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21.1.11

स्वर्ण घटित

मित्र ,
किसी कुम्भार के कुम्भ की तरह
एक ही धक्के में दरारदार नहीं होनेवाली
अपनी यह दोस्ती
सचमुच स्वर्ण घटित है ।

तू तू ,मैं मैं , लत्तम जूती, ऐं वें ,
के बावजूद
महीनों मौन रहकर
हम फिर जुड़ जायेंगे
ऐसे मुखरित होकर
गोया सदैव हमारी साँसें
एक दूसरे को पुकारती रही हों ।

कोई गांठ नहीं
यह कोई धागा नहीं
मित्रता की सांकल है ।

और जब मैं
अपनी हार के दुःख में
स्वयं से सहानुभूति
जताया तो
तुम तमतमाए और पित पितआये
के बीच का कोई चेहरा लिए
मेरे सामने आये
और यह बताया
के कमी अपनी ही चाहत में
थी ।

तो चलो
तुम्हारे उसी चेहरे
के साथ श्रीगणेश करता हूँ
ताकि इस हार को हरा सकूं ।

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