कई बार हम जो सोंच रहे होते हैं और आशंकित रहते हैं कि कहीं ऐसा-वैसा न हो;नियति ने हमारे लिए उसके बिलकुल उलट इंतजाम करके रखा होता है.मुझे ७ जनवरी को भोपाल के लिए ट्रेन पकडनी थी.टेलीविजन पर लगातार आक्रामक होती ठण्ड की ख़बरें देख-देखकर मैं तनाव में था कि न जाने किस तरह गुजरेगी यह २० घन्टे की रेलयात्रा.कहीं ठण्ड यात्रा के मजे को भी ठंडा तो नहीं कर देगी?लेकिन जैसे ही ट्रेन खुली हमें यह जानकर बहुत ख़ुशी हुई कि हमारे सहयात्रियों में बलिया के प्रसिद्ध भोजपुरी गायक गोपाल राय का म्यूजिकल ग्रुप भी है.हालांकि इनमें से कुछ लोगों की सीटें कहीं और थीं लेकिन इन्होंने एक परिवार से सीटें बदल लीं.तीन लोग थे ये.अर्जुन,रजनीश और राजकुमार.तीनों मस्त और खिलंदड.न केवल सुरों के साधक बल्कि बातों के भी धनी.कभी किसी चायवाले से पसेरी के हिसाब से चाय की मांग करते तो कभी किसी मूंगफलीवाले से एक क्विंटल का दाम पूछते.एक चायवाले ने तो डर कर साफ़ तौर पर कह भी दिया कि वह खुदरा में ही चाय बेचता है.कुछ देर की आपसी बतकही के बाद ही वे खुलने लगे और खुलने लगी उनकी जिंदगी हमारे सामने परत-दर-परत.उन्होंने बताया कि उनकी जिंदगी का कहीं कोई ठिकाना नहीं है.आज यहाँ तो कल वहां.सब कुछ अनिश्चित.हालांकि उनका शब्दज्ञान काफी सीमित था.जब उनमें से ही किसी के मोबाईल पर हिना फिल्म का शीर्षक गीत बज रहा था तब उनमें सबसे स्मार्ट रजनीश ने मुझसे खानाबदोश शब्द का अर्थ पूछा.आश्चर्य!खुद जो व्यक्ति खानाबदोशों की जिंदगी बिता रहा था मुझसे उसी शब्द के मायने पूछ रहा था.मुझे याद आया कि कहीं पढ़ा था कि शोषण की पराकाष्ठा तब है जब आपको मालूम ही नहीं हो कि आपका शोषण किया जा रहा है.तीनों में कौन सबसे बड़ा चुटकुलेबाज था,कह नहीं सकता.मिनट-मिनट पर ठहाके.जैसे बार-बार हंसी के ज्वालामुखी पर्वत में विस्फोट हो रहा हो.अर्जुन से मैंने पूछा कि इससे पहले वह कितनी बार हैदराबाद गया है तो उसने बताया कि तीन बार.लेकिन शहर में कहाँ क्या है उसे बिलकुल नहीं पता.ट्रेन से होटल और फ़िर होटल से सीधे प्रस्तुति मंच पर.जो भी देखा रात के स्याह अँधेरे में देखा,दिन का उजाला तो किस्मत में ही नहीं है.हो सकता है कि हैदराबाद से ही और भी कार्यक्रम देने के प्रस्ताव आ जाएँ और कई दिनों तक लगातार हैदराबाद में ही रूकना पड़े;ऐसे ही रतजगा करते.उन्होंने बताया कि गोपालजी स्वयं वातानुकूलित बोगी में हैं.मतलब संगीत के क्षेत्र में भी श्रेणीक्रम.यहाँ भी बड़े कलाकारों द्वारा छोटे कलाकारों का शोषण किया जा रहा है.सारा लाभ गोपालजी का उन्हें सिर्फ दिन के हिसाब से मजदूरी मिलेगी.
मेरे द्वारा पूछने पर कि वे लोग भीड़ में अपने जूते-चप्पलों की रक्षा कैसे करते हैं उन्होंने बताया कि वे उनमें वियोग उत्पन्न कर देते हैं.यानी एक जूता या चप्पल मंच की दाहिनी ओर तो दूसरी बायीं ओर रख देते हैं.अब कोई भी चोर बेमेल जोड़ी वाले जूते-चप्पल ले जाने से तो रहा.मैंने उनसे शिकायत की कि वे लोग किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत तो भजन से करते हैं लेकिन बाद में अश्लील गीत गाने लगते हैं तो उनके जवाब था कि ऐसा वे शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में करते हैं.सबको शीला की जवानी चाहिए;लोग भजन गाने पर कुर्सियां तोड़ने लगते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है जब गोपाल जी से ज्यादा न्योछावर कोई नर्तकी अंगप्रदर्शन कर,कमर मटकाकर बटोर ले जाती है.रजनीश का कहना था कि वह लगातार तीन दिनों तक रात में जगकर कार्यक्रम दे सकता है,इससे ज्यादा नहीं.तीनों में सबसे वरिष्ठ राजकुमार भी कहाँ पीछे रहनेवाले थे.उन्होंने बताया कि जब गोपाल राय शिखर पर थे तब दिल्ली में कहीं कार्यक्रम देने गए.प्रस्ताव आते गए और रातें गुजरती गईं.फ़िर जब १ महीना होने को आया तब ग्रुप के लोग धीरे-धीरे घर भागने लगे.मैंने सोंचा काश,रोजाना वर्षों तक लगातार रात में काम करने को बाध्य पत्रकार भी इसी तरह भाग सकते!काश,उनके पास भी विकल्पों की भरमार होती!लगभग सभी प्राईवेट नौकरियों में कार्यरत लोगों की यही हालत है.कम-से-कम भारत में तो निजी क्षेत्र में शोषण अपने उच्चतम बिंदु को प्राप्त कर ही चुका है.
यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि अगर आप सरकारी नौकरी के इच्छुक हैं और ऐसा इसलिए हैं क्योंकि आप सोंचते हैं कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ आराम होता है तो कृपा करके इस ग़लतफ़हमी का परित्याग कर दें.दिल्ली और खासकर केंद्रीय मंत्रालयों में अधिकारियों और कर्मचारियों को आराम का अवसर दिया ही नहीं जाता है.आपको ९ बजे से ५.३० बजे तक दफ्तर में रहना होगा.हो सकता है कि कोई दफ्तर १० बजे भी खुलता हो.जब तक आप दफ्तर में होंगे आपको साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं दी जाएगी.एक साथ आपको कई-कई अधिकारियों का जानलेवा दबाव झेलना होगा.कभी-कभी आपको शनिवार और रविवार को भी आना होगा यानी छुट्टी भी न्योछावर.उसपर सबसे बड़ी त्रासदी यह कि उस छुट्टी के बदले आपको बाद में छुट्टी भी नहीं दी जाएगी.मियां कब जवानी को पीछे धकेलकर बुढ़ापा आपके बालों पर सफेदी पोत जाएगा,आपको इसकी भनक तक नहीं लगेगी.यानी यहाँ भी सिर्फ शोषण ही शोषण.शायद इस सार्वभौमिक हो चुके शोषण को,श्रमिकों के साथ पशु-सदृश व्यवहार को ही कारपोरेट कल्चर कहते हैं.इसके अलावा कारपोरेट कल्चर कुछ और होता है तो आपको पता होगा मुझे तो नहीं पता.हाँ मुझे यह जरूर पता है कि कई मंत्रालयों में जब भी मंत्रीजी पधारते व विराजते हैं तो गमले बदल दिए जाते हैं और वे गमले मिट्टी के नहीं होते पीतल के होते हैं.पुराने गमलों का क्या होता है यह शायद नेताजी को पता हो;यहाँ मैं अनुमान लगाने का जोखिम नहीं लेना चाहूँगा.अब अगर आप सोंच रहे हैं कि वहाँ नेताजी गमले बदलवाने में व्यस्त हैं और यहां जनता महंगाई से परेशान है तो सोंचते रहिए.इससे मंत्रीजी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़नेवाला,आपका रक्तचाप जरूर बढ़ सकता है.
भारतीय करेंसी नोट पर पिछले कई वर्षों से विराजने वाले गांधी ने कभी सपना देखा था कि स्वतंत्र भारत में श्रम और बुद्धि दोनों का बराबर मूल्य होगा,सम्मान होगा.लेकिन आज जब कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर इटली से आयातित गांधी विराज रही है तब देश में न तो बुद्धि का ही कोई महत्त्व है और न ही श्रम का,पूँजी ही सबकुछ हो गई है.परम सत्य भी पूँजी और अंतिम सत्य भी.अब जब मैं कड़वी सच्चाई से ठसाठस भरे लेख का समापन करने जा रहा हूँ तो मेरी चेतना फ़िर से मुझे फ्लैश बैक में घसीट रही है और मैं देख रहा हूँ कि पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस की एस-वन बोगी की सीट संख्या-३७,३८ और ३९ पर बैठे कलाकार-त्रयी झूम-झूमकर गा-बजा रहे हैं-जो गति तोरा,सो गति मोरा; रामा हो रामा.लेकिन धरती को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा.बेपरवाह होकर धरती अब भी अपनी धुरी पर घूमे जा रही है,घूमे जा रही है.
मेरे द्वारा पूछने पर कि वे लोग भीड़ में अपने जूते-चप्पलों की रक्षा कैसे करते हैं उन्होंने बताया कि वे उनमें वियोग उत्पन्न कर देते हैं.यानी एक जूता या चप्पल मंच की दाहिनी ओर तो दूसरी बायीं ओर रख देते हैं.अब कोई भी चोर बेमेल जोड़ी वाले जूते-चप्पल ले जाने से तो रहा.मैंने उनसे शिकायत की कि वे लोग किसी भी कार्यक्रम की शुरुआत तो भजन से करते हैं लेकिन बाद में अश्लील गीत गाने लगते हैं तो उनके जवाब था कि ऐसा वे शौक से नहीं बल्कि मजबूरी में करते हैं.सबको शीला की जवानी चाहिए;लोग भजन गाने पर कुर्सियां तोड़ने लगते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है जब गोपाल जी से ज्यादा न्योछावर कोई नर्तकी अंगप्रदर्शन कर,कमर मटकाकर बटोर ले जाती है.रजनीश का कहना था कि वह लगातार तीन दिनों तक रात में जगकर कार्यक्रम दे सकता है,इससे ज्यादा नहीं.तीनों में सबसे वरिष्ठ राजकुमार भी कहाँ पीछे रहनेवाले थे.उन्होंने बताया कि जब गोपाल राय शिखर पर थे तब दिल्ली में कहीं कार्यक्रम देने गए.प्रस्ताव आते गए और रातें गुजरती गईं.फ़िर जब १ महीना होने को आया तब ग्रुप के लोग धीरे-धीरे घर भागने लगे.मैंने सोंचा काश,रोजाना वर्षों तक लगातार रात में काम करने को बाध्य पत्रकार भी इसी तरह भाग सकते!काश,उनके पास भी विकल्पों की भरमार होती!लगभग सभी प्राईवेट नौकरियों में कार्यरत लोगों की यही हालत है.कम-से-कम भारत में तो निजी क्षेत्र में शोषण अपने उच्चतम बिंदु को प्राप्त कर ही चुका है.
यहाँ मैं आपको यह बता दूं कि अगर आप सरकारी नौकरी के इच्छुक हैं और ऐसा इसलिए हैं क्योंकि आप सोंचते हैं कि सरकारी नौकरियों में सिर्फ आराम होता है तो कृपा करके इस ग़लतफ़हमी का परित्याग कर दें.दिल्ली और खासकर केंद्रीय मंत्रालयों में अधिकारियों और कर्मचारियों को आराम का अवसर दिया ही नहीं जाता है.आपको ९ बजे से ५.३० बजे तक दफ्तर में रहना होगा.हो सकता है कि कोई दफ्तर १० बजे भी खुलता हो.जब तक आप दफ्तर में होंगे आपको साँस लेने की भी फ़ुरसत नहीं दी जाएगी.एक साथ आपको कई-कई अधिकारियों का जानलेवा दबाव झेलना होगा.कभी-कभी आपको शनिवार और रविवार को भी आना होगा यानी छुट्टी भी न्योछावर.उसपर सबसे बड़ी त्रासदी यह कि उस छुट्टी के बदले आपको बाद में छुट्टी भी नहीं दी जाएगी.मियां कब जवानी को पीछे धकेलकर बुढ़ापा आपके बालों पर सफेदी पोत जाएगा,आपको इसकी भनक तक नहीं लगेगी.यानी यहाँ भी सिर्फ शोषण ही शोषण.शायद इस सार्वभौमिक हो चुके शोषण को,श्रमिकों के साथ पशु-सदृश व्यवहार को ही कारपोरेट कल्चर कहते हैं.इसके अलावा कारपोरेट कल्चर कुछ और होता है तो आपको पता होगा मुझे तो नहीं पता.हाँ मुझे यह जरूर पता है कि कई मंत्रालयों में जब भी मंत्रीजी पधारते व विराजते हैं तो गमले बदल दिए जाते हैं और वे गमले मिट्टी के नहीं होते पीतल के होते हैं.पुराने गमलों का क्या होता है यह शायद नेताजी को पता हो;यहाँ मैं अनुमान लगाने का जोखिम नहीं लेना चाहूँगा.अब अगर आप सोंच रहे हैं कि वहाँ नेताजी गमले बदलवाने में व्यस्त हैं और यहां जनता महंगाई से परेशान है तो सोंचते रहिए.इससे मंत्रीजी की सेहत पर कोई असर नहीं पड़नेवाला,आपका रक्तचाप जरूर बढ़ सकता है.
भारतीय करेंसी नोट पर पिछले कई वर्षों से विराजने वाले गांधी ने कभी सपना देखा था कि स्वतंत्र भारत में श्रम और बुद्धि दोनों का बराबर मूल्य होगा,सम्मान होगा.लेकिन आज जब कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर इटली से आयातित गांधी विराज रही है तब देश में न तो बुद्धि का ही कोई महत्त्व है और न ही श्रम का,पूँजी ही सबकुछ हो गई है.परम सत्य भी पूँजी और अंतिम सत्य भी.अब जब मैं कड़वी सच्चाई से ठसाठस भरे लेख का समापन करने जा रहा हूँ तो मेरी चेतना फ़िर से मुझे फ्लैश बैक में घसीट रही है और मैं देख रहा हूँ कि पटना-सिकंदराबाद एक्सप्रेस की एस-वन बोगी की सीट संख्या-३७,३८ और ३९ पर बैठे कलाकार-त्रयी झूम-झूमकर गा-बजा रहे हैं-जो गति तोरा,सो गति मोरा; रामा हो रामा.लेकिन धरती को इससे कोई फर्क नहीं पड़ रहा.बेपरवाह होकर धरती अब भी अपनी धुरी पर घूमे जा रही है,घूमे जा रही है.
No comments:
Post a Comment