंचि जब चौदह तल रचता है |

उसी भाव को धार विष्णु रज गुण लेकर रमता है |

और भाव में कमी हुई तो रूद्र कुपित हो जाते |

इंद्र श्रृंखला तोड़ गगन में संवर्तक छा जाते |

मुझे करो मत विवश करूँ मैं आवाहन रुद्रों का |

नंदिकेश, शिव, वीरेश्वर का अनबंगी क्रुद्धों का |
कृत्या इसके पास भयावह दिवारात्रि रहती है |

इसका इंगित पाकर सोती इंगित पा जगती है |

यह अथर्व ब्रम्हास्त्र भूर्भुवः स्वः में प्रलय मचेगा |

डामर के हांथों में डमरू, डिंडिम नाद करेगा |

फिर मत कहना हिंदू सर्वदा आतंकी होते है |

मुझे सांत्वना दो लोगों अब देखो हम रोते हैं |
प्रतिरक्षा की तैयारी करना कुछ गलत नहीं है |

सुन लो जो सामर्थ्यवान है, प्रतिपल वही सही है |
इसीलिए श्री राम कालिका की पूजा करते हैं |
धनुष बाण लेकर हांथों में क्रीं काली कहते हैं |

वन्देमातरम इसका बोधक क्रीं काली फट स्वाहा |

किन्तु शक्तिमानों ने भी कब संस्कृति ग्रसना चाहा |
आज इसे ग्रसने की कोशिश करते इसके सुत हैं |
बुत से नफरत करने वाले मंदिर में कुछ बुत है |

इन्ही बुतों को खंडित करने दयानंद आये थे |

इन्हीं के लिए पुनर्जागरण में माँ ने जाए थे |

किन्तु किसी ने भी तो इसको नहीं मुखौटा बोला |
गंगा माँ की जलधारा में नहीं जहर था घोला |
आज हुआ जो पाप भयानक तुमसे अनजाने में |
शायद मैं भी इसका भागी हूँ किंचित माने में |
अगर तुम्हे कुछ कहना ही था मुझको बोला होता |
एक मंच क्या तेरी बलि मैं यह जग ही तज देता |
किन्तु सतत जीवन पद्यति को तूने गाली दी है |
कह डालो जो भी कहना है अब भी अगर कमी है |
चलो तुम्हारे ही स्वर में कुछ और कह रहा हूँ मैं |
कवितायें खुद ही बहती तुम कहो रच रहा हूँ मैं |
और तुम्हारे स्वर में हिंदू आतंकी, पापी है |
जब देखो उत्पात मचाने वाला अपराधी है |
भ्रष्ट कर दिया इसने पावन पथ उस पैगम्बर का |
जो मरियम का पति जन्नत में, यीशु जिसके दर का |
इसके सारे संत सदा रमणी में ही रमते हैं |
झूठ बोलते हैं मर्यादा भंग किया करते हैं |
हर हिंदू के प्रति कुछ गाली क्रतिधार्मिता होती |

हिंदू पथ पर चल जन्नत में नहीं मिलेगा मोती |
इसके ठेकेदार चुनिन्दा, कुछेक संगठन ही हैं |
और इसे प्रोत्साहित करने के भी अपराधी हैं |
सदा मार खाना और पिटना नियति हिंदुओं का हो |
कभी फैलना नहीं, सिमटना नियति हिंदुओं का हो |

किन्तु हमारे मत में धर्मविरोधी कब हिंदू है ?

प्रगतिशीलता, नवाचार प्रतिरोधी कब हिंदू है ?

नहीं कभी संकीर्ण रहा अब भी उदार यह ही है |

रूढ़ी और पाखण्ड विरोधी नवाचार यह ही है |

इस उदारता का प्रतिफल भी इसने खूब चुकाया |

अपनी सब सीमायें खोईं टूटा फूटा पाया |

चलो मिला जो भी अच्छा है, वह भी टूट रहा है |
देखो कितना क्षेत्र हमारा हमसे छूट रहा है |

इस पर रुकने और विचार करने का समय नहीं है |
अब तो किंचित भी विलाप करने का समय नहीं है |

पांचजन्य के हांथो को गांडीव उठाना होगा |

अगर हमें जिन्दा रहना है उन्हें सुलाना होगा |

नहीं तो फिर आने वाली पीढियां हमें कोसेंगी |

नहीं सोचने को कुछ होगा जब भी वे सोचेंगी |

इसीलिए पुरखों की तुमको शपथ सुनो, अब जागो |

चाहे कोई कुछ भी बोले डटे रहो, मत भागो |

तुमको बहकाने को पग पग पर दानव मायावी |
किसकी ममता में खोए, क्षणभंगुर सब दुनियावी |
सुनो मोक्ष पाने का पथ बस शरशय्या पर सोना |
अगर नहीं इसको मानोगे, व्यर्थ पड़ेगा खोना |
यह दुर्लभ मानव तन केवल कुरुक्षेत्र ही तो है |

और तुम्हारी कीर्ति रश्मियाँ यत्र तत्र ही तो है |

चलो, उठो, लपको सूरज को यह मीठा फल तेरा |

तुमको भडकाने का किंचित नहीं स्वार्थ कुछ मेरा |

बस मैं यही कहूँगा अपनी ताकत को पहचानो |

बजरंगी के ब्रम्हचर्य हिंदू की ताकत जानो |
कितने जामवंत आयेंगे बोलो तुम्हे उठाने ?

कुम्भकर्ण बन कर सोये हो भेजूं किसे जगाने ?

पहचानों इन शब्दों में ही वेदमंत्र है प्राणी |

संसृति रवि किरणों ने पहले सुनी वेद की वाणी |

उसे सरल करने को उपनिषदों ने जोर लगाया |

व्यर्थ हुआ जब इतिहासों ने छंद बद्ध कर गाया |
महाकाव्य भी जब थक बैठे तुम्हे जागते मानव |
गुरुवाणी में गीता गूंजी, वही रूद्र का तांडव |
नेति नेति का अंत नहीं है कोई अंतिम भू पर |

ऐसा कोई शब्द नहीं जो नहीं गया हो छू कर |

तुम हो राम कृष्ण के वंशज, रोम रोम में रमता |

तुम ही उसको तज देते हो, वह तुमको कब तजता ?

जो तेरे भीतर बाहर है, उसको नमन हमारा |
ब्रम्ह कहे या ईश्वर बोले, एक वेद की धारा |
इसी सत्य की चिर शाश्वत धारा हिंदू है |

हमको तो प्राणों से भी प्यारा हिंदू है |

6 comments:

अजित गुप्ता का कोना said...

बहुत प्रेरणादायक।

Dr Om Prakash Pandey said...

kya vigat yug ka rag hi gayiega ya nava bharat ki yoyana bhee banaiyega?

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

आदरणीय ओमप्रकाश जी,
नव्य भारत की परिकल्पना से परहेज किसे है? शायद आपने कविता को समग्र रुप मेँ नहीँ पढ़ा।हिन्दु तो नवाचार का कभी विरोधी नहीँ रहा। किँतु क्या गौरवमय और भूलुण्ठित इतिहास का गला घोँटकर, आत्मविस्मरण के साथ ही नवभारत की योजना बनेगी? क्षमा कीजिएगा, मेरी दृष्टि मेँ इस तरह का प्रयास आत्महंता है।

Dr Om Prakash Pandey said...

yah satya hai ki apne man kee jameen se apne poorvajon ko mita dena atmahatya se bhi bura hai . awashyakata is baat kee hai ki ham karyakram banyee , sanskrit kee saskriti ko apanaayen .

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

आदरणीया अजित जी
आप जैसी प्रख्यात साहित्यकार का प्रतिक्रिया पाकर मैँ धन्य हुआ। आपका कोटिशः आभार।

Manoj Kumar Singh 'Mayank' said...

आदरणीय डाँ. साहब
मैँ समझ नहीँ पाया आप किस तरह के योजना की बात कर रहे हैँ? यदि आपके पास कोई योजना है तो मैँ उस पर चलने के लिये तैयार हूँ। कविता का संदर्भ www.jagranjunction.com से जुड़ा हुआ है। इस मंच पर श्रीमान एस डी वाजपेयी ने अपने एक लेख मे हिन्दू शब्द को मुखौटा बताया था। मेरे द्वारा लिखित प्रस्तुत कविता उनकी साहित्यिक धुनाई से अधिक कुछ नहीँ है। आप इस कविता को www.atharvavedamanoj.jagranjunction.com पर भी देख सकते हैँ। आपका कोटिशः आभार।