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18.9.11

अपनी तो लकड़ी की टाल है साहिब..

विशेष टिप्पणी-                  अतुल कुशवाह   
इस बार पहले दिल्ली को दहलाया, और अब आगरा के जय अस्पताल में विस्फोट. मकसद वाही, बेगुनाहों की मौत, मागी किसलिए, पता नहीं. आतंक का एक और तमाचा.हम फिर गाल सहलाते रह गए. दिल्ली ब्लास्ट. दो संगठनों ने ली जिम्मेदारी.मगर देखिये. जाँच एजेंसियां खाली हाथ. प्रधानमंत्री ने कहा.अख़बारों ने छापा. आतंक से निपटा जायेगा.हमला निंदनीय है. पक्ष-विपक्ष के बयान. पब्लिक का हंगामा.बेअसर सत्ता. पीड़ितों के गुस्से की आग पर मुआवजे की सहानुभूति का पानी. लेकिन नहीं. जरा सोचिये. क्या यह अंतिम धमाका है. नहीं. तो फिर अगला ब्लास्ट किस शहर में.? पता नहीं. लेकिन वो शहर देश में ही होगा. लोग मरेंगे. नेता बयान देंगे. ख़ुफ़िया तंत्र चूकेगा. मीडिया छापेगा. कहाँ हुई चूक. जाँच होगी. जाँच चलेगी. चलती रहेगी. मगर इस बीच. दोषियों पर ठोस कार्रवाई के बयान भी उड़ेंगे. खुद सोचिये. लोकतंत्र निशाना, जनतंत्र की हत्या. मगर आतंक के आगे सत्ता नपुंसक . २६-११ तो फिर लौटेगा. जख्म हरे और दर्द ताजा करने. कहीं ऐसा न हो. की नए जख्म और दे जाये. तो संभलो. योद्धा बनो. सियासत पर भरोसा मत करो. क्योंकि. हर धमाके के बाद सियासत जंग लगे तर्कों के खोल में घुस जाती है. काला हो चुका चेहरा छिपाने. बेशर्म सरकार. भयानक भ्रष्टाचार. बस यहीं तक सीमित इसका आकार. अफजल जिन्दा है. कसब भी. सजा हो गई. फिर भी क्या हुआ. किस बात का इंतज़ार. अब नए की तलाश. क्यों. पकड़ भी लिया तो फिर. क्या कर पाओगे. जाँच कर रहे हैं, मगर किसलिए. ? उठो. जागो. देखो. समझो. जांबाज योद्धाओं. तुम ही करोगे.तुम ही बढ़ोगे.और जब तुम ही तलाशोगे. इसका हल. तभी बचेंगी, बेगुनाह, मासूम, और लाचार जिंदगियां. जो हो रही हैं. आतंक की शिकार. अन्यथा. सियासत में महफूज रहना भ्रम है...क्योंकि. सियासत तो यही चाहती है....
लोग मरते रहें तो अच्छा है,
अपनी तो लकड़ी की टाल है साहिब..

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